Dr. Vinit Utpal
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भारतबोध से ओत-प्रोत तपस्वी, चिंतक और संत
भारतबोध से ओत-प्रोत तपस्वी, चिंतक और संत: सच्चिदानंद जोशी
डॉ. विनीत उत्पल
किसी तपस्वी, चिंतक या संत को सांसारिक भोग-विलास, पद, जान-पहचान से कोई फर्क नहीं पड़ता। उसे इस बात से भी फर्क नहीं पड़ता कि उसके आसपास के लोग उसे कितनी अहमियत देते हैं. उससे इस बात का रत्ती भी फर्क नहीं पड़ता कि राजा और रंक उसे अहमियत देता है या नहीं। हाँ, इस बात से फर्क अवश्य पड़ता है कि उसके मन-वचन-कर्म से किसी की हानि न हो और उसके सान्निध्य में आने वाले लोगों का भला हो. वे किसी से नाराज तो होते हैं लेकिन उनकी नाराजगी सामने वालों को एक सीख दे जाती है और अगले ही पल ऐसे पेश आते हैं जैसे कुछ हुआ ही न हो. ऐसे ही तपस्वी, चिंतक और संत परंपरा के व्यक्तित्व से ओतप्रोत हैं प्रो. सच्चिदानंद जोशी.
व्यक्ति का व्यक्तित्व ही उसे संत बनाता है, कर्म ही तपस्वी बनता है और मन ही चिंतक बनाता है. ऐसे में सच्चिदानंद जोशी के मन-वचन-कर्म में इस बात का रत्ती भी फर्क नहीं पड़ता कि वे किसी विश्वविद्यालय के कुलपति के तौर पर दो कार्यकाल पूरा किया है, किसी विश्वविद्यालय के संस्थापक कुलसचिव रहे हों या फिर इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के सदस्य सचिव हों. वे अभी प्रधानमंत्री के साथ बैठक करके आ रहे हैं या फिर राष्ट्रपति से. वे हमेशा एकसमान शांत, प्रसन्नचित्त और उपलब्ध मिलेंगे। मिलने पर या तो आप उनकी व्यस्तता को समझ पाएंगे या वे खुले तौर पर आपको बता देंगे मगर संवाद जारी रखेंगे। अपने मिले दायित्व को ईश्वर का प्रसाद मान कर वे आपको कार्यरत मिलेंगे. आपकी बात सुनने को आतुर मिलेंगे। बाल सुलभ आचरण से ओत-प्रोत मिलेंगे और मिलने पर लगेगा कि कल ही मिले थे और और आज दोबारा मिले हैं. किसी कार्यक्रम में वे कितने भी व्यस्त क्यों न हों, किसी कार्यक्रम के क्यों न वे अहम् अतिथि क्यों न हों, अपने भाव या शब्दों से आपसे संचार अवश्य कर लेंगे. उनके व्यक्तित्व में अहंकार का अंश मात्र भी नहीं मिलेगा.
सच्चिदानंद जोशी ऐसे व्यक्तित्व हैं जिनसे बात करने के दौरान इस बात का जरा भी अहसास नहीं होता कि वे एक नाटककार हैं, कलाकार हैं, संचारविद हैं, कहानीकार हैं, कवि हैं, प्रबंधक हैं, योजनाकार हैं, भारत सरकार के सचिव स्तर के अधिकारी हैं, बल्कि अहसास होता है कि वे राष्ट्र निर्माण के गहन अध्येत्ता हैं, भारतीय संस्कृति के मननकर्ता हैं और तो और और आपको अहसास होगा कि वे आपके गार्जियन हैं, आपकी चिंता करते हैं, आपका सुख और दुःख उनका भी सुख और दुःख है. आपको अहसास होगा कि कोई तो इस समाज में हैं जो आपकी चिंता करता है और वाकई वे चिंता करते हैं.
मुक्तिबोध कहते हैं कि लेखन के लिए जीवनानुभव आवश्यक है तभी तो सचिदानंद जोशी ‘शॉवर और फ्लश’ से संबंधित जीवन के किस्से हर किसी को भाते हैं. वे कहते भी हैं, प्यार को जब नाटक में और/ झगड़े को असल में बदलता पाया/ लगा कि अब बड़े ही गए हैं. सच्चिदानंद जोशी भारतीय संस्कृति और परंपरा के प्रति लोगों की दूरी से चिंतित हैं, “आज की इस तेजी से भागती डिजिटल जिंदगी में हमारे मनोरंजन और ज्ञान में वृद्धि का जिम्मा भी इन यंत्रों ने ले लिया है जिसमें मानवीयता की, संवेदना की और आत्मीयता का पुट लेशमात्र भी नहीं है. लेकिन आज से कुछ वर्ष पहले विशेषकर गांवों में मनोरंजन और आत्मीयता का भी उतना ही महत्त्व है, जितना उस कथन में कहा जा रहा है.” वे पारिवारिक रिश्तों और सामाजिक रिश्तों और उनके नामों को लेकर चिंताएं जाहिर करते हैं, “समय आ गया है कि हम अपने रिश्तों को सम्हालें, सहेजें, नहीं तो वे समय की आंधी में न जाने कहाँ काफूर हो जायेंगे.”
सच्चिदानन्द जोशी भारतीय संस्कृति में संचार के नए प्रतिमान या सिद्धांतों को ढूंढते हैं. मीडिया के विद्यार्थियों को सम्बोधित करते हुए के बार उन्होंने कहा था, “सनातन धर्म में पूजा-पाठ का प्रावधान है और जब सत्यनारायण भगवान की पूजा होती है तो पंडित जी एक अध्याय की समाप्ति पर कहते हैं, ‘सब बोलो सत्यनारायण भगवान् की’ और बाकी लोग कहते हैं ‘जय’.” वे इस प्रक्रिया को भारतीय संवाद सिद्धांत की तरह परिभाषित करते हैं और कहते हैं कि यह भारतीय संचार सिद्धांत है जिसके तहत प्रेषक श्रोता से जुड़ता है और कथा के माध्यम से प्रतिपुष्टि भी होती है कि श्रोता सत्यनारायण भगवान् की कथा सुन रहा है या नहीं। यह प्रतिपुष्टि परम्परा सनातन धर्म में हजारों वर्ष से चली आ रही है. भजन, कीर्तन, प्रवचन, वेदाध्ययन सहित तमाम आयोजनों में प्रेषक का श्रोताओं से जुड़ने की परंपरा चली आ रही है जो किसी भी पाश्चात्य संचार सिद्धांत से आने से पहले के सिद्धांत हैं. भारतीय संचार सिद्धांत कागजी सिद्धांत नहीं है बल्कि वे अमल में लाये जाते हैं यानी कौशल आधारित संचार सिद्धांत हैं तो ‘पंडित जी’ अमल में लाते हैं.
सच्चिदानंद जोशी नए संसद भवन में भारतीय संस्कृति और आस्था को भी चिन्हित करते हैं और लिखते हैं, “संसद के नए भवन में छह प्रवेश-द्वार हैं जिनमें से प्रत्येक द्वार को बलुआ पत्थर से बनी मूर्तियों से सुसज्जित किया गया है. वास्तव में यह मूर्तियां भारतीय सभ्यता व संस्कृति में मान्य शुभ फलदायक जीवधारियों का चित्रण है, जो सफलता, कीर्ति, शक्ति, विजय, ऊर्जा और ज्ञान के प्रतीक हैं. इनके नाम इन्हीं प्राणियों के नाम पर गज-द्वार, अश्व-द्वार, गरुड़-द्वार, हंस-द्वार, मकर-द्वार और शार्दुल-द्वार रखे गए हैं.” वे आगे लिखते हैं, “नए भवन में तीन उत्सव मंडप हैं. इनमें चाणक्य, गार्गी, गांधी, पटेल, आंबेडकर, नालंदा एवं कोणार्क चक्र की विशाल पीतल की मूर्तियां हैं जो सकलप, मान और कर्तव्य मंडप के रूप में भारत की लोकतान्त्रिक और संवैधानिक विरासत की साक्ष्य हैं.” सच्चिदानंद जोशी भारतीय साहित्य एवं इतिहास के अध्येता है, वे लिखते हैं “रामायण और महाभारत में प्राप्त उल्लेखों के आधार पर कहा जा सकता है कि भारत में लोकतंत्र अथवा लोक संग्रह अथवा लोक कल्याणकारी राज्य की समृद्ध व्यवस्था रही है. रामायण और महाभारत के साथ ही वेद, उपनिषद तथा बाद के काल में बौद्ध, जैन दर्शन में ऐसी परंपरा का उल्लेख है. इस सन्दर्भों के परिप्रेक्ष्य में भारत को यदि ‘लोकतंत्र की जननी’ कहा जाता है.”
सिर्फ भारतबोध
सच्चिदानंद जोशी के तन और मन भारतबोध के ओतप्रोत है. उनके दिलोदिमाग में बस राष्ट्र का नवनिर्माण, भारत बोध को लेकर आत्मविश्वास और उसके अनुसार कर्म ही हमेशा विद्यमान रहता है. वे पाश्चात्य विद्वानों के मुकाबले भारतीय विद्वानों को किसी भी स्तर पर कमतर समझना या रहना पसंद नहीं करते। उनके लिए भारत का अग्रणी रहना या होना महत्वपूर्ण है. वे देश और विदेश में कही भी जाते हैं तो उनका मन भारत, भारतीय इतिहास और इससे जुड़े वैभव को ढूंढता है. वे अपने आलेखों में ‘वसुधैव कुटुंबकम’ को समाहित करते हैं. किसी संबंधी या परिचित की मृत्यु के मौके पर ‘डेड हाउस’ जाने पर वहां कार्यरत महिला की संयत और व्यवस्थित कार्य पद्धति सहित शमशान भूमि में चिता सजानेवाले सज्जन के कौशल पर ध्यान केंद्रित करते हैं और लिखते हैं कि वे कैसे मृत्यु के तांडव से बेखबर पूरे मनोयोग से अपने काम को अंजाम देते हैं और यह मनोयोग से कार्य पद्धति भारतीय संस्कृति की पहचान है.
