भारतबोध से ओत-प्रोत तपस्वी, चिंतक और संत: सच्चिदानंद जोशी
डॉ. विनीत उत्पल
किसी तपस्वी, चिंतक या संत को सांसारिक भोग-विलास, पद, जान-पहचान से कोई फर्क नहीं पड़ता। उसे इस बात से भी फर्क नहीं पड़ता कि उसके आसपास के लोग उसे कितनी अहमियत देते हैं. उससे इस बात का रत्ती भी फर्क नहीं पड़ता कि राजा और रंक उसे अहमियत देता है या नहीं। हाँ, इस बात से फर्क अवश्य पड़ता है कि उसके मन-वचन-कर्म से किसी की हानि न हो और उसके सान्निध्य में आने वाले लोगों का भला हो. वे किसी से नाराज तो होते हैं लेकिन उनकी नाराजगी सामने वालों को एक सीख दे जाती है और अगले ही पल ऐसे पेश आते हैं जैसे कुछ हुआ ही न हो. ऐसे ही तपस्वी, चिंतक और संत परंपरा के व्यक्तित्व से ओतप्रोत हैं प्रो. सच्चिदानंद जोशी.
व्यक्ति का व्यक्तित्व ही उसे संत बनाता है, कर्म ही तपस्वी बनता है और मन ही चिंतक बनाता है. ऐसे में सच्चिदानंद जोशी के मन-वचन-कर्म में इस बात का रत्ती भी फर्क नहीं पड़ता कि वे किसी विश्वविद्यालय के कुलपति के तौर पर दो कार्यकाल पूरा किया है, किसी विश्वविद्यालय के संस्थापक कुलसचिव रहे हों या फिर इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के सदस्य सचिव हों. वे अभी प्रधानमंत्री के साथ बैठक करके आ रहे हैं या फिर राष्ट्रपति से. वे हमेशा एकसमान शांत, प्रसन्नचित्त और उपलब्ध मिलेंगे। मिलने पर या तो आप उनकी व्यस्तता को समझ पाएंगे या वे खुले तौर पर आपको बता देंगे मगर संवाद जारी रखेंगे। अपने मिले दायित्व को ईश्वर का प्रसाद मान कर वे आपको कार्यरत मिलेंगे. आपकी बात सुनने को आतुर मिलेंगे। बाल सुलभ आचरण से ओत-प्रोत मिलेंगे और मिलने पर लगेगा कि कल ही मिले थे और और आज दोबारा मिले हैं. किसी कार्यक्रम में वे कितने भी व्यस्त क्यों न हों, किसी कार्यक्रम के क्यों न वे अहम् अतिथि क्यों न हों, अपने भाव या शब्दों से आपसे संचार अवश्य कर लेंगे. उनके व्यक्तित्व में अहंकार का अंश मात्र भी नहीं मिलेगा.
सच्चिदानंद जोशी ऐसे व्यक्तित्व हैं जिनसे बात करने के दौरान इस बात का जरा भी अहसास नहीं होता कि वे एक नाटककार हैं, कलाकार हैं, संचारविद हैं, कहानीकार हैं, कवि हैं, प्रबंधक हैं, योजनाकार हैं, भारत सरकार के सचिव स्तर के अधिकारी हैं, बल्कि अहसास होता है कि वे राष्ट्र निर्माण के गहन अध्येत्ता हैं, भारतीय संस्कृति के मननकर्ता हैं और तो और और आपको अहसास होगा कि वे आपके गार्जियन हैं, आपकी चिंता करते हैं, आपका सुख और दुःख उनका भी सुख और दुःख है. आपको अहसास होगा कि कोई तो इस समाज में हैं जो आपकी चिंता करता है और वाकई वे चिंता करते हैं.
मुक्तिबोध कहते हैं कि लेखन के लिए जीवनानुभव आवश्यक है तभी तो सचिदानंद जोशी ‘शॉवर और फ्लश’ से संबंधित जीवन के किस्से हर किसी को भाते हैं. वे कहते भी हैं, प्यार को जब नाटक में और/ झगड़े को असल में बदलता पाया/ लगा कि अब बड़े ही गए हैं. सच्चिदानंद जोशी भारतीय संस्कृति और परंपरा के प्रति लोगों की दूरी से चिंतित हैं, “आज की इस तेजी से भागती डिजिटल जिंदगी में हमारे मनोरंजन और ज्ञान में वृद्धि का जिम्मा भी इन यंत्रों ने ले लिया है जिसमें मानवीयता की, संवेदना की और आत्मीयता का पुट लेशमात्र भी नहीं है. लेकिन आज से कुछ वर्ष पहले विशेषकर गांवों में मनोरंजन और आत्मीयता का भी उतना ही महत्त्व है, जितना उस कथन में कहा जा रहा है.” वे पारिवारिक रिश्तों और सामाजिक रिश्तों और उनके नामों को लेकर चिंताएं जाहिर करते हैं, “समय आ गया है कि हम अपने रिश्तों को सम्हालें, सहेजें, नहीं तो वे समय की आंधी में न जाने कहाँ काफूर हो जायेंगे.”
