संयुक्त राष्ट्र जरी इस रिपोर्ट को २०१२ के बाद की स्थिति को लेकर बतौर फ्रेम वर्क देखा जा रहा है। कारण, वर्ष १९९७ में हुए क्योटो प्रोटोकाल के तहत समय सीमा वर्ष २०१२ में ख़त्म हो रही है.वर्ष १९९७ में हुए क्योटो समझौते में प्रदूषण फैलाने वाली गैसों के उत्सर्जन में कमी करने के लिए विकास शील और विकसित देशों को लक्ष्य दिया गया था। यह हम बात है कि सबसे अधिक ग्रीन हॉउस गैस छोड़ने वाला अमेरिका शुरू से ही इस मुद्दे पर नकारात्मक रवैया अपनाता रहा और इसे मानने से पूरी तरह इंकार कर दिया था।
'ह्यूमेन डेवलपमेंट रिपोर्ट २००७-08' में विशेषकर गरीब देशों और वाहन के देशों के प्रति जलवायु मामले को लेकर जबर्दस्त चिंता व्यक्त की गई है। एक और जहाँ जलवायु विज्ञान से जुरे लोगों का ध्यान पांच अहम मुद्दों की ओर आकृष्ट कराया गया है, वहीं विकसित और विकास शील देशों के सामने कई ऐसे प्रस्ताव भी रखे गए हैं।
विस्तृत रिपोर्ट में सबसे पहले कृषि उत्पादन और खाद्य सुरक्षा को प्रमुखता दी गई है। संयुक्त राष्ट्र का मानना है के जलवायु परिवर्तन का प्रभाव , बारिश, तापमान और कृषि के लिए जल उपलब्धता पर काफी अधिक होता है। वैज्ञानिकों का मानना है कि यदि ऐसे ही स्थिति रही तो २०८० तक करीब छः सौ मिलियन लोग पूरी दुनिया में कुपोषण से पीड़ित होंगे। जल संकट के मामले में रिपोर्ट बताती है कि जलवायु का प्रभाव ग्लेशियर पर जबरदस्त रूप से पर रहा है। एशिया और लैटिन अमेरिका में सिंचाई के पानी की जरूरत पर इसका काफी असर पड़ा है। वैज्ञानिकों और लोगों का मानना है कि यदि यही स्थिति बनी रही तो २०८० तक करीब १.८ बिलियन लोगों को पानी के लिए तरसना पड़ेगा।
वैज्ञानिकों का मानना है को आंधी, तूफान, सुनामी के अलावा समुद्र में जलस्तर बढ़ने या घटने में जलवायु का बड़ा हाथ होता है। ग्लेशियरों के पिघलने का भी प्रभाव लगातार देखने को मिल रहा है। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में दुनिया के लोगों का ध्यान स्वास्थ्य स्तर में तेजी से गिरावट होने के ओर भी दिलाया गया है। दुनिया के तमाम देशों को इको सिस्टम की ओर भी दिलाया गया है। शोध के मुताबिक, पूरी दुनिया में मौजूद मूंगे चट्टान के आधे से अधिक भाग का रंग पीला होते जा रह है। यह रंग परिवर्तन सिर्फ समुद्र के गर्म होने के कारण हो रहा है।
मूगों के चट्टान के टकराने के कारण कई देशों के मानवीय विकास मामले में यह महाविपत्ति का कारण बन सकता है। पूरी रिपोर्ट में अंतर राष्ट्रीय समुदाय से जहाँ कारगर कदम उठाने की मांग की गई है। जलवायु संकट से निजात पाने के लिए रिपोर्ट में कई प्रस्ताव भी रखे गए हैं। साथ ही, विभिन्न मसलों पर दुनिया को चेतावनी भी दी गयी है। संयुक्त राष्ट्र ने इस रिपोर्ट के जरिये २०१२ के फ्रेम वर्क के तहत जलवायु की खतरनाक स्थिति से निजात पाने के लिए बहु पक्षीय फ्रेमवर्क बनने पर जोर दिया गया है। २०५० तक ग्रीन हॉउस गैस में पचास फीसदी कमी लाने का प्रस्ताव भी किया गया है। क्योटो समझौते के तहत विकसित देशों को लक्ष्य को पुरा किया जाना चाहिऐ, जिसके तहत २०५० तक ८० फीसदी और २०२० तक ३० फीसदी गैस की मात्रा में कमी लाने पर जोर दिया गया है। जिन विकास शील देशों में अधिक गैस उत्सर्जित हो रहा है, उन्हें हर हालत में २०२० तक खुद पर अंकुश लगना चाहिऐ और इसके लिए वैश्विक समुदाय को वित्तीय सहायता और लो-कार्बन तकनीक की दीर्घ कालीन योजना लागु करने की भी बात रिपोर्ट में कही गई है, जिसमे इसके अल्पीकरण का एजेंडा तय करने पर सभी का ध्यान आकृष्ट कराया गया है।
प्रस्ताव के तहत सभी विकसित देशों से एक राष्ट्रीय कार्बन बजट तैयार करने का आग्रह किया गया है। इसके तहत, कार्बन पर अधिक कराधान की बात कही गयी है, जिससे वर्ष २०२० के बाद ग्रीन हॉउस गैस कार्बन द ओक्दिईद् की मात्र में उम्मीद से ३५ फीसदी अधिक तेजी से बढोत्तरी पर अंकुश लग सके। संयुक्त राष्ट्र ने वैश्विक तौर पर फ्रेम वर्क को मजबूत करने पर जोर दिया गया है। इसके तहत, माडर्न एनर्जी सर्विस और बायोमास पर आश्रय करने की ओर ध्यान दिलाया गया है।
रिपोर्ट में २०३० तक सभी को जलवायु संकट मामले पर जागरूक होने की बात कही गयी है। ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट के वैज्ञानिकों का मानना है कि कार्बन द आक्साइड की बढ़ती मात्र आश्चर्यजनक नही है, लेकिन जिस गति से बढ़ रही है, वह चिंताजनक है।
बहरहाल, जलवायु परिवर्तन बहुत खतरनाक चुनौती बन चुकी है और इससे नही निबटा गया तो ऐसे खतरनाक प्रभाव हो सकते हैं जिनसे उबरना असंभव हो सकता है। पीढी दर पीढी इस मुद्दे पर लोगों को जागरूक होना होगा। जलवायु संकट से निजात पाना एक दिन का खेल नही है। वर्तमान पीढी को इस मसले पर अपनी खिड़की खुली रखनी होगी, तभी ग्रीन हॉउस के स्तर में कानी होगी। इसके ग्राफ की दिशा को नीचे लाने का प्रयास करने के लिए जी- तोड़ मह नत करनी होगी।
विनीत उत्पल
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