उत्तरप्रदेश कानपुर जाते हैं तो बिठुर से जुड़े इतिहास को मनन करते हैं, लवकुश और ध्रुव की जानकारी हासिल करते हैं और स्थानीय लोगों की उपेक्षा पर चिंता व्यक्त करते हैं. पश्चिम बंगाल के शांतिनिकेतन में रवीन्द्रनाथ टैगोर को ढूंढते हैं. अमेरिका के शिकागो जाते हैं तो स्वामी विवेकानंद को याद करते हैं. ऑक्सफ़ोर्ड जाते हैं तो फिल्म ‘सिलसिला’ में अमिताभ बच्चन पर फिल्माये गीत ‘जिन राहों पर/ तेरे साथ गुजरने की तमन्ना थी/ आज उन राहों से मैं/ तनहा गुजर आया हूँ’ याद आते हैं. ऑक्सफ़ोर्ड संग्रहालय में भी वे भारत को ढूंढते हैं और वहां महावीर स्वामी की संगमरमर की मूर्ति ढूंढ ही लेते हैं. वियतनाम, थाईलैंड, रूस भी जाते हैं तो वहां भी भारत को ही ढूंढते हैं. हरि अनंत हरि कथा अनंत के तर्ज पर सच्चिदानंद जोशी का अनुभव है, किस्सा है, कविता है, कहानी है, नाटक है, आदि आदि.
बतौर तपस्वी
करीब सात-आठ वर्ष पहले की बात है. अपने निकटतम पूर्व सहयोगियों और मित्रों के साथ प्रो. सचिदानंद जोशी बैठे हुए थे. उसी क्रम में किसी ने उनकी उँगलियों को खाली देख पूछा कि आपकी उँगलियों में अंगूठी दिखाई नहीं दे रही है? तो उनका जबाव था कि अब मैं कोई आभूषण नहीं पहनता। यहाँ तक की घड़ी भी नहीं। और उन्होंने बताया कि किसी अनुष्ठान में कहा गया कि आप जिस चीज/आदत को सबसे ज्यादा पसंद करते हैं, उन्हें त्याग कर दें और उन्होंने उस दिन से निश्चय किया कि वे अब कभी कोई आभूषण अपने शरीर में धारण नहीं करेंगे. जाहिर-सी बात है कि उससे पहले प्रो. सचिदानंद जोशी को आभूषण पसंद रहा होगा तभी उनके निकटस्थ लोगों ने यह सवाल किया होगा. ऐसे में नचिकेता के पिता वाजश्रवा की कहानी याद आ गई.
सच्चिदानंद जोशी का तपस्वी मन शब्दों के जरिये उनके सोशल मीडिया पर उभर आता है और उन शब्दों से लगता है कि भारतीय परिवार और समाज को लेकर जिस कदर चिंता करते हैं, वे कोई तपस्वी ही कर सकता है. अपने पिता को लेकर वे लिखते हैं, “जब नन्हीं आँखों से/ किसी चीज की चाहत होती थी/ तब तुम थे तो लगता था/ सब मिल जाएगा/ अब जब लगता है/ सब मिल सकता है तो/ बुजुर्ग होती आँखें/ बस तुमको ढूंढती हैं”. इन पंक्तियों से सीधा अर्थ है कि जीवन की परतें कितनी हैं और किस तरह पिता का बछोह किसी व्यक्ति को परेशान करता है और यह शब्दों के रूप में उभर कर सामने आता है और ऐसे शब्दों के एक कविता की रचना कोई तपस्वी ही कर सकता है. वहीं, एक कविता में वे कहते हैं, “भावनाओं के घनीभूत में/ कैसे अपना ध्यान लगा है/ छोड़ मोह लौकिकता का/ आओ हम सब शिव बन जाएँ।” सामाजिक बिडंबनों को देखकर उनका तपस्वी मन बुद्ध पर कविता लिखने को आतुर होता है तो वे कहते हैं, बुद्ध तुम जो आज होते/ तो क्या अपने होने की बात/ इस उजाड़ होती दुनिया को/ वैसे ही बता पाते/ क्या उसी तरह होता तुम्हारी पीड़ा/ परिवर्तन और पारंग मुखता का उद्देश्य/ क्या अब भी होता उन्हीं आठ मार्गों पर/ जीवन जीने का तुम्हारा सन्देश।
ट्रैफिक सिग्नल पर ठंठ के मौसम में मासूम के झंडा बेचते देख उनका मन द्रवित होता है तो वे लिखते हैं, “पता नहीं उनसे झंडे/ कितने लोग खरीद पाते हैं/ लेकिन उनकी इस हालत पर/ अपना अफ़सोस जरूर जताते हैं/इनके लिए कुछ करना है/ ऐसा विचार जरूर आता है/ लेकिन हरी बत्ती के साथ ही/ न जाने वो विचार/ कहाँ काफूर हो जाता है.” वे जीवन को लेकर कहते हैं, “जीवन में ऐसा बहुत कुछ है जो मुझे नहीं मिला/लेकिन ऐसा भी है जो सिर्फ/ मुझे मिला/ नहीं मिले की कुंठा में जीना है/ या मिले का उत्स मानना है/ मुझे तय करना है.” वहीं, सुलगती जिंदगी में वे लिखते हैं, “पता नहीं कहाँ है ठौर और कहाँ है मंजिल/ पता नहीं कहाँ है किनारा और कहाँ है साहिल/ भटक रहे हैं हम इस मृग तृष्णा में दिशाहीन/ कस्तूरी की खोज में गाफिल हिरन की तरह.”
बतौर चिंतक
भारतीय जनसंचार संस्थान, दिल्ली के तत्कालीन महानिदेशक प्रो. संजय द्विवेदी ने सत्रारम्भ कार्यक्रम में प्रो. सच्चिदानंद जोशी को बतौर वक्ता आमंत्रित किया था. इस मौके पर प्राचीन काल की संचार कला पर उनका व्याख्यान जबरदस्त था. वे कहते हैं, “प्राचीन काल में संचार की कला का जबरदस्त महत्त्व था. एक-दूसरे के साथ संवाद स्थापित करने पर जोर था. हमारे अधिकांश महत्वपूर्ण शास्त्र संवाद के रूप में हैं और वे लगभग सवाल और जवाब के रूप में हैं. भगवतगीता में भी प्रश्न और उत्तर हैं. नाट्यशास्त्र में भी प्रश्न और उत्तर ही हैं. वैदिक शास्त्र में भी प्रश्न और उत्तर हैं. यानी कोई व्यक्ति प्रश्न पूछेगा और कोई उसका उत्तर देगा. हमारे देश में संवाद का महत्त्व था. वाद का महत्त्व था, उसकी परंपरा थी.”
बतौर सच्चिदानंद जोशी, “मनुष्य के रूप में हमारी पहचान ही हमारी संस्कृति बनाती है. सारे अच्छे कामों की शुरुआत घर से होती है. अपने घर से संस्कृति का पहला पाठ सीखना शुरू करते हैं. उन्हें अपने चरित्र में, अपने मन में, अपने रीति-रिवाजों में, अपने संस्कारों में कहीं-न-कहीं ढालना शुरू करते हैं और इस तरह से हम संस्कृतिक बनते हैं.”
वे आगे कहते हैं, “भारतीय संस्कृति में सब कुछ है. इसने सिखाया है कि मात्र व्यक्ति और समाज ही नहीं है, बल्कि बीच में परिवार भी है. व्यक्ति, परिवार और समाज। इसलिए हमारे यहाँ कहा गया है, “अयं निजः परो वेति, गणना लघु चेतसाम। उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुंबकम।” यह मेरा है, यह तुम्हारा, यह सब छोटे मन के लोगों की बात है. जिसका चरित्र उदार है, मन उदार है, उसे लगता है पूरा संसार मेरा परिवार है. लेकिन दुर्भाग्य से धीरे-धीरे हम अपनी विचारधारा ही खोते चले गए. जब वे ‘विचारधारा’ शब्द कहते हैं तो वे वैचारिक लड़ाई की बात नहीं करते बल्कि भारतीय संस्कृति की बात करते हैं, जिसमें व्यक्ति अपना परिवेश देखता है. वे इस बात पर चिंता जाहिर करते हैं कि लोगों को पता नहीं होता कि उनके पड़ोस में कौन रह रहा है. व्यक्ति उसके बारे में कुछ भी जानने को तैयार नहीं होता है. उनका मानना है कि भारत की पहचान उसके सांस्कृतिक बोध से होती है.
सच्चिदानंद जोशी कहते हैं कि व्यक्ति को अपने अंदर संतुलन ढूँढना पड़ेगा और वह संतुलन सांस्कृतिक शक्ति ही दे सकती है. वे यह संतुलन को तीन तरह से विभाजित करते हैं, शारीरिक/भौतिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक। इसलिए वे कहते हैं, व्यक्ति को खुद को शारीरिक तौर पर चुस्त-दुरुस्त रखना होगा और उसके लिए जो भी तरीका अपनाना पड़े, व्यायाम, दौड़ या योग, जो भी हो, करें और अपने आपको फिट रखें। क्योंकि अगर आपके पास शारीरिक संतुलन होगा तभी आप भविष्य की चुनौतियों को झेल पाएंगे.
भावनात्मक संतुलन को लेकर सच्चिदानंद जोशी का मानना है कि किसी भी व्यक्ति के लिए मानसिक संतुलन जरूरी है क्योंकि हम सब एक भावनात्मक समाज के लोग हैं. सभी लोग इस समाज का हिस्सा हैं, जो भावनात्मक रूप से संवेदनशील है. जो लोगों के मन में है, वह हमारे भी मन में है. हमेशा व्यक्ति खुद को समाज की समस्या से जुड़ा हुआ मानता है और ऐसे में एक मानसिक संतुलन होना चाहिए और वह मानसिक संतुलन ढूँढना चाहिए.
आध्यात्मिक संतुलन को लेकर सच्चिदानंद जोशी कहते हैं कि व्यक्ति को अपने अंदर के आध्यात्मिक संतुलन को देखना होगा। खुद को शांत रखना सीखना होगा। खुद को बैलेंस रखना होगा। ये बातें ही सांस्कृतिक जड़ों तक व्यक्ति को पहुंचाती हैं. सांस्कृतिक जड़ें जब आपको सांस्कृतिक समृद्धि से आपूरित करेंगी, तब आप खुद को ऐसी स्थिति में पाएंगे कि सब चीजों को निष्पक्ष रूप से देख पाएंगे.