सच्चिदानन्द जोशी भारतीय संस्कृति में संचार के नए प्रतिमान या सिद्धांतों को ढूंढते हैं. मीडिया के विद्यार्थियों को सम्बोधित करते हुए के बार उन्होंने कहा था, “सनातन धर्म में पूजा-पाठ का प्रावधान है और जब सत्यनारायण भगवान की पूजा होती है तो पंडित जी एक अध्याय की समाप्ति पर कहते हैं, ‘सब बोलो सत्यनारायण भगवान् की’ और बाकी लोग कहते हैं ‘जय’.” वे इस प्रक्रिया को भारतीय संवाद सिद्धांत की तरह परिभाषित करते हैं और कहते हैं कि यह भारतीय संचार सिद्धांत है जिसके तहत प्रेषक श्रोता से जुड़ता है और कथा के माध्यम से प्रतिपुष्टि भी होती है कि श्रोता सत्यनारायण भगवान् की कथा सुन रहा है या नहीं। यह प्रतिपुष्टि परम्परा सनातन धर्म में हजारों वर्ष से चली आ रही है. भजन, कीर्तन, प्रवचन, वेदाध्ययन सहित तमाम आयोजनों में प्रेषक का श्रोताओं से जुड़ने की परंपरा चली आ रही है जो किसी भी पाश्चात्य संचार सिद्धांत से आने से पहले के सिद्धांत हैं. भारतीय संचार सिद्धांत कागजी सिद्धांत नहीं है बल्कि वे अमल में लाये जाते हैं यानी कौशल आधारित संचार सिद्धांत हैं तो ‘पंडित जी’ अमल में लाते हैं.
सच्चिदानंद जोशी नए संसद भवन में भारतीय संस्कृति और आस्था को भी चिन्हित करते हैं और लिखते हैं, “संसद के नए भवन में छह प्रवेश-द्वार हैं जिनमें से प्रत्येक द्वार को बलुआ पत्थर से बनी मूर्तियों से सुसज्जित किया गया है. वास्तव में यह मूर्तियां भारतीय सभ्यता व संस्कृति में मान्य शुभ फलदायक जीवधारियों का चित्रण है, जो सफलता, कीर्ति, शक्ति, विजय, ऊर्जा और ज्ञान के प्रतीक हैं. इनके नाम इन्हीं प्राणियों के नाम पर गज-द्वार, अश्व-द्वार, गरुड़-द्वार, हंस-द्वार, मकर-द्वार और शार्दुल-द्वार रखे गए हैं.” वे आगे लिखते हैं, “नए भवन में तीन उत्सव मंडप हैं. इनमें चाणक्य, गार्गी, गांधी, पटेल, आंबेडकर, नालंदा एवं कोणार्क चक्र की विशाल पीतल की मूर्तियां हैं जो सकलप, मान और कर्तव्य मंडप के रूप में भारत की लोकतान्त्रिक और संवैधानिक विरासत की साक्ष्य हैं.” सच्चिदानंद जोशी भारतीय साहित्य एवं इतिहास के अध्येता है, वे लिखते हैं “रामायण और महाभारत में प्राप्त उल्लेखों के आधार पर कहा जा सकता है कि भारत में लोकतंत्र अथवा लोक संग्रह अथवा लोक कल्याणकारी राज्य की समृद्ध व्यवस्था रही है. रामायण और महाभारत के साथ ही वेद, उपनिषद तथा बाद के काल में बौद्ध, जैन दर्शन में ऐसी परंपरा का उल्लेख है. इस सन्दर्भों के परिप्रेक्ष्य में भारत को यदि ‘लोकतंत्र की जननी’ कहा जाता है.”
