हजारों ख्वाईशें ऐसी... विनीत उत्पल
फिल्म, फ़िल्म और फ़िल्म, यह शब्द है या कुछ और। इससे परिचय कैसे हुआ, क्यों हुआ, यह मायने रखता है। दीवारों पर चिपके पोस्टरों, अख़बारों में छपी तस्वीरें, गली-मोहल्ले में लाउडस्पीकरों में बजते गाने व डायलाग या घरों में रेडियो से प्रसारित होने वाले फिल्मी गाने मन मस्तिष्क पर दस्तक देते। उत्सुकता जगाते। शादी-ब्याह के मौके पर माहौल को मदमस्त करते फिल्मी गाने हों या २६ जनवरी या १५ अगस्त को बजने वाले देशभक्ति के तराने, बचपन की अठखेलियों के साथ कौतुहल का विषय होता। बचपन के वो दिन जब हजारों ख्वाईशें ऐसी कि फिल्मी पोस्टर पर हीरो को स्टाइल देते देख ख़ुद के अरमान स्मार्ट बनने और दीखने की कोशिश में खो जाते। उस दौर में तमाम हीरोइनें एक जैसी लगतीं। मन में उथल-पुथल कि गाने बजते कैसे हैं, डायलाग कैसे बोला जाता है, हीरो जमीन से उठकर परदे पर कैसे आता है, क्या पोस्टर पर दीखने वाला स्टंट वास्तव में होता है।
वो हसीन पल
मां बताती है कि सैनिक स्कूल, तिलैया में हर शनिवार को फ़िल्म दिखाया जाता था। फुर्सत मिलने पर घर के लोग फ़िल्म देखने जाते थे। पापा जब सैनिक स्कूल में गणित के टीचर थे तभी मेरा जन्म हुआ। मैं कुछेक महीने का होऊंगा, तभी पापा सैनिक स्कूल की नौकरी छोड़ भागलपुर विवि में लेक्चरर हो गए। अक्सर मां को याद आता है सैनिक स्कूल के वो पल।
यह आकाशवाणी है
जब मैंने होश संभाला तो घर में उसी रेडियो की आवाज को गूँजते पाया जो पापा को शादी में मिली थी। घर के जो लोग फुर्सत में होते आकाशवाणी से प्रसारित होने वाले गाने सुनते, एफएम तो था नहीं। स्वाभाविक रहा होगा, मेरी रूचि गाने की ओर बढ़ी होगी। मेरे दादाजी गाना सुनने के शौकीन थे।
यह किसका डायलाग है रे...
घर में रेडियो के माध्यम से जाना कि गाना क्या होता है। मौके-बेमौके पर मोहल्ले में बजने वाले लाउडस्पीकरों से जाना कि यह शहंशाह का डायलाग है या गब्बर सिंह का। उसी दौर में पहली बार टेलीविजन से रूबरू हुआ। मन चंचल और स्वभाव जिद्दी। रविवार की शाम फीचर फ़िल्म दूरदर्शन पर दिखायी जाती। दूसरे के यहां फ़िल्म देखने जाता लेकिन इंटरवल तक। सालों दर साल यही क्रम चलता रहा।
भूखे पेट न भजन गोपाला
मैं उम्र के उस पड़ाव से गुजर रहा था जब मेरे दोस्त लुकछिप कर सिगरेट पीते, फ़िल्म देखने जाते, सेक्स की बातें करते, यहाँ तक कि मारपीट भी। लेकिन मेरी सोच उस वक्त भी और आज भी कुछ उल्टी थी। मेरा मानना था कि जो काम सभी करेंगे वह मैं नहीं करूँगा। यही कारण रहा कि कभी भी मेरे दोस्तों का ग्रुप नहीं बना। दोस्तों की देखा-देखी में सिगरेट को मुंह लगाया लेकिन छिपके कुछ भी काम करना अच्छा नहीं लगा, जो आज भी है। शाकाहारी तो बचपन से हूँ ही। फ़िल्म देखने की इच्छा हुई, लेकिन लगा कि तीन घंटे तक हाल में भूखा रहना पड़ेगा। घर के लोग फ़िल्म देखने जाते नहीं थे, मेरा अकेले जाने का सवाल ही नहीं था।
छुट्टियों में गाँव, गाँव के वो लोग