बतौर संत
सच्चिदानंद जोशी संत परम्परा के हैं और वे उस परंपरा को आत्मसात करते हैं. वह चाहे कोई व्यक्ति हो, कोई जीव हो, उनकी उंगलियां की-बोर्ड के जरिये उनकी खुशी या दर्द को उभार कर सामने रख देती हैं. वर्ष 2013 में जब उनके घर सामाजिक कार्यकर्त्ता और बच्चों के लिए कार्य करने वाली सिंधुताई सपकाल आती हैं तो वे लिखते हैं कि उन्हें देखकर यकीन हो जाता है कि नर सेवा ही नारायण सेवा है और ये भी कि ईश्वर और कहीं नहीं हमारे अंदर ही है. अपनी पत्नी मालविका जोशी को लेकर लिखते हैं, नदी-सा शांत बहना/ झरने-सा खिलखिलाना/ जल-सा निर्मल होकर/ सबको अपनी तरलता में/ बहाकर ले जाना/ दिखता सरल हो लेकिन/ आसान नहीं होता/ अपनी उम्र भुलाकर/ बाल सुलभ निश्छल/ निर्मल बने रहना/ ऊंचाइयों को छूकर भी/ अपनी जड़ों से/ जुड़े रहना। वहीं, अपने कुत्ते ‘फ्रेडी’ के गुजर जाने पर वे लिखते हैं कि उसके साथ बिताये पांच साल हमें बहुत कुछ सीखा गए कि किसे प्रेम करना चाहिए और किसी की भक्ति कैसे करनी चाहिए. इस बात को हमें नए सिरे से जानने को मिला. ‘क्रीम रोल’ के अनुभव के आधार पर वे कहते हैं, “कोई फर्क नहीं पड़ता कि किसी भी काम में आपकी भूमिका छोटी है या बड़ी है. सब कुछ इस बात पर निर्भर है कि उसकी ओर देखने का दृष्टिकोण कैसा है और आप उसे निभाते कैसे हैं.” यही कारण है कि सच्चिदानंद जोशी कभी आपको निराश नहीं करते, वे हौसलाफजाई करते हैं, भारतीय संस्कृति को देखने और समझने की नई दिशा देते हैं.
7/17/2024
सोशल मीडिया पर पोस्ट होने वाली कविताओं में हिन्दू-मुस्लिम संबंध: एक विश्लेषण
सोशल मीडिया पर पोस्ट होने वाली कविताओं में हिन्दू-मुस्लिम संबंध: एक विश्लेषण
विनीत कुमार झा उत्पल
सहायक प्रोफ़ेसर, पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग, आईआईएमटी कॉलेज ऑफ़ मैनेजमेंट, ग्रेटर नोएडा, उत्तर प्रदेश, भारत
ई-मेल:-vinitutpal@gmail.com मोबाइल:-9911364316
सोशल मीडिया के दौर में साहित्यिक विधाओं की रचना और पुनर्रचना एक गंभीर विषय के तौर पर सामने आई है. ऐसे वक्त में जब एक ओर सोशल मीडिया हर आम व्यक्ति को अभिव्यक्ति की नई आजादी का प्लेटफार्म मुहैया करा रहा है, वहीं इसी प्लेटफार्म पर हजारों साल पुरानी हिंदू-मुस्लिम सद्भाव और वैमनस्यता की कविताएं भी लिखी जा रही है. इनमें कई अनगढ़ कवि हैं तो तुकबंदी के नए धुरंधर अपनी रचनाओं के जरिये कभी गंभीर कविताएं लिखते हैं तो कभी उच्छश्रृंखलता की सीमा भी पार करते हैं. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि हिंदू-मुस्लिम सद्भाव पर आधारित कविताएं सदियों से लिखी जा रही हैं, यही कारण है कि कबीर से लेकर हरिवंश राय बच्चन जैसी साहित्यिक विभूतियों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से कभी व्यंग्य लिखा तो कभी सामूहिक समरसता की बात की. ऐसे में उन अनाम कवियों की रचनाओं का अध्ययन किया जाना आवश्यक है जो अपनी रचनात्मकता सोशल मीडिया के तमाम प्लेटफार्म पर रखते हैं या फिर किसी रचनाकार की प्रसिद्ध रचना को अपने वाल पर पोस्ट करते हैं. इस शोधपत्र में सोशल मीडिया खासकर फेसबुक पर 2016 में पोस्ट की गई उन कविताओं का विश्लेषण किया गया है, जो हिन्दू और मुस्लिम दोनों धर्मों को ध्यान में रखकर लिखे गए हैं. इस शोध में पाया गया कि तमाम राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों के बावजूद सोशल मीडिया पर लोग दोनों धर्मों को राष्ट्र के परिपेक्ष में देखते हैं और सामाजिक शांति से जुड़ी रचनाओं का निर्माण करते हैं. हालांकि ऐसी भी तुकबंदी देखने को मिली जिसमें साम्प्रदायिकता की बू आती है और दोनों धर्मों के लोग एक-दूसरे पर आक्षेप भी करते हैं.
की-वर्ड: हिन्दू, मुसलमान, सद्भाव, फेसबुक, सोशल मीडिया, कविता
भूमिका
सोशल मीडिया सिर्फ अपनी बात रखने का स्थान ही नहीं है बल्कि यह संवाद के आदान-प्रदान का माध्यम भी है. सोशल मीडिया एक तरह से दुनिया के विभिन्न कोनों में बैठे उन लोगों से संवाद है जिनके पास इंटरनेट की सुविधा है। इसके जरिए ऐसा औजार पूरी दुनिया के लोगों के हाथ लगा है, जिसके जरिए वे न सिर्फ अपनी बातों को दुनिया के सामने रखते हैं, बल्कि वे दूसरी की बातों सहित दुनिया की तमाम घटनाओं से अवगत भी होते हैं। यहां तक कि सेल्फी सहित तमाम घटनाओं की तस्वीरें भी लोगों के साथ शेयर करते हैं। इतना ही नहीं, इसके जरिए यूजर हजारों हजार लोगों तक अपनी बात महज एक क्लिक की सहायता से पहुंचा सकता है। अब तो सोशल मीडिया सामान्य संपर्क, संवाद या मनोरंजन से इतर नौकरी आदि ढूंढ़ने, उत्पादों या लेखन के प्रचार-प्रसार में भी सहायता करता है।
कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर मैन्युअल कैसट्ल के मुताबिक, सोशल मीडिया के विभिन्न माध्यमों फेसबुक, ट्विटर आदि के जरिए जो संवाद करते हैं, वह मास कम्युनिकेशन न होकर मास सेल्फ कम्युनिकेशन है। मतलब हम जनसंचार तो करते हैं लेकिन जन स्व-संचार करते हैं और हमें पता नहीं होता कि हम किससे संचार कर रहे हैं। या फिर हम जो बातें लिख रहे हैं, उसे कोई पढ़ रहा या देख रहा भी होता है।
पिछले दो दशकों से इंटरनेट ने हमारी जीवनशैली को बदलकर रख दिया है और हमारी जरूरतें, कार्य प्रणालियां, अभिरुचियां और यहां तक कि हमारे सामाजिक मेल-मिलाप और संबंधों का सूत्रधार भी किसी हद तक कंप्यूटर ही है। सोशल नेटवर्किंग या सामाजिक संबंधों के ताने-बाने को रचने में कंप्यूटर की भूमिका आज भी किस हद तक है, इसे इस बात से जानाजा सकता है कि आप घर बैठे दुनिया भर के अनजान और अपरिचित लोगों से संबंध बना रहे हैं। ऐसे लोगों से आपकी गहररी छन रही है, अंतरंग संवाद हो रहे हैं, जिनसेआपकी वास्तविक जीवन में अभी मुलाकात नहीं हुई है।। इतना ही नहीं, यूजर अपने स्कूल और कॉलेज के उन पुराने दोस्तों को भी अचानक खोज निकाल रहे हैं, जो आपके साथ पढ़े, बड़े हुए और फिर धीरे-धीरे दुनिया की भीड़ में कहीं खो गए।
दरअसल, इंटरनेट पर आधारित संबंध-सूत्रों की यह अवधारणा यानी सोशल मीडिया को संवाद मंचों के तौर पर माना जा सकता है, जहां तमाम ऐसे लोग जिन्होंने वास्तविक रूप से अभी एक-दूसरे को देखा भी नहीं है, एक-दूसरे से बखूबी परिचित हो चले हैं। आपसी सुख-दुख, पढ़ाई-लिखाई, मौज-मस्ती, काम-धंधे की बातें सहित सपनों की भी बातें होती हैं। जाहिर-सी बात है कि कविता भी इसी अंतरात्मा की आवाज शब्दों में बयां करती हैं.
शोध का उद्देश्य
सोशल मीडिया पर हिन्दू-मुस्लिम सद्भाव को लेकर लिखी कविताओं का अध्ययन करना.
शोध प्रश्न
किस तरह सोशल मीडिया पर हिन्दू-मुस्लिम संबंधों को लेकर कविताएं लिखी जा रही हैं?
किस तरह सोशल मीडिया पर कविताओं के माध्यम से मुस्लिमों को लक्षित किया जा रहा है?
शोध प्रविधि
इस शोधपत्र के लिए सोशल मीडिया के प्लेटफार्म फेसबुक का अध्ययन किया गया. फेसबुक पर 2016 में पब्लिक पोस्ट पर प्रकाशित कविताओं को आधार बनाया गया है. इन कविताओं को ढूंढने के लिए सिर्फ ‘मुसलमान’ शब्द का प्रयोग की-वर्ड के तौर पर किया गया और 2016 के हर महीने ‘मुसलमान’ से जुड़ी कविताओं को संकलित कर उसका विश्लेषण किया गया. विश्लेषण के लिए उन कविताओं में सिर्फ 70 पोस्ट को चुना गया.
शोध सीमा
इस शोध के दौरान चूंकि पब्लिक पोस्ट का चुनाव किया गया इसलिए बंद (क्लोज्ड) पोस्ट का अध्ययन नहीं किया जा सका. साथ ही, विश्लेषण के दौरान इस बात की जांच नहीं की जा सकी कि किसी के फेसबुक वाल या किसी समूह पर पोस्ट की गई कविता प्रयोगकर्ता की अपनी है या किसी और कवि की.
साहित्य समीक्षा
भारत के इतिहास में हिंदू-मुस्लिम एक ऐसा विषय रहा है, जो हमेशा से न सिर्फ राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक तौर पर विचार-विमर्श का केंद्र रहा है बल्कि साहित्यिक विषय-वस्तु की सीमा भी ये विषय रहे हैं. यही कारण है कि कहानियों, कविताओं, उपन्यासों से लेकर साहित्य की तमाम विधाओं में रचनाकारों ने हिंदू-मुस्लिम को केंद्र में रखकर अपनी रचनाओं का नया आयाम दिया है. इतना ही नहीं, विचार-विमर्श के दायरे में हिन्दुओं और मुसलमानों की भाषा भी आई है.
