मैं अक्सर सोचता हूँ की 'व्यक्ति' की परिभाषा क्या है। 'मैं' क्या चीज होता है। मैं तो अपनी एक भीड़ हूँ। मैं केवल एक लेखक नही। मैं किसी का बेटा, किसी का भाई, किसी का पति और किसी का पिता भी हूँ। किसी का दोस्त और किसी का दुश्मन भी हूँ। मैं वह आदमी भी हूँ जो किसी के लिए काम करता है। मैं वह आदमी भी हूँ जिसके लिए कुछ लोग काम करते हैं... मुझमे और बहुत से लोग भी होंगे।
मैं वह हिपोक्राईट भी हूँ जो अपने बास के बेजान लेतीफे सुनकर सिर्फ़ हँसता ही नही, बल्कि जी लगाकर हँसता है। जो घंटों अपने बोरिंग पडोसियों को बर्दाश्त करता है। जो ख़राब शेरों की तारीफ करता है...जो इसी प्रकार के और भी बहुत से घटिया काम करता है...यह 'मैं' 'व्यक्ति' तो hrgiz नही। यह तो अच्छा- खासा मोहल्ला है।
...लगभग हमेशा लेखक को अपना जी मरना पड़ता है।...इन बातों पर न पाठक सोचता है और न ही आलोचक। पाठक के पास पसंद-नापसंद की तलवार है। वह यह तलवार भान्जता रहता है और आलोचक बड़े-बड़े और भुदे शब्दों के पत्थर लुढ़कता रहता है। रुक कर मेरी खरियत कोई नही पूछता।
कोई लेखक शौक से बुरा नही लिखता। मैं उन लेखकों की बात नही कर रहा हूँ जो केवल बुरा ही लिखते हैं और केवल अपने लिखे को महत्व पूर्ण मानते हैं। मैं साहित्यकारों की बात कर रहा हूँ... उन साहित्यकारों की बात कर रहा हूँ जो अच्छे- बुरे साहित्य में फर्क कर सकते हैं। फ़िर भी सदा अच्छा ही नही लिखते।
यह साहित्यकार बड़ी मुश्किल से कोई घटिया चीज लिखने पर तैयार हो पता है। जानते-बूझते बुरा लिखना बड़ा मुश्किल काम है। पर इसे वही लोग समझ सकते हैं जो लिखने का काम करते हैं। वह लिखना पड़ता है जो लिखना नही चाहता, पर लिखता हूँ क्यूंकि मैं केवल लेखक ही नही हूँ। मैं वह दूसरा आदमी भी हूँ।
...राही मासूम रजा
जारी...
(वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित सिनेमा और संस्कृति नामक पुस्तक से साभार)