कालेज में गरमी और दशहरे की लम्बी छुट्टियाँ होती थी। सपरिवार गाँव जाते। वहां के लोगों को फ़िल्म देखने और उसके बारे में विस्तार से बातें करते देखता, चुपके से सुनता। जिसकी शादी होती वह पहली बार अपनी दुल्हन को फ़िल्म दिखाने जरूर ले जाता। मेरा बालमन सोचता और समझता कि फ़िल्म देखना रोमांचक होता होगा। कुछ न कुछ खास तो होगा ही क्योंकि गाँव के लोग शादी के बाद ही सिनेमा देखने जाते है। मैं तय करता पहले फ़िल्म देखने जाऊँगा तब शादी करूँगा।
पापा की मार और दुलार
मेरा सौभाग्य रहा कि पापा ही मेरे पथ-प्रदर्शक रहे। चाहे पढ़ाई की बात हो या दुनिया जहान की। खेल का मैदान हो या फिल्मी दुनिया की, राजनीति की रपटीली राहों की कहानियां हों या बीमारी से छुटकारा पाने की तरकीब, उन्हें आलराउंडर पाया। शायद फिल्मों की बातें भी उन्हीं से जाना होऊंगा, क्योंकि जीवन का सबसे अधिक समय मां के साथ नहीं बल्कि पापा के साथ बीता। सही काम न करने पर वो खुश, नहीं तो डांट-फटकार यहाँ तक कि पड़ती थी मार। पापा ने ही बताया था कि अमिताभ बच्चन एक हीरो है और उसके पिता हरिवंश राय बच्चन एक कवि और प्रोफेसर रहे हैं। मेरा मन सोचता आख़िर मैं भी तो एक प्रोफेसर का बेटा हूँ तो मैं भी क्यों नही...
पहले पढ़ाई फ़िर फ़िल्म
पापा का मानना था कि फ़िल्म देखने में सिर्फ़ समय और पैसे की बर्बादी होती है। तीन घंटे कोई बच्चा पढ़ाई कर ले तो क्लास में बेहतर या मैदान में खेल ले तो अच्छे स्वास्थ का स्वामी बन सकता है। पढ़ाई के मामलों में वे किसी भी तरह का सामंजस्य बिठाने के खिलाफ रहे हैं। यह अलग बात थी कि मेरे मामलों में उन्होंने अपना उसूल बदला। मैं उन दिनों फ़िल्म देखने जाता था, क्या समझता यह पता नहीं। शाम को दूरदर्शन पर फ़िल्म देखने के लिए जाने के लिए भूमिकाएँ बांधनी पड़ती थी। सुबह से शाम तक इतनी पढ़ाई करनी होती थी कि पापा खुश हो जायें। पापा द्वारा पूछे सवालों का जबाब नहीं दिया तो सारी योजना का वाट लगने का खतरा होता था।
जो जीता वही सिकंदर
पापा का कहना था कि क्लास में बेहतर करने के साथ-साथ मेरा दिया हुआ टास्क पूरा करोगे तभी तुम्हारी बात मानी जायेगी। बालपन में अपने सपने को हकीकत में बदलने का एक ही रास्ता सूझता, वो था जमकर पढ़ाई करने का। कभी पापा जीतते तो कभी मैं। शायद पापा को अपने बेटे से हारने के बाद भी गर्व होता, जैसा एक पिता को होता है। वे हंसकर मुझे अपनी मर्जी से जीने की छूट देते। लेकिन जब मैं हारता तो थोड़ी देर के लिए झल्लाता और अपनी खामियों को अगली बार दूर करने का प्रयास करता। ऐसे ही रोमांचक समय में अमर अकबर एंटोनी, नागिन, कालीचरण, शोले, रोटी , कपड़ा औए मकान, सीता और गीता, राम और श्याम, हाथी मेरा साथी, सत्यम, शिवम सुन्दरम, क्रांति आदि न जाने कितनी फिल्में इंटरवल तक देखी।
कल्पना की अनुगूँज