रामविलास शर्मा (1978) के मुताबिक उर्दू मुसलमानों की भाषा है या हिन्दुओं और मुसलमानों के मिलने से बनी, भारत में जो मुसलमान आये. वे एक कौम के थे या कई कौमों के, उनकी एक भाषा थी या वे कई भाषाएं बोलते थे, क्या हिन्दी के विकास हिंदू राष्ट्रवाद के अभ्युत्थान के कारण हुआ, क्या मुसलामानों की अलग कौम है, उर्दू को क्षेत्रीय भाषा बनाया जाय या नहीं- ये सभी प्रश्न हिन्दी-भाषा जाति के सामाजिक और सांस्कृतिक विकास के साथ जुड़े हुए हैं.
ऐसे में हिंदू-मुसलमान को केंद्र में रखकर लिखी गई कविताओं में जहां सद्भाव का एक संदेश साफ नजर आता है, वहीं दोनों धर्मों में व्याप्त कुरीतियों पर व्यंग्य भी किए गए हैं. कबीर से लेकर हरिवंश राय बच्चन ने अपने-अपने हिसाब से इस बात को रेखांकित किया है कि दोनों धर्मों के लोगों को पोंगापंथी छोड़ एक नए समाज का निर्माण करना चाहिए.
यही कारण है कि कबीर कहते हैं, हिन्दू राम के भक्त हैं और तुर्क (मुसलमान) को रहमान प्रिय हैं. इसी बात पर दोनों लड़-लड़कर मौत के मुंह में जा पहुंचे, तब भी दोनों में से किसी को सच का पता न चल सका.
हिन्दू कहें मोहि राम प्यारा, तुर्क कहें रहमाना.
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी भुए, मरम न कोऊ जाना.
कबीर ने सांप्रदायिकता का विरोध कड़े शब्दों में किया है.
सोई हिंदू सो मुसलमान, जिनका रहे इमान
सो ब्राहमण जो ब्राह्म गियाला, काजी जो जाने रहमान.
कबीर के अनुसार, सच्चा हिंदू या मुसलमान वही है, जो ईमानदार है और निष्ठापूर्वक अपने कर्तव्य का पालन करता है. कबीर के अनुसार प्रेम ही ऐसा तत्व है, जो पारस्परिक मैत्री का भाव लाता है और कटुता को समाप्त करता है.
काहि कबीर वे दूनों भूले, रामहि किन्हु न पायो.
वे खस्सी वे गाय कटावै, वादाहि जन्म गंवायो.
जेते औरत मरद उवासी, सो सब रूप तुम्हारा.
कबीर अल्ह राम का, सो गुरु पीर हमारा.
वहीं, वे ईश्वर को दिल में खोजने की बात कहते हैं,
पूरब दिशा हरी को बासा, पश्चिम अल्लह मुकाम
दिल में खोजि दिलहि मा खोजो, इहै करीमा रामा.
दूसरी ओर, डॉ. अमरनाथ अमर (2000) लिखते हैं कि राजेंद्र यादव के मुताबिक राष्ट्रीय एकता, सद्भाव, कर्मठता, हिम्मत और कभी न हरने वाली प्रवृति के प्रणेता कवि थे बच्चन. इस देश की सबसे बड़ी जरूरत है हिंदू-मुस्लिम एकता और उन्होंने मधुशाला के माध्यम से न केवल उन पर प्रहार किया बल्कि प्रतीकों के माध्यम से प्रेम और भाईचारा का भी सन्देश दिया.
मुसलमान और हिंदू हैं दो/एक मगर उनका प्याला
एक मगर उनका मदिरालय/एक मगर उनकी हाला
दोनों रहते एक न जबतक/मस्जिद-मंदिर में जाते
बैर बढ़ाते मंदिर-मस्जिद/मेल कराती मधुशाला.
बच्चन मधुशाला में एक जगह लिखते हैं,
हरिवंश राय बच्चन ने मधुशाला में लिखा है,
धर्मग्रंथ सब जल चुकी है, जिसके अंतर की ज्वाला.
मंदिर, मसजिद, गिरिजे, सब को तोड़ चूका जो मतवाला.
पंडित, मोमी, पादरियों के फंडों को जो काट चुका.
कर सकती है आज उसी का स्वागत मेरे मधुशाला.
विश्लेषण
सोशल मीडिया के प्लेटफार्म फेसबुक पर 2016 में पब्लिक पोस्ट पर प्रकाशित कविताओं को ढूंढने के लिए सिर्फ ‘मुसलमान’ शब्द का प्रयोग की-वर्ड के तौर पर किया गया और हर महीने ‘मुसलमान’ से जुड़ी कविताओं को संकलित कर उसका विश्लेषण किया गया. विश्लेषण के लिए सिर्फ 70 कविताओं वाली पोस्ट को चुना गया.
‘मुस्लिम्स ऑफ़ इंडिया’ और ‘इंडियन मुस्लिम’ नामक दो ऐसे समूह मिले जहां मुस्लिमों को लेकर सबसे अधिक कविताओं को पोस्ट किया गया. वाइस ऑफ़ इंडियन मुस्लिम्स, मुस्लिम यूथ, ‘इस्लाम धर्म से बढ़कर और कोई धर्म नहीं’ और इंडियन मुस्लिम्स पॉलिटिक्स नामक समूह पर भी लोगों ने कविताएं पोस्ट की. इसके अलावा, कई और समूह और व्यक्तिगत पोस्ट पर भी कविताओं का भी अध्ययन किया गया. (देखें बॉक्स)
बॉक्स
संख्या
समूह का नाम
कविताओं की संख्याएं
1.
Indian Muslim
12
2.
Muslims of India
34
3.
Muslim Youth
3
4.
Voice of Indian Muslims
1
5.
Indian Muslim Politics
1
6.
Islam dharm se badhkar aur koi dharm naheen
1
7.
Others
18
Total
70
फेसबुक पर 2016 में मुस्लिम के विरोध में सिर्फ 14 प्रतिशत कविताएं लिखी गईं. वहीं मुस्लिमों के पक्ष में 26 प्रतिशत, मुस्लिमों को देशभक्ति के नजरिये में रखकर लिखी गई कविताओं का प्रतिशत सबसे अधिक 31 रहा और हिंदू-मुस्लिम सद्भाव के पक्ष में 29 प्रतिशत कविताएं पोस्ट की गई.(देखें ग्राफ)
P-मुस्लिमों के विरोध के दर्द में
M-मुस्लिमों के पक्ष में
D-देशभक्ति के पक्ष में
N-हिंदू-मुस्लिम सद्भाव के पक्ष में
मुस्लिमों के विरोध का दर्द
मुस्लिमों के विरोध का अर्थ विरोध की कविताएं नहीं बल्कि मुसलमानों के दर्द से है और उनकी देशभक्ति पर प्रश्नचिन्ह लगाया जाता है, इससे है. यही कारण है कि इस श्रेणी के तहत आई कविताओं में एक दर्द साफ़ दिखाई देता है. मुस्लिम ऑफ़ इंडिया पर एक रचना है,
मत कर मेरे देशप्रेम पे शक ओ ग़ालिब
जहां तू न जा सका वहां मैंने तिरंगा लहरा दिया
यहीं एक और रचना है,
जो मुल्क के दुश्मन हैं, वही यार ए वतन हैं
हम आधी सदी बाद भी गद्दार ए वतन हैं.
मोहम्मद वकार हुसैन लिखते हैं,
जब पड़ा वक़्त गुलिस्तां तो खून हमने वतन को दिया
और आज बहार आई तो बोलते हो तेरा काम नहीं
इंडियन मुस्लिम पर एक काविता है
यहीं के सरे मंजर हैं, यहीं की सारी बातें हैं
वो पागल हैं जो इन आंखों में पाकिस्तान पढ़ते हैं
मुस्लिमों के पक्ष में
‘इंडियन मुस्लिम’ समूह पर 23 जुलाई, 2016 को एक पोस्ट में मुस्लिम शख्सियतों को लेकर कहा गया है,
मुसलमानो के हाथो में जब/ शहनाई थमा दी जाती है/
तो ये उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ान बन जाते हैं।
मुसलमानो के हांथो में जब/तबला थमा दी जाती है/
तो ये उस्ताद ज़ाकिर हुसैन बन जाते हैं,
इस तरह इस कविता में उन मुसलमान शख्सियतों को याद किया गया, जिन्होंने समाज और देश में न सिर्फ अपना मान बढ़ाया बल्कि एक स्थान भी स्थापित किया. इसी कविता में आखिर में लिखा गया है,
कुरान का सिखाया हुआ
हर लफ्ज रवां हे,
उस पर हर मुसलमान का
ईमान पक्का हे,
मरते मर जायंगे ये पर
वतन से गद्दारी नही करेंगे,
ये सच्चे मुस्लमानों का
वादा और दावा रहा है,
वहीं, ‘इंडियन मुस्लिम’ समूह पर 27 सितम्बर को इक़बाल अशहर की कविता पोस्ट की गई है,
क्यूं मुझको बनाते हो तआस्सुब का निशाना
मैंने तो कभी ख़ुद को मुसलमां नहीं माना
देखा था कभी मैंने भी ख़ुशियों का ज़माना
अपने ही वतन में हूं मगर आज अकेली.
उर्दू है मेरा नाम, मैं ख़ुसरो की पहेली
मैं मीर की हमराज़ हूं, ग़ालिब की सहेली
मुस्लिम ऑफ़ इंडिया में 8 जनवरी को एक रचना है,
अपने जर्रे जर्रे में ईमान बसाए रखा,
बच्चों ने हर सीनों में कुरआन बसाए.
यहीं एक और रचना है 26 जनवरी को
सबूत नहीं बस मोहब्बत दिखाना चाहते हैं,
हम अल्लह वाले हैं, अमन चैन चाहते हैं.
मोहम्मद उमन अशरफ की पोस्ट है दो मई की
हमें पहचानते हो हमको हिन्दोस्तान कहते हैं
मगर कुछ लोग जाने क्यों हमें मेहमान कहते हैं
मेरे अन्दर से एक-एक करके सब कुछ खो गया रुखसत
मगर एक चीज बाकी है, जिसे ईमान कहते हैं.