सिर्फ भारतबोध
सच्चिदानंद जोशी के तन और मन भारतबोध के ओतप्रोत है. उनके दिलोदिमाग में बस राष्ट्र का नवनिर्माण, भारत बोध को लेकर आत्मविश्वास और उसके अनुसार कर्म ही हमेशा विद्यमान रहता है. वे पाश्चात्य विद्वानों के मुकाबले भारतीय विद्वानों को किसी भी स्तर पर कमतर समझना या रहना पसंद नहीं करते। उनके लिए भारत का अग्रणी रहना या होना महत्वपूर्ण है. वे देश और विदेश में कही भी जाते हैं तो उनका मन भारत, भारतीय इतिहास और इससे जुड़े वैभव को ढूंढता है. वे अपने आलेखों में ‘वसुधैव कुटुंबकम’ को समाहित करते हैं. किसी संबंधी या परिचित की मृत्यु के मौके पर ‘डेड हाउस’ जाने पर वहां कार्यरत महिला की संयत और व्यवस्थित कार्य पद्धति सहित शमशान भूमि में चिता सजानेवाले सज्जन के कौशल पर ध्यान केंद्रित करते हैं और लिखते हैं कि वे कैसे मृत्यु के तांडव से बेखबर पूरे मनोयोग से अपने काम को अंजाम देते हैं और यह मनोयोग से कार्य पद्धति भारतीय संस्कृति की पहचान है.
उत्तरप्रदेश कानपुर जाते हैं तो बिठुर से जुड़े इतिहास को मनन करते हैं, लवकुश और ध्रुव की जानकारी हासिल करते हैं और स्थानीय लोगों की उपेक्षा पर चिंता व्यक्त करते हैं. पश्चिम बंगाल के शांतिनिकेतन में रवीन्द्रनाथ टैगोर को ढूंढते हैं. अमेरिका के शिकागो जाते हैं तो स्वामी विवेकानंद को याद करते हैं. ऑक्सफ़ोर्ड जाते हैं तो फिल्म ‘सिलसिला’ में अमिताभ बच्चन पर फिल्माये गीत ‘जिन राहों पर/ तेरे साथ गुजरने की तमन्ना थी/ आज उन राहों से मैं/ तनहा गुजर आया हूँ’ याद आते हैं. ऑक्सफ़ोर्ड संग्रहालय में भी वे भारत को ढूंढते हैं और वहां महावीर स्वामी की संगमरमर की मूर्ति ढूंढ ही लेते हैं. वियतनाम, थाईलैंड, रूस भी जाते हैं तो वहां भी भारत को ही ढूंढते हैं. हरि अनंत हरि कथा अनंत के तर्ज पर सच्चिदानंद जोशी का अनुभव है, किस्सा है, कविता है, कहानी है, नाटक है, आदि आदि.
बतौर तपस्वी
करीब सात-आठ वर्ष पहले की बात है. अपने निकटतम पूर्व सहयोगियों और मित्रों के साथ प्रो. सचिदानंद जोशी बैठे हुए थे. उसी क्रम में किसी ने उनकी उँगलियों को खाली देख पूछा कि आपकी उँगलियों में अंगूठी दिखाई नहीं दे रही है? तो उनका जबाव था कि अब मैं कोई आभूषण नहीं पहनता। यहाँ तक की घड़ी भी नहीं। और उन्होंने बताया कि किसी अनुष्ठान में कहा गया कि आप जिस चीज/आदत को सबसे ज्यादा पसंद करते हैं, उन्हें त्याग कर दें और उन्होंने उस दिन से निश्चय किया कि वे अब कभी कोई आभूषण अपने शरीर में धारण नहीं करेंगे. जाहिर-सी बात है कि उससे पहले प्रो. सचिदानंद जोशी को आभूषण पसंद रहा होगा तभी उनके निकटस्थ लोगों ने यह सवाल किया होगा. ऐसे में नचिकेता के पिता वाजश्रवा की कहानी याद आ गई.