सत्तर व अस्सी के दशक में तारापुर महज एक छोटा सा क़स्बा हुआ करता था। यहां की गलियों में मेरा बचपन बीता। एक ही सिनेमा हॉल था, कल्पना टाकिज। कुछ अरसा पहले पता चला उसका अब नामोनिशान नहीं है। टाकिज के मालिक ने हॉल के बगल में ही एक वीडीओ हाल भी खोला था, जहाँ सीडी के जरिये नयी फिल्में दिखाई जाती थी। कल्पना सिनेमा हॉल की टिकटें १५ अगस्त और २६ जनवरी को उस दौर में भी ब्लैक में बिका करती थीं। ये सब जानकारी मुझे अपने दोस्तों से मिलती रहती थी। दीगर बात यह थी की तारापुर की जनसँख्या कम होने के कारण लोग एक-दूसरे को जानते थे। इस कारण जो भी बच्चे लुकछिप कर फ़िल्म देखने जाते, घर तो घर पूरा मोहल्ला और स्कूल तक में यह ख़बर फ़ैल जाती और लोग उसे अच्छी नजर से देखने से इंकार करते।
पैसे चुराकर देखी थी पहली फ़िल्म
आठवीं क्लास में था, जब पहली बार हॉल में जाकर बड़े परदे पर फ़िल्म देखी थी। घर में दादाजी के बटुए से साढे तीन रूपये चुराए थे। तीन रुपये में दो टिकटें आयीं और पचास पैसे का पसंदीदा नास्ता झालमुढी खाया था। फ़िल्म थी जंगबाज, हीरो थे गोविंदा और राजकुमार। गया तो था फ़िल्म देखने लेकिन जिज्ञासु मन होने के कारण फ़िल्म कम हॉल का सीन अधिक देख रहा था। आगे-पीछे के कुर्सियों की ओर झांक इस डर से भी रहा था कि कोई पहचान का न मिल जाए। डर था कि घर तक मामला बता दिया तो बिना पूछे सिनेमा देखने का दंड भुगतना पड़ सकता है। जिस साथी के साथ फ़िल्म देखने गया था उसे पहले ही मैंने सख्त हिदायत दे रखी थी कि इसकी जानकारी किसी को कानोकान न हो, तभी मैं टिकट का खर्चा दूंगा। हम अपने मिशन में कामयाब रहे थे।
माली तो दो पर फ़िल्म एक
जब आप एक बार किसी काम को पूरा करने में सफल हो जाते हैं तो आपकी इच्छा और मनोदशा कुछ और हो जाती है। तारापुर में फ़िर छिप कर किसी और दोस्त के साथ फ़िल्म एक फूल, दो माली देखने गया। फ़िल्म अच्छी लगी। जीवन के १८ साल तारापुर की गलियों में बिताये लेकिन हॉल में इन दो फ़िल्मों को छोड़ कोई भी फ़िल्म नहीं देखी। या तो छिपकर फ़िल्म देखने की कभी इच्छा नहीं हुई या कल्पना सिनेमा हॉल की बदतर हालत देखकर।
काश, आमिर जैसे स्मार्ट होता
उम्र के जिस मोड़ पर वास्तविक तौर से फ़िल्म जगत से रूबरू हुआ, यही वह वक्त था जब बालीवुड की मायावी दुनिया में आमिर खान, सलमान खान, माधुरी दीक्षित जैसे कलाकारों का पदार्पण हुआ। फ़िल्म क़यामत से क़यामत तक का पोस्टर देख पसंदीदा हीरा आमिर खान बना तो जूही चावला के मनमोहक मुस्कान खूब भाती थी। माधुरी दीक्षित, दिव्या भारती, काजोल की अख़बारों में छपी तश्वीरें मेरे किताबों के जिल्द को आकर्षक बनाती। इसी कालखंड में घायल, दिल, आशिकी, आज का अर्जुन, हम आपके हैं कौन, कुली नंबर वन, कारण-अर्जुन, दिलवाले दुल्हनियां ले जायेंगे, रंगीला, बार्डरतेजाब, मैंने प्यार किया, सौदागर, साजन, सड़क, मोहरा जैसी तमाम फिल्में विभिन्न चैनलों पर देखी।
मैं भी होता एक सितारा