इंडियन मुस्लिम समूह पर एक कविता है
मैं सीधा हूं, सच्चा हूं जुल्म के खिलाफ ललकार हूं
हूं मैं तेरी नजर में आतंकवादी, पर मैं मुसलमान हूं, मुसलमान हूं
मैंने उठाये हैं हक़ की राह में झंडे, मैं सच्चाई की यलगार हूं
हूं मैं तेरी नजर में आतंकवादी, पर मैं मुसलमान हूं, मुसलमान हूं.
देशभक्ति के पक्ष में
वर्तमान दौर में राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रभक्ति को लेकर भारतीय मुस्लिमों को अक्सर कठघरे में खड़ा किया जाता है और अग्निपरीक्षा ली जाती है. तभी तो एक रचना कुछ यूं सामने आती है, जो ‘मुस्लिम्स ऑफ़ इंडिया’ समूह पर 27 सितम्बर को पोस्ट की गई है,
कौन कहता है कि हम हैं ग़द्दार -ए- वतन?
हिंन्द के हम भी एक चमन हैं,
लाल क़िले ये ताज महल सब ये मेरे पुर्ख़ों की विरासत है,
कैसे छोड़ दें ये मुल्क जिसका दर्द मेरे बुज़ुर्ग आज भी तन्हाई में गाते हैं..
राष्ट्रीय एकता की बात हमेशा की जाती है और गंगा-जमुनी सद्भाव को इसी परिधि में देखा जाता है.
इंडियन मुस्लिम समूह पर एक पोस्ट है,
सरहद पर दुश्मन के आगे सीना ताने लेटे हैं
जिसने तेरे टैंक मिटाए उस हमीद के बेटे हैं
22 अक्टूबर को ‘मुस्लिम्स ऑफ़ इंडिया’ समूह पर एक पोस्ट में कविता कुछ यूं बनी है,
दरिया भी मैं, दरख्त भी मैं
झेलम भी मैं चिनार भी मैं
दैर हूँ हरम भी हूँ
शिया भी हूँ सुन्नी भी हूँ
मैं हूँ पंडित
मैं था, मैं हूँ, और मैं ही रहूँगा...
मोहम्मद आराम अशरफ लिखते हैं,
इंसानियत का कोई गुनहगार न होगा
हैवानियत का कोई तलबगार न होगा
मेरे इस्लाम का कानून लगाकर देख
हिंदुस्तान का कोई बलात्कार न होगा
मुस्लिम यूथ पर एक रचना है,
इस वतन पे यूं वारुंगा जान
बोल उठेगा ये है मेरा निशान
हैं यही लोग तो मेरी शान
आओ बन जाये इसके ज़बान
कह रहा है हर मुसलमान
मुस्लिम ऑफ़ इंडिया पर एक रचना है,
सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा
हम बुलबुले हैं इसकी ये गुलसितां हमारा.
शाहनवाज सिद्दीकी लिखते हैं
मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना
हिन्दी हैं हम वतन हैं हिंदोसिता हमारा
जान अब्दुल्लाह फरमाते हैं,
देशद्रोही देशवासियों में बजाते हैं,
देशप्रेमी सरहद पर जान दे जाते हैं.
हिंदू-मुस्लिम सद्भाव के पक्ष में
सोशल मीडिया की कविताओं में सिर्फ राष्ट्रवाद की बात ही नहीं होती बल्कि गाँधी को महात्मा कहे जाने को लेकर भी रचनाएं रची गई हैं. ‘इंडियन मुस्लिम’ नामक समूह पर 2 अक्टूबर को एक कविता कुछ यूं हैं,
दिल्ली बता धोखा तुझे कब हमने दिया हॆ
इतराने के लायक़ जो हॆ सब हमने दिया हॆ..!
हिंसा का जो इल्ज़ाम लगाते हॆं वो सुन लें
गांधी को महात्मा का लक़ब हमने दिया हॆ...!!
इंडियन मुस्लिम नामक फेसबुक ग्रुप पर एक पोस्ट है,
की मोहम्मद से वफ़ा तूने को हम तेरे हैं,
ये जहां चीज है क्या, लौह ओ कलम तेरे हैं
मुस्लिम ऑफ़ इंडिया ग्रुप पर एक कविता है
मस्जिद तो हुई हासिल हमको
खाली ईमान गंवा बैठे
मंदिर को बचाया लड़-भीड़कर
खाली भगवान् गंवा बैठे.
मुस्लिम ऑफ़ इंडिया ग्रुप पर एक रचना है
तू हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा
इंसान की औलाद है इंसान बनेगा.
इसी ग्रुप पर एक और रचना है,
ऐ रहबरे-मुल्को-कौम बता
आंखें तो उठा नजरें तो मिला
कुछ हम भी सुने हम को भी बता
ये किसका लहू है कौन मरा.
एक और रचना है
वतन पे आंच अगर आए, तो सरों को पेश कर देना
सभी हिंदू-मुसलमान को यही पैगाम है मेरा.
दिनेश पुनिया ने 28 जनवरी को पोस्ट करते हुए एक कविता लिखी है,
“केशरिया हिंदू हुआ
हरा हुआ इस्लाम
रंगो पर भी लिख दिया
जात धर्म का नाम॥
वहीं, ‘वी सपोर्ट नरेंद्र मोदी’ नामक समूह पर अंजनी कुमार सिंह पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम को लेकर 21 जनवरी को लिखा है,
था बंदा इस्लाम का पर
कभी ना ऐठा करता था
जब भी चाहा संतो के
चरणों मैं बैठा करता था।
‘इस्लाम धर्म से बढ़कर और कोई धर्म नहीं’ नामक समूह पर 24 जनवरी को एक कविता पोस्ट किया गया जिसमें शमीम अंसारी की लिखी हुई एक रचना है.
सियासत से दूर हूँ पर एक खिलता चमन चाहता हूँ
बाद मरने के दफ़्न को तरंगे का कफ़न चाहता हूँ.
वहीं, 20 जुलाई, 2016 को विजय हांडा ने निदा फाजली की शेर को पेश करते हुए दहशतगरों पर कटाक्ष करते हुए पोस्ट किया है,
हर बार ये इल्ज़ाम रह गया..!
हर काम में कोई काम रह गया..!!
नमाज़ी उठ उठ कर चले गये मस्ज़िदों से..!
दहशतगरों के हाथ में इस्लाम रह गया..!!
मोहम्मद आसिफ सिद्दीकी 14 अगस्त को लिखते हैं,
इस्लाम मेरा दीन है और भारत मेरा वतन
ना मैं मेरा दीन छोड़ सकता हूं और ना मेरा वतन.
वहीं मोहम्मद इकराम आलम ने आठ नवंबर को पोस्ट किया है,
Bottom of Form
Bottom of Form
Bottom of Form
Bottom of Form
Bottom of Form
Bottom of Form
मुकम्मल है इबादत और मैं वतन ईमान रखता हूँ,
वतन के शान की खातिर हथेली पे जान रखता हूँ !!
क्यु पढ़ते हो मेरी आँखों में नक्शा पाकिस्तान का,
मुस्लमान ..हूँ मैं सच्चा, दिल में हिंदुस्तान रखता हूँ !!
देशभक्ति के दौर में ‘मुस्लिम ऑफ़ इंडिया’ समूह पर दो जून को एहसान जाफरी की रचना है,
गीतों से तेरी जुल्फों को मीरा ने संवारा गौतम ने सदा दी तुझे नानक ने पुकारा
खुसरो ने कई रंगों से दामन को निखारा, हर दिल में मोहब्बत की उखवात की लगन है
ये मेरा वतन मेरा वतन मेरा वतन है.
निष्कर्ष
अध्ययन में पाया गया कि फेसबुक पर 2016 में सबसे अधिक कविताएं देशभक्ति को ध्यान में रखकर लिखी गई, जिनमें यह दर्शाया गया कि जितने देशभक्त भारत में रह रहे दूसरे धर्मों के लोग हैं, उतने ही भारतीय मुसलमान हैं. उन्होंने वक्त आने पर देश के लिए कुर्बान होना मंजूर किया. यही कारण है कि इस अवधि में हिंदू-मुस्लिम सद्भाव को लेकर भी कविताएं लिखी गई, जिससे भारत की एकता, अखंडता और आपसी सामंजस्य का वातावरण देश में बना रहे. मुसलमानों के पक्ष में लिखी गई कविताएं भी लिखी गई और बताया गया कि वे भी इस धरती के हैं और उनकी देशभक्ति पर प्रश्न लगाना उचित नहीं है. उन्हें हमेशा पाकिस्तान से जोड़ना सही नहीं है. वहीं, मुस्लिम विरोध के स्वर या उस स्वर के पक्ष में काफी कम कविताएं लिखी गईं.
संदर्भ
रामविलास शर्मा (1978), भारत की भाषा समस्या, नई दिल्ली, राजकमल प्रकाशन
डॉ. अमरनाथ अमर (2000) टेलीविजन: साहित्य और सामाजिक चेतना, नई दिल्ली, आलेख प्रकाशन
http://gadyakosh.org
http://www.ignca.nic.in/coilnet/kabir064.htm
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11/05/2023
ओटीटी सीरीज का हथकंडा, कहीं हकीकत, कहीं एजेंडा
ओटीटी सीरीज का हथकंडा, कहीं हकीकत, कहीं एजेंडा
विनीत उत्पल
लेखक अनंत विजय की पुस्तक ‘ओवर द टॉप का मायाजाल’ उस सत्यता को परिभाषित करती है, जो ओटीटी के विभिन्न प्लेटफार्म पर वेब सीरीज के खिस्सों के जरिये दर्शकों को दिखाया जाता है. देश में इंटरनेट का बढ़ता घनत्व और डाटा सस्ता होने के कारण ओटीटी प्लेटफॉर्म की व्याप्ति बढ़ी है और इन प्लेटफॉर्म पर दिखाई जाने वाली सामग्री में गलियों की भरमार, यौनिकता और नग्नता का प्रदर्शन, जबरदस्त हिंसा और खूंन-खराबा, अल्पसंख्यकों की स्थिति को लेकर आपत्तिजनक टिप्पणियां और कई बार सैनिकों की छवि ख़राब करने जैसे प्रसंग भी सामने आ चुके हैं. ऐसे में नौ अध्यायों ‘नग्नता और यौनिकता का बोलबाला’, ‘पाताल लोक में पक्षपात का समुच्चय’, ‘रंगबाज, महारानी और पुरबिया नाच’, ‘परदे पर काल्पनिक नैरेटिव’, ‘कहानियों के बदलते कलेवर’, ‘प्रमाण के बंधनों से मुक्ति या’, ‘वेब सीरीज: मंथन का समय’, ‘ओटीटी प्लेटफॉर्म्स की चुनौतियाँ’, ‘मनोरंजन से वैश्विक होती हिंदी’ के जरिये अनंत विजय ने ओटीटी से जुड़े विभिन्न आयामों की विस्तृत जानकारी इस पुस्तक में दी है.