सच्चिदानंद जोशी का तपस्वी मन शब्दों के जरिये उनके सोशल मीडिया पर उभर आता है और उन शब्दों से लगता है कि भारतीय परिवार और समाज को लेकर जिस कदर चिंता करते हैं, वे कोई तपस्वी ही कर सकता है. अपने पिता को लेकर वे लिखते हैं, “जब नन्हीं आँखों से/ किसी चीज की चाहत होती थी/ तब तुम थे तो लगता था/ सब मिल जाएगा/ अब जब लगता है/ सब मिल सकता है तो/ बुजुर्ग होती आँखें/ बस तुमको ढूंढती हैं”. इन पंक्तियों से सीधा अर्थ है कि जीवन की परतें कितनी हैं और किस तरह पिता का बछोह किसी व्यक्ति को परेशान करता है और यह शब्दों के रूप में उभर कर सामने आता है और ऐसे शब्दों के एक कविता की रचना कोई तपस्वी ही कर सकता है. वहीं, एक कविता में वे कहते हैं, “भावनाओं के घनीभूत में/ कैसे अपना ध्यान लगा है/ छोड़ मोह लौकिकता का/ आओ हम सब शिव बन जाएँ।” सामाजिक बिडंबनों को देखकर उनका तपस्वी मन बुद्ध पर कविता लिखने को आतुर होता है तो वे कहते हैं, बुद्ध तुम जो आज होते/ तो क्या अपने होने की बात/ इस उजाड़ होती दुनिया को/ वैसे ही बता पाते/ क्या उसी तरह होता तुम्हारी पीड़ा/ परिवर्तन और पारंग मुखता का उद्देश्य/ क्या अब भी होता उन्हीं आठ मार्गों पर/ जीवन जीने का तुम्हारा सन्देश।
ट्रैफिक सिग्नल पर ठंठ के मौसम में मासूम के झंडा बेचते देख उनका मन द्रवित होता है तो वे लिखते हैं, “पता नहीं उनसे झंडे/ कितने लोग खरीद पाते हैं/ लेकिन उनकी इस हालत पर/ अपना अफ़सोस जरूर जताते हैं/इनके लिए कुछ करना है/ ऐसा विचार जरूर आता है/ लेकिन हरी बत्ती के साथ ही/ न जाने वो विचार/ कहाँ काफूर हो जाता है.” वे जीवन को लेकर कहते हैं, “जीवन में ऐसा बहुत कुछ है जो मुझे नहीं मिला/लेकिन ऐसा भी है जो सिर्फ/ मुझे मिला/ नहीं मिले की कुंठा में जीना है/ या मिले का उत्स मानना है/ मुझे तय करना है.” वहीं, सुलगती जिंदगी में वे लिखते हैं, “पता नहीं कहाँ है ठौर और कहाँ है मंजिल/ पता नहीं कहाँ है किनारा और कहाँ है साहिल/ भटक रहे हैं हम इस मृग तृष्णा में दिशाहीन/ कस्तूरी की खोज में गाफिल हिरन की तरह.”
बतौर चिंतक
भारतीय जनसंचार संस्थान, दिल्ली के तत्कालीन महानिदेशक प्रो. संजय द्विवेदी ने सत्रारम्भ कार्यक्रम में प्रो. सच्चिदानंद जोशी को बतौर वक्ता आमंत्रित किया था. इस मौके पर प्राचीन काल की संचार कला पर उनका व्याख्यान जबरदस्त था. वे कहते हैं, “प्राचीन काल में संचार की कला का जबरदस्त महत्त्व था. एक-दूसरे के साथ संवाद स्थापित करने पर जोर था. हमारे अधिकांश महत्वपूर्ण शास्त्र संवाद के रूप में हैं और वे लगभग सवाल और जवाब के रूप में हैं. भगवतगीता में भी प्रश्न और उत्तर हैं. नाट्यशास्त्र में भी प्रश्न और उत्तर ही हैं. वैदिक शास्त्र में भी प्रश्न और उत्तर हैं. यानी कोई व्यक्ति प्रश्न पूछेगा और कोई उसका उत्तर देगा. हमारे देश में संवाद का महत्त्व था. वाद का महत्त्व था, उसकी परंपरा थी.”
बतौर सच्चिदानंद जोशी, “मनुष्य के रूप में हमारी पहचान ही हमारी संस्कृति बनाती है. सारे अच्छे कामों की शुरुआत घर से होती है. अपने घर से संस्कृति का पहला पाठ सीखना शुरू करते हैं. उन्हें अपने चरित्र में, अपने मन में, अपने रीति-रिवाजों में, अपने संस्कारों में कहीं-न-कहीं ढालना शुरू करते हैं और इस तरह से हम संस्कृतिक बनते हैं.”
वे आगे कहते हैं, “भारतीय संस्कृति में सब कुछ है. इसने सिखाया है कि मात्र व्यक्ति और समाज ही नहीं है, बल्कि बीच में परिवार भी है. व्यक्ति, परिवार और समाज। इसलिए हमारे यहाँ कहा गया है, “अयं निजः परो वेति, गणना लघु चेतसाम। उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुंबकम।” यह मेरा है, यह तुम्हारा, यह सब छोटे मन के लोगों की बात है. जिसका चरित्र उदार है, मन उदार है, उसे लगता है पूरा संसार मेरा परिवार है. लेकिन दुर्भाग्य से धीरे-धीरे हम अपनी विचारधारा ही खोते चले गए. जब वे ‘विचारधारा’ शब्द कहते हैं तो वे वैचारिक लड़ाई की बात नहीं करते बल्कि भारतीय संस्कृति की बात करते हैं, जिसमें व्यक्ति अपना परिवेश देखता है. वे इस बात पर चिंता जाहिर करते हैं कि लोगों को पता नहीं होता कि उनके पड़ोस में कौन रह रहा है. व्यक्ति उसके बारे में कुछ भी जानने को तैयार नहीं होता है. उनका मानना है कि भारत की पहचान उसके सांस्कृतिक बोध से होती है.