सुनहरे परदे की चमकती दुनिया स्नातक की पढाई करने के दौरान सर चढ़ कर बोल रही थी। सोचता क्यों न फ़िल्म पत्रकार बन जाऊं। उसी दरम्यान एक बार इंदौर गया था, दीदी के पास। पास ही फ़िल्म समीक्षक जयप्रकाश चौकसे रहते हैं। उनसे मिलने गया और भविष्य के सपनों को सामने रखा। उन्होंने जहाँ इस फील्ड में न आने की सलाह दी वहीं सत्यजीत रे फ़िल्म संस्थान से डिग्री लेने पर मुम्बई में कुछ बात बनने की बात कही। बस मामला जस की तस अटक गया।
कोलकाता की वो बारिश
इंटर करने के बाद इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा की तयारी कर रहा था। उसी दौरान कई-कई महीनों तक कोलकाता में रहा। मेरा ठिकाना सेन्ट्रल कोलकाता स्थित राजेंद्र छात्रावास हुआ करता था। वहां रहने के दौरान एक दिन की बात याद आती है। घनघोर बारिश हो रही थी। सुबह उठा, पता नहीं क्या सूझी, फ़िल्म देखने चला गया। अकेला था, मन परेशान था। लगातार चार शो देखा। राजा बाबू और सूर्यवंशम फ़िल्म इनमें प्रमुख था। बाद के साल में कोलकाता में अपने दोस्तों के साथ सरफ़रोश देखी, जिस दिन रिलीज हुई थी।
हॉल में ही सो गया
नब्बे के दशक के आखिर में तारापुर के रामस्वारथ कालेज से पापा का ट्रांसफर मारवाडी कालेज, भागलपुर हो गया। संयोगबस इसी कालेज से मैंने भी स्नातक की है। उस दौरान न तो कभी फ़िल्म देखने की इच्छा हुई और न ही मौका मिला। उस दौर में मेरा सबसे अधिक समय सामाजिक कामों में बीतता था, जिस कारण पापा की नाराजगी का सदैव सामना करना होता था। हाँ, एक बार दीदी और उनके ससुराल वालों के साथ भागलपुर के प्रतिष्ठित हॉल शारदा सिनेमा हॉल में फ़िल्म देखने गया था। संजय दत्त की कोई फ़िल्म थी। सुबह कोलकाता से लौटा था, थका था, हॉल ही में सो गया।
बाइस्कोप की पढाई
दिल्ली आया तो कभी फुर्सत ही नहीं मिली कि मल्टीप्लेक्स में फ़िल्म देखने जा सकूँ। फ़िर भी इतने सालों में सिर्फ़ और सिर्फ़ तीन फिल्म देखी। मेरी बुरी आदत रही है कि जो कम मन से नहीं हुआ उसका बारे में ज्यादा ख्याल नहीं रखता, यही इन तीनों फ़िल्मों के साथ हुआ। दोस्तों का मन रखने गया था। जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली से कोर्स करने के दौरान सही तौर पर फिल्मों और इसकी बुनयादी चीजों से अवगत हुआ। यहीं, गोविन्द निहलानी को सुना, अनवर जमाल व सेजो सिंह की बनी फ़िल्म स्वराज देखी। फ़िल्म के तकनीकी पक्षों को जाना। अशोक चक्रधर ने अपनी बनी टेली फ़िल्म दिखाई। निर्देशक के काम को जाना, स्क्रिप्ट राइटिंग सीखी। असगर वजाहत और जवरीमल पारिख जैसे टीचर मिले। विवेक दुबे ने दुनिया की बेहतरीन फ़िल्मों की जानकारी दी।
जिन्दगी की जीत पर यकीन कर
जामिया में पढाई के दौरान और अपने समय की बेहतरीन फ़िल्मों को देख कर सिने जगत के कई पहलुओं से अवगत हुआ। घर में भी इस बात के जानकारी दी। न तो मैं और न ही मेरे घर के लोग इस विधा को उस नजरिये से देखते हैं जिस नजरिये से आम पब्लिक देखती है। भले ही लोगों को फ़िल्म के मायावी दुनिया प्रभावित करती हों, लेकिन मेरे साथ ऐसा कभी नहीं रहा। वास्तविकता के धरातल पर जीना शगल है, भले ही कल्पना की उड़ान आसमान के इस छोड़ से उस छोड़ तक अपनी तान भरती रहे।