अनंत विजय पुस्तक की भूमिका में कहते हैं कि ओटीटी प्लेटफार्म भारत में मनोरंजन का अपेक्षकृत नया माध्यम है और कोरोना महामारी के दौरान देशव्यापी लॉकडाउन ने इस माध्यम को लोकप्रिय बनाया। उनका मानना है कि यहाँ दिखाए जाने वाले अधिकतर कंटेंट में एक प्रकार की अराजकता दिखाई पड़ती है. यही कारण है कि विभिन्न ओटीटी प्लेटफार्म पर प्रदर्शित शिकायतों का आंकड़ा 6-7 हजार से अधिक है. वे लिखते हैं कि फरवरी, 2001 में सूचना प्रौद्योगिकी कानून लाया गया और इसके तहत ओटीटी की सामग्री पर नजर रखने का प्रावधान है और इसके लिए त्रिस्तरीय व्यवस्था है, पहला, पब्लिशर के स्तर पर, दूसरा, स्वनियमन और तीसरा, सरकार के स्तर पर. इस पुस्तक में वे नेटफ्लिक्स, प्राइम वीडियो, हॉटस्टार के द्वारा कंटेंट और ग्राहकीय रणनीतियों पर भी व्यापक रूप से प्रकाश डाला है. वे लिखते हैं, ‘नेटफ्लिक्स ने दिसंबर 2021 में ग्राहकों को काम मूल्य पर अपनी सेवाएं उपलब्ध करवाना आरम्भ किया। नेटफ्लिक्स ने दो तरह की रणनीति अपनाई थी-एक तो ग्राहकों को जो शुल्क देना पड़ता थी, उसको कम किया और अपने प्लेटफार्म पर भारतीय फिल्मों एवं भारतीय कहानियों पर बनी वेब सीरीजों को प्राथमिकता देना आरम्भ किया… प्राइम वीडियो, हॉटस्टार आदि ने भी भारतीय कहानियों को केंद्र में रखकर कहानियां पेश करनी शुरू कर दी.’
पुस्तक के पहले अध्याय ‘नग्नता और यौनिकता का बोलबाला’ में लेखक ने ‘लस्ट स्टोरीज’, ‘सेक्रेड गेम्स’, ‘घोउल’, ‘मिर्जापुर’ जैसे वेब सीरीज की स्क्रिप्ट का विश्लेषण करते हुए लिखा है कि ज्यादातर सीरीज अपराध कथाओं पर आधारित होती हैं, लिहाजा अपराध, सेक्स प्रसंग, गाली-गलौज, जबरदस्त हिंसा आदि दिखाने की छूट निर्देशक ले लेते हैं. ऐसे में वेब सीरीज में परोसी जाने वाले नग्नता और हिंसा को लेकर निर्माताओं को स्वनियमन के बारे में सोचना चाहिए.
दूसरे अध्याय ‘पाताल लोक में पक्षपात का समुच्चय’ में ‘पाताल लोक’, ‘लैला’, ‘जामताड़ा’. ‘रसभरी’, ‘आर्या’, ‘पंचायत’ जैसे सीरीज के विषयों को लेकर अनंत विजय कहते हैं कि कला की सृजनात्मक अभिव्यक्ति के नाम पर समाज को बाँटने की छूट ने तो लेनी चाहिए और न ही दी जानी चाहिए. यथार्थ के नाम पर कहानी के लोकेशन और गालीवाली भाषा को पेश करने की जो भेड़चाल वेब सीरीज में दिखाई देती है उस पर भी विचार करना होगा. यथार्थ के चित्रण के लिए जिस कौशल की जरूरत होती है, वह गले-गलौच और अश्लीलता दिखनेवाले निर्देशकों में नहीं दिखता। इस तरह के लोग अपनी कमजोरियों को ढकने के लिए गालियों, हिंसा और यौनिक दृश्यों का सहारा लेते हैं. यही कारण है कि फिल्म या वेब सीरीज के क्राफ्ट या निर्देशकों के कौशल पर बात नहीं होती है और साड़ी चर्चा गलियों और फूहड़ता पर केंद्रित हो जाती है.
अनंत विजय इस मामले में तर्क देते हुए लिखते हैं, ‘समांतर सिनेमा के दौर में भी यथार्थ दिखाया जाता था, चाहे वे गोविंद निहलानी की फ़िल्में हों या श्याम बेनेगल की या महेश भट्ट की. इनकी फिल्मों में भी यथार्थ होता था, वैसा यथार्थ जो बगैर लाउड हुए जीवन को दर्शकों के सामने पेश करता था.’ लेखक लिखते हैं कि ‘पाताल लोक’ पत्रकार तरुण तेजपाल के उपन्यास ‘द स्टोरी ऑफ़ माई एसेसिंग’ पर बनाई गई प्रतीत होती है वहीं, ‘रसभरी’ में असंवेदनशीलता में एक छोटी बची को पुरुषों के सामने उत्तेजक नाच करते हुए, एक वस्तु की तरह दिखाना निंदनीय है. वेब सीरीज के विषयों को लेकर वे चिंतित दिखाई पड़ते हैं और कहते हैं ‘वेब सीरीज कई अराजकता का दायरा धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है. जो पुस्तकें दशकों पहले फुटपाथ पर पीली पन्नियों में छिपाकर बेची जाती थीं, अब उसी स्तर की कहानियां और उस पर बनी फ़िल्में इन प्लेटफॉर्म पर वेब सीरीज के रूप में उपलब्ध होने लगी हैं.’
तीसरे अध्याय ‘रंगबाज, महारानी और पूरबिया नाच’ में ‘रंगबाज’, ‘महारानी’ ‘रामयुग’ जैसे वेब सीरीज का विश्लेषण किया गया है और बताया गया है कि जी-5 पर प्रदर्शित ‘रंगबाज’ में उत्तर प्रदेश के खतरनाक अपराधी श्रीप्रकाश शुक्ल के कारनामे को दिखाया गया है जबकि दूसरे सीजन में राजस्थान के गैंगस्टर आनदपाल सिंह के अपराध की कहानी चित्रित की गई थी. गौरतलब है कि आईपीएस राजेश पांडे और वरिष्ठ पत्रकार और प्रोफ़ेसर राकेश गोस्वामी की हाल में आई पुस्तक ‘ऑपरेशन बजूका’ श्रीप्रकाश शुक्ल की अपराध गाथा है जो काफी चर्चित रही है, ‘महारानी’ वेब सीरीज बिहार के मुख्यमंत्री रहते हुए लालू प्रसाद यादव जब घोटाले के भंवर में फंसे तो उन्होंने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बना दिया था. उस घटना पर केंद्रित यह वेब सीरीज थी. वहीं लेखक ‘रामयुग’ को लेकर कहते हैं कि इस सीरीज में भले ही राम को आधुनिक रूप में दिखने की कोशिश की गई हो, लेकिन उनके मर्यादा पुरुषोत्तम के चरित्र को उसी तरह से पेश किया गया है, जैसा कि वाल्मीकि ने ‘रामायण’ में या तुलसीदास ने ‘श्रीरामचरितमानस’ में किया है.
अनंत विजय अध्याय चार ‘परदे पर काल्पनिक नैरेटिव’ में ‘लैला’, ‘द फैमिली मैन’, ‘तांडव’ के विषयों को लेकर कहते हैं कि पाबंदी या बंदिश या पाबंदी के कानून आदि की अनुपस्थिति में स्थितयां अराजक हो जाती हैं. उन दिनों जिस तरह की वेब सीरीज आ रही थी, उनमें कई बार कलात्मक आजादी या रचनात्मक स्वतंत्रता की आड़ में सामाजिक मर्यादा की लक्ष्मण रेखा को मिटाकर नई रेखा खींचने की कोशिश भी दिखाई देती है. ‘द फैमिली मैन’ में आतंकवाद को जस्टिफाई करने की कोशिश दिखाई देती है. वहीं, ‘तांडव’ को लेकर वे कहते हैं कि इसकी ऐसी कहानी है, जिसमें न तो निरंतरता है और न ही रोचकता। कहानी के लेखक को भारतीय समझ तक नहीं है. इसकी कहानी में सिर्फ एजेंडा भरा गया था और अख़बारों से उठाकर घटनाओं का भोंडा कोलाज बनाने का प्रयास किया गया था.
अध्याय पांच में ‘कहानियों के बदलते कलेवर’ के जरिये लेखक ने ‘बिच्छू का खेल’, ‘स्कैम 1992’ सहित विभिन्न वेब सीरीज के जरिये लेखक का मानना है कि उनमें भारतीय कहानियों की मांग बढ़ी है. वह चाहे ‘आर्या हो, ‘पाताललोक’ हो, ‘आश्रम’ हो, ‘बंदिश बैंडिट्स’ हो, ‘पंचायत’ हो, इन सबमें हमारे आसपास की कहानियां हैं. न सिर्फ कहानियों में, बल्कि इन सीरीज की भाषा और मुहावरों में भी देसी बोली के शब्दों को जगह मिलने लगी है. वहीं, ‘जुबली’ नामक वेब सीरीज की कहानी बताती है कि कैसे कम्युनिस्टों ने हिंदी फिल्मों में अपना एजेंडा सेट किया और विचार संग विचारधारा का प्रोपेगंडा कैसे सेट किया।
अध्ययन छह ‘प्रमाणन के बंधनों से मुक्ति या..’ में ‘गुंजन सक्सेना: द कारगिल गर्ल’ के जरिये हुए विवाद और रक्षा मंत्रालय द्वारा 2023 में जारी निर्देशों की चर्चा की गई है. लेखक नेटफ्लिक्स पार आई एक फिल्म ‘गिल्टी’ का विश्लेषण करते हुए लिखते हुए कहते हैं, ‘इस फिल्म की कहानी मी टू के इर्द-गिर्द घूमती है. कॉलेज के छात्रों के बीच एक छात्र का रेप होता है और फिर सोशल मीडिया और मीडिया पर उठे बवंडर के मध्य कहानी चलती है.’ वे लिखते हैं कि निर्देशक शूजित सरकार की फिल्म ‘गुलाबो सिताबो’ को ओटीटी प्लेटफॉर्म अमेजन प्राइम वीडियो पर रिलीज किया गया था, जो भारतीय फिल्मों के प्रदर्शन के इतिहास में एक अहम् मोड़ पर देखा गया. इसके बाद फिल्मों के रिलीज होने का ट्रेंड बदल गया. सलमान खान की फिल्म ‘राधे, ओर मोस्ट वांटेड भाई’ को जी-5 पर रिलीज किया गया था और रिलीज के साथ इतने दर्शक पहुंचे कि वह प्लेटफार्म थोड़ी देर तक दर्शकों का बोझ ही नहीं उठा सका और हैंग हो गया था.