सच्चिदानंद जोशी कहते हैं कि व्यक्ति को अपने अंदर संतुलन ढूँढना पड़ेगा और वह संतुलन सांस्कृतिक शक्ति ही दे सकती है. वे यह संतुलन को तीन तरह से विभाजित करते हैं, शारीरिक/भौतिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक। इसलिए वे कहते हैं, व्यक्ति को खुद को शारीरिक तौर पर चुस्त-दुरुस्त रखना होगा और उसके लिए जो भी तरीका अपनाना पड़े, व्यायाम, दौड़ या योग, जो भी हो, करें और अपने आपको फिट रखें। क्योंकि अगर आपके पास शारीरिक संतुलन होगा तभी आप भविष्य की चुनौतियों को झेल पाएंगे.
भावनात्मक संतुलन को लेकर सच्चिदानंद जोशी का मानना है कि किसी भी व्यक्ति के लिए मानसिक संतुलन जरूरी है क्योंकि हम सब एक भावनात्मक समाज के लोग हैं. सभी लोग इस समाज का हिस्सा हैं, जो भावनात्मक रूप से संवेदनशील है. जो लोगों के मन में है, वह हमारे भी मन में है. हमेशा व्यक्ति खुद को समाज की समस्या से जुड़ा हुआ मानता है और ऐसे में एक मानसिक संतुलन होना चाहिए और वह मानसिक संतुलन ढूँढना चाहिए.
आध्यात्मिक संतुलन को लेकर सच्चिदानंद जोशी कहते हैं कि व्यक्ति को अपने अंदर के आध्यात्मिक संतुलन को देखना होगा। खुद को शांत रखना सीखना होगा। खुद को बैलेंस रखना होगा। ये बातें ही सांस्कृतिक जड़ों तक व्यक्ति को पहुंचाती हैं. सांस्कृतिक जड़ें जब आपको सांस्कृतिक समृद्धि से आपूरित करेंगी, तब आप खुद को ऐसी स्थिति में पाएंगे कि सब चीजों को निष्पक्ष रूप से देख पाएंगे.
बतौर संत
सच्चिदानंद जोशी संत परम्परा के हैं और वे उस परंपरा को आत्मसात करते हैं. वह चाहे कोई व्यक्ति हो, कोई जीव हो, उनकी उंगलियां की-बोर्ड के जरिये उनकी खुशी या दर्द को उभार कर सामने रख देती हैं. वर्ष 2013 में जब उनके घर सामाजिक कार्यकर्त्ता और बच्चों के लिए कार्य करने वाली सिंधुताई सपकाल आती हैं तो वे लिखते हैं कि उन्हें देखकर यकीन हो जाता है कि नर सेवा ही नारायण सेवा है और ये भी कि ईश्वर और कहीं नहीं हमारे अंदर ही है. अपनी पत्नी मालविका जोशी को लेकर लिखते हैं, नदी-सा शांत बहना/ झरने-सा खिलखिलाना/ जल-सा निर्मल होकर/ सबको अपनी तरलता में/ बहाकर ले जाना/ दिखता सरल हो लेकिन/ आसान नहीं होता/ अपनी उम्र भुलाकर/ बाल सुलभ निश्छल/ निर्मल बने रहना/ ऊंचाइयों को छूकर भी/ अपनी जड़ों से/ जुड़े रहना। वहीं, अपने कुत्ते ‘फ्रेडी’ के गुजर जाने पर वे लिखते हैं कि उसके साथ बिताये पांच साल हमें बहुत कुछ सीखा गए कि किसे प्रेम करना चाहिए और किसी की भक्ति कैसे करनी चाहिए. इस बात को हमें नए सिरे से जानने को मिला. ‘क्रीम रोल’ के अनुभव के आधार पर वे कहते हैं, “कोई फर्क नहीं पड़ता कि किसी भी काम में आपकी भूमिका छोटी है या बड़ी है. सब कुछ इस बात पर निर्भर है कि उसकी ओर देखने का दृष्टिकोण कैसा है और आप उसे निभाते कैसे हैं.” यही कारण है कि सच्चिदानंद जोशी कभी आपको निराश नहीं करते, वे हौसलाफजाई करते हैं, भारतीय संस्कृति को देखने और समझने की नई दिशा देते हैं.