‘वेब सीरीज: मंथन का समय’ नामक सातवें अध्याय में ओटीटी को लेकर भारत सहित दूसरे देशों के मौजूदा कानूनों की व्याख्या की गई है. भारत सरकार ने दिशा-निर्देश में कहा था कि कलात्मक स्वतंत्रता की आड़ में कोई भी ऐसी सामग्री दिखाने की अनुमति नहीं होगी, जो कानून सम्मत नहीं है, लेकिन सरकार ने दिशा-निर्देश जारी करते हुए सेवा प्रदाताओं को इसका तंत्र विकसित करने को कहा था. लेखक लिखते हैं कि कई देशों में ओटीटी के लाइट स्पष्ट दिशा-निर्देश है, सिंगापुर में बाकायदा इसके लिए एक प्राधिकरण है वहीं ऑस्ट्रेलिया में इस तरह के प्लेटफॉर्म पर नजर रखने के लिए ई-सेफ्टी कमिश्नर है.
आठवें अध्याय ‘ओटीटी प्लेटफॉर्म्स के चुनौतियाँ’ नामक अध्याय में कंटेंट के बदलाव, गुणवत्ता, पाइरेसी आदि की चर्चा की गई है, वहीं नौंवे अध्याय ‘मनोरंजन से वैश्विक होती हिंदी’ में फिजी के नाँदी में विश्व हिंदी सम्मलेन के आयोजन में हुई हिंदी फिल्मों की चर्चा की गई है. पुस्तक के आख़िरी में परिशिष्ट के माध्यम से विभिन्न देशों के नियमन को भी शामिल किया गया है.
बहरहाल, अनंत विजय की पुस्तक ‘ओवर द टॉप का मायाजाल’ ओटीटी और इस पर दिखाई जाने वाली वेब सीरीज की कहानियों पर विचार-विमर्श का नया रास्ता खोलती है. भारतीय परंपरा और कहानियों पर वेब सीरीज बनाने के रास्ता प्रशस्त करती है और भारतीय सामाजिक स्थिति में कानून बनाने और वैश्विक कानूनों पर सोचने के लिए यह पुस्तक मजबूर करती है.
पुस्तक: ओवर द टॉप का मायाजाल
लेखक: अनंत विजय
पृष्ठ: 214
मूल्य: 300 रुपये
प्रकाशक: प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली
समीक्षक विनीत उत्पल भारतीय जन संचार संस्थान, जम्मू परिसर में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर और डिजिटल मीडिया कोर्स के समन्यवक हैं.
7/12/2023
कुछ तो लोग कहेंगे....लोगों का काम है कहना
कुछ तो लोग कहेंगे......लोगों का काम है कहना
डॉ. विनीत उत्पल
संजय द्विवेदी महज एक नाम है. वह नाम नहीं, जिसके आगे प्रोफ़ेसर या डॉक्टर लगा हो. वह नाम नहीं, जिसके बाद महानिदेशक या कुलपति लगा हो. वह नाम है ऐसे शख्स की, जो समाज के एक तबके से लेकर किसी संस्थान या फिर राष्ट्र की तकदीर बदलनी की क्षमता रखता है. वह राख की एक छोटी-सी चिंगारी को भी विराट स्वरूप में लाने की क्षमता रखता है. वह किसी अनगढ़ पत्थर को छू ले तो वह खुद को तराश कर सुन्दर बन जाता है.
संजय द्विवेदी वह नाम है, जिसे हर कोई चुनौती देता है और मगर यह संजय द्विवेदी आग की भट्टी से जलकर कोयला नहीं बल्कि तपकर सोना बनकर निकलते हैं. इनके तमाम परममित्र इनकी योग्यता और नियुक्तियों को कोर्ट में जाकर चुनौती देते हैं और फिर कोर्ट को ‘मुहर’ लगाने के बाद ही इन्हें खुलकर खेलने के लिए पूरी फिल्ड खाली कर देते हैं. इनके प्रिय मित्र तमाम जगह इनकी बड़ाई या बुराई ऐसे करते हैं कि लोगों को समझ में आ जाता है कि संजय द्विवेदी में कुछ बात तो है, कुछ दम तो है, जो सामने वाला शख्स अपना समय. अपना तन-मन-धन उनके बारे में सोचने में लगा रहा है तो फिर संजय द्विवेदी से बेहतर कोई विकल्प नहीं है. संजय द्विवेदी खुद ही संजय द्विवेदी के विकल्प हैं और कोई नहीं।
संजय द्विवेदी पत्रकार, शिक्षक, नौकरशाह, राजनेता सहित आम लोगों के दिलो-दिमाग पर छाये रहते हैं. उनके मित्र तो उन्हें दिलोजान से चाहते ही हैं, उनका विरोध करने वाले भी इतने मुस्तैद से उनके सामने खड़े रहते हैं, जिससे वे अपने कर्तव्यपथ से विचलित न हों तथा समाज व राष्ट्र को नई दिशा देते रहे. संजय द्विवेदी के पास जीवन बदलने वाले शब्द एक वाक्य में जिह्वा पर समाये हुए हैं जिन्हें सुनकर और आत्मसात कर कोई भी अपनी जीवन की दिशा और दशा बदल सकता है.
लोकेन्द्र सिंह द्वारा सम्पादित “… लोगों का काम है कहना: प्रो. संजय द्विवेदी पर एकाग्र” नामक पुस्तक में संजय द्विवेदी को काफी बेहतरीन ढंग से परखा गया है. इस पुस्तक में सिर्फ 15 आलेख हैं जो संजय द्विवेदी की चारित्रिक विशेषता सहित उनके कार्यों, कार्य पद्धति का लेखा-जोखा प्रस्तुत करती हैं. कृपाशंकर चौबे, लोकेंद्र सिंह, गिरीश पंकज, प्रो. प्रमोद कुमार डॉ. सी. जयशंकर बाबु, प्रो. पवित्र श्रीवास्तव, यशवंत गोहिल, बी.के. सुशांत, डॉ. धनंजय चोपड़ा, डॉ. शोभा जैन, दीपा लाभ, आनंद सिंह, मुकेश तिवारी, डॉ. पवन कौंडल ने बड़ी गहराई से प्रो. संजय द्विवेदी को पहचाना है, चिंतन किया है और उनके कार्यों को रेखांकित किया है.
इसी पुस्तक में फ्लैप पर साहित्य अकादेमी की उपाध्यक्ष प्रो.कुमुद शर्मा लिखती हैं कि प्रोफ़ेसर संजय द्विवेदी के लेखन की सबसे ख़ास बात है कि वे देश की अस्मिता से गहराई से परिचित कराते हैं. संजय परम्परा से जुड़कर राष्ट्रीयता और भारतीयता को निरंतर व्याख्यायित करते हैं. युवा पीढ़ी तक बहुत आसान शब्दों की चेतना को वे निरंतर कर रहे हैं. जड़ों से जुडी हुई भारतीय चेतना के वे सजग व्याख्याकार हैं. नए भारत के विमर्शों को वे सामने लेकर आ रहे हैं.
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि संजय द्विवेदी की सृजन सक्रियता विस्मयकारी है. यही बात कृपाशंकर चौबे भी कहते हैं. लोकेन्द्र सिंह भी कहते हैं कि किसी के लिए वे एक गंभीर लेखक हैं. किसी ने उनमें ओजस्वी वक्ता देखा है. संपादक की छवि भी उनके व्यक्तित्व में दिखाई देता है. वे कुशल राजनीतिक विश्लेषक हैं. कुछ के लिए वे सिद्ध जनसम्पर्कधर्मी हैं. विद्यार्थी उन्हें एक आदर्श शिक्षक के रूप में देखते हैं. वे जिस भूमिका में होते हैं, उसके साथ न्याय करते हैं. लेखक और पत्रकार की भूमिका होती है कि वे अपने समय चुनौतियों से संवाद करे और नागरिकों का प्रबोधन करे. कलम से लेकर की-बोर्ड का सिपाही बनकर इस भूमिका का निर्वहन प्रो. द्विवेदी ने कुशलता से किया है.
प्रो. संजय द्विवेदी ने अब तक दर्जनों पुस्तकें लिखीं हैं और करीब दो दर्जन पुस्तकों का संपादन किया है. मीडिया विमर्श उनके संपादकीय कौशल की साक्षी है. पत्रकारीय जीवन से लेकर अकादमिक जगत में सक्रिय रहते हुए प्रो. संजय द्विवेदी ने विविध भूमिकाओं में रहते हुए समाधानमूलक दृष्टि को प्रोत्साहन करने का काम किया है. समाधानमूलक एवं सकारात्मक पत्रकारिता के लिए के विमर्श स्थापित करने पर बल दिया है. यही कारण है कि संजय द्विवेदी कहते हैं, ‘मेरे पास यात्राएं हैं, कर्म हैं और उनसे उपजी सफलताएं हैं. मैं चाहता हूँ कि सफलताओं के पीछे का परिश्रम सामने आये और यह अन्य के लिए प्रेरणा का काम करे.” उनकी सफलताएं अनेक लोगों के लिए प्रेरणा स्रोत बन सकती हैं.
अपने लेख में गिरीश पंकज कहते हैं कि संजय द्विवेदी पत्रकारिता के साथ-साथ सामाजिक-राजनीतिक सरोकारों से जुड़कर लिखते हैं. जो विचारवान होता है, लिखता-पढता है, वह यशार्जन भी तो करता है. संजय का सृजन बोलता है, उसके भीतर की बेचैनी लेखकीय हस्तक्षेप के रूप में बाहर आती है, उसके मौलिक चिंतन में एक आग है, जो परिवर्तनकामी है. करुणा का भाव ही संजय जैसे लोगों को बड़ा बनाता है, सफल बनाता है. निर्मल मन के स्वामी बनकर जीवन जीते रहें. निरंतर लिखते रहें. उन्होंने अनेक संभावनाशील युवा पत्रकारों की टीम खड़ी कर दी. वे आगे लिखते हैं, संजय का सृजन बोलता है, उसके भीतर की बेचैनी लेखकीय हस्तक्षेप के रूप में बाहर आती है. उसके मौलिक चिंतन में एक आग है जो परिवर्तनकामी है. संजय को अभी और आगे जाना है. अभी तो यह अंगड़ाई है. लंबा जीवन पड़ा है. इस जीवन को और अधिक चमकदार बनाना है. और यह संतोष की बात है कि जीवन और ज्यादा चमकदार कैसे बने, इसका नुस्खा तो संजय के पास पहले से ही मौजूद है.
गिरीश पंकज कहते हैं कि संजय उसी विश्वविद्यालय में कुलसचिव बने और प्रभारी कुलपति बने. उनको भारतीय जन संचार संस्थान (आईआईएमसी) का महानिदेशक बना दिया गया. तीन साल से दिल्ली में रहकर संस्थान को इतना सक्रिय बना दिया कि सब चमत्कृत हो गए. हर शुक्रवार को पत्रकारिता और अन्य विषयों पर ऑनलाइन संवाद होते रहे. बाद के उन आयोजनों में जुए विमर्शों को लिपिबद्ध करके एक पुस्तक ‘शुक्रवार संवाद’ भी प्रकाशित हो गई और एक तरह का ऐतिहासिक दस्तावेज ही बन गया. संस्थान इसके पहले कभी भी इतना सक्रिय नहीं रहा. सभी दंग हैं कि ऐसा भी हो सकता है. व्यक्ति की अपनी ऊर्जा, संकल्प-शक्ति और सतत चिंतन के कारण सृजन का रास्ता खुलता चला जाता है. गौरतलब है कि जो श्रमवीर होते हैं, जो लगनशील होते है, उनके लिए नये-नये रस्ते अपने आप खुलते चले जाते हैं.
प्रो. प्रमोद कुमार लिखते हैं कि प्रो. संजय द्विवेदी का का लेखन अथक, अविरत जारी है. मीडिया गुरु, पत्रकार, लेखक और प्रभावी संचारक प्रो. द्विवेदी के व्यक्तित्व का एक पक्ष है. दूसरा पक्ष है एक दूरदृष्टा प्रशासक और कुशल योजक. आईआईएमसी को लेकर उनके मन में कुछ ठोस कल्पनाएं पहले से स्पष्ट थीं, जिन्हें मूर्त रूप प्रदान करने के लिए उनके पास ठोस योजनाएं भी थीं. उनके व्यक्तित्व के प्रशासकीय पक्ष पर जब मैं विचार करता हूँ तो स्पष्ट नजर आता है कि वे कड़े निर्णय लेने में संकोच नहीं करते.
भारतीय जन संचार संस्थान को लेकर प्रो. प्रमोद कुमार कहते हैं, प्रो. द्विवेदी द्वारा आईआईएमसी में जो ने प्रयोग किये गए हैं, उनमें एक है, ‘शुक्रवार संवाद।’ शिक्षा संस्थानों के क्लासरूम में पाठ्यक्रम की मर्यादा रहती ही है, परन्तु मीडिया विद्यार्थियों के लिए ऐसे बहुत से विषय है जो पाठ्यक्रम का हिस्सा नहीं होते, परंतु उन पर उनका प्रबोधन आवश्यक है. उदाहरण के लिए भारत की निर्वाचन प्रक्रिया की समझ, पर्यावरण, संविधान, मीडिया और लोक कलाओं की समझ, एक संचारक के रूप में नेताजी सुभाष चंद्र बोस, महात्मा गांधी, तिलक, आंबेडकर, दीनदयाल उपाध्याय, मदन मोहन मालवीय, अटल बिहारी वाजपेयी आदि महापुरुषों के बारे में जानकारी. ‘संचार माध्यम’ और ‘कम्युनिकेटर’ आईआईएमसी द्वारा प्रकाशित दो यूजीसी-केयर सूचीबद्ध शोध पत्रिकाएं हैं. दोनों शोध पत्रिकाओं के अलावा प्रो. द्विवेदी की पहल पर राजभाषा हिंदी को समर्पित पत्रिका ‘राजभाषा विमर्श’ का नियमित प्रकाशन हो रहा है. ‘संचार सृजन’ नाम से एक नई पत्रिका और ‘आईआईएमसी न्यूज़’ नाम से एक मासिक न्यूज़लेटर भी आरम्भ किया गया है. डिजिटल मीडिया पर केंद्रित एक नया स्नातकोत्तर डिप्लोमा पाठ्यक्रम शुरू किया गया है.
प्रो. प्रमोद कुमार कहते हैं, एक बात जो प्रो. द्विवेदी को एक कुशल प्रशासक बनाती है, वह है लीक से हटकर सोचना. भारतीय जन संचार संस्थान के पुस्तकालय का हिंदी पत्रकारिता के आदि संपादक पंडित युगल किशोर शुक्ल के नाम पर नामकरण. ‘उदंत मार्तंड’ के संपादक पंडित युगल किशोर शुक्ल के नाम पर यह देश में प्रथम स्मारक है. प्रो. द्विवेदी के लिए संस्थान में काम काम करने वाला कोई भी व्यक्ति अनुपयोगी नहीं है. वे हर व्यक्ति से उसकी क्षमतानुसार काम ले लेते हैं. एक सफल प्रशासक और योजक के लिए इससे बड़ा गुण और क्या हो सकता है.
वहीं, डॉ. सी. जयशंकर बाबु का कहना है कि संजय द्विवेदी के लेखन में ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ की भावना उनके विराट आत्मीय व्यक्तित्व की तमाम विशेषताओं के साथ उपस्थित हो जाती है. वे जहाँ गंभीर तेवर के साथ भी अपनी लेखनी चलाते हैं, उस लेखन के अंतस में कई कोमल भावनाएं होती हैं. उनकी लेखनी में जनहित, राष्ट्रहित के साथ ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की भावना की प्रबलता हम देख सकते हैं. संजयजी अपने विशिष्ट व्यक्तित्व, विराट चिंतन, विनम्रता, शालीनता, श्रद्धा, प्रेम, भाईचारा, मानवता जैसे विराट मूल्यों से सींचकर अपनी बात को अपने पाठकों के ह्रदय तक प्रभावशाली ढंग से पहुंचा देते हैं. संजय जी की शोध दृष्टि में परंपरा के प्रति आदर है और आधुनिकता के प्रति सजगता है. वे भारत के हर अंचल के हर पत्रकार के प्रदेयों को, मीडिया के हर किसी प्रवृति [पर सार्थक विमर्श को अपने शोध में भी आत्मीयतापूर्वक जगह देते हैं. एक जाग्रत पत्रकार और निष्ठावान शिक्षक के रूप में वे सदा लोकजागरण में अपनी सक्रीय भूमिका अदा कर रहे हैं. संजय जी एक लेखक से बढ़कर पत्रकार हैं. लेखक से ज्यादा तेज वे गंभीर चिंतन के वे स्वामी हैं.
प्रो. (डॉ.) पवित्र श्रीवास्तव लिखते हैं कि हर समय मैंने उन्हें कुछ नया करने की ऊर्जा से लबरेज पाया. संजय द्विवेदी का सामाजिक जीवन, पत्रकारिता प्रोफेशन एवं शिक्षण-प्रशिक्षण में लगभग तीन दशक से अधिक का अनुभव है और इस दौरान उन्होंने मीडिया जगत, अकादमिक जगत और जनमानस में जो पहचान बनाई है, उससे यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि संजय द्विवेदी अब एक ब्रांड बन गए हैं. अपनी व्यवहार कुशलता, रिश्तों को सहेजकर चलने की उनकी अदा से वे कब सीनियर से हमारे मित्र, पारिवारिक सदस्य, मार्गदर्शक और सहकर्मी बन गए, पता ही नहीं चला. उनके पहलू बड़े साफ़ हैं. वे अपनी सहमति-असहमति और नाराजगी स्पष्ट रूप से जाहिर करते हैं और यही गुण उन्हें एक अच्छे पत्रकार और एक अच्छे लेखक के रूप में स्थापित किया करता है. वे किसी सामाजिक-राजनीतिक घटनाक्रम के बाद उस सन्दर्भ में पूरी पृष्ठभूमि को समझकर केवल सार्थक टिप्पणी एवं विश्लेषण नहीं करते, बल्कि पूर्ण निष्पक्षता और गंभीरता के साथ उस पर अपनी राय करते हैं.
इस पुस्तक में यशवंत गोहिल, बी.के. सुशांत, डॉ. धनंजय चोपड़ा, डॉ. शोभा जैन, डॉ. दीपा लाभ, आनंद सिंह, मुकेश तिवारी, डॉ. पवन कोंडल ने भी संजय द्विवेदी पर अपने विचार रखे हैं. पुस्तक के संपादक लोकेन्द्र सिंह लिखते हैं कि एक कुशल संचारक की भांति संजय द्विवेदी लगातार अपने समय से संवाद भी कर रहे हैं और लेखन एवं संपादन के माध्यम से भी सामाजिक विमर्श में अपना योगदान दे रहे हैं. वे जिस विश्वविद्यालय से पढ़े, वहीं पत्रकारिता के आचार्य हुए और कुलपति का गुरुतर दायित्व भी संभाला. उनकी विशेषता यह है कि अपनी इस यात्रा में उन्होंने अपने पत्रकारीय, शैक्षिक और प्रशासनिक दायित्व का निर्वहन करने के साथ ही सामाजिक दायित्व को भी समझा और समाज के लिए उपयोगी साहित्य की रचना की.
बहरहाल, यश पब्लिकेशंस के प्रकाशित पुस्तक ‘...लोगों का काम है कहना’ संजय द्विवेदी के यश को पाठकों के सामने रखती है और लोगों के दिलो-दिमाग पर किस तरह वे छाये रहते हैं, इसकी भी बानगी भी इस पुस्तक के पृष्ठों पर मिलती है. कुल मिलाकर 160 पृष्ठ की यह पुस्तक पढ़ने और गुनने योग्य है, जिसे हर किसी को पढ़नी चाहिए.