मुर्दाघर
अब हड़ताल नहीं होती
कार्यालयों में, फैक्ट्रियों में
अपनी मांगों को लेकर
किसी भी शहर में
अब धरना-प्रदर्शन नहीं होता
मंत्रालयों या विभागों के सामने
किसी मुआवजे को लेकर
किसी भीड़भाड़ वाली सड़क पर
अब झगडा-फसाद नहीं होता
चौक-चौराहे या नुक्कड़ पर
अपने अधिकार को लेकर
किसी भी मोहल्ले में
तो इसका मतलब यह कि सभी मांगे मान ली गई
तो इसका मतलब यह कि सभी जो मुआवजा मिल गया
तो इसका मतलब यह कि सभी ने अधिकार पा लिया
तो इसका मतलब यह कि सभी मुद्दे ही विलुप्त हो गए
नहीं दोस्त,
जिस परिवार, जिस समाज में
स्त्री की मांगें होती रहेंगी सूनी
वहां कौन-सी मांगे मानी जायेंगी
जिस समाज में, जिस परिवेश में
जनाजे निकलने की होगी जिद
समाज के तथाकथित ठेकेदारों को
वहां कैसे मिलेगा मुआवजा
जिस परिवेश में, जिस देश में
तमाम 'कारों' को लेकर
घुटती रहेंगी स्त्रियाँ, घुटती रहेंगे पुरूष
वहां किसे मिलेगा अधिकार
जिस देश में, जिस दुनिया में
'जाम' के लिए
लुटती रहेगी दुनिया
वहां कैसे सामने आएगा कोई मुद्दा
बहरहाल,
वह देश, देश नहीं
जहाँ मांगों को लेकर
मुआवजे को लेकर
अधिकार को लेकर
मुद्दे को लेकर
आवाज नहीं उठती
छायी रहती खामोशी
वह तो होता है मुर्दाघर.
3 comments:
पूरे देश में ऐसे मुर्दाघर बढ़ते जा रहे है...!आबादी बढती जा रही है,लेकिन उन में से जिन्दा कितने है कहना मुश्किल है..!चाहे कुछ हो जाये ये मुर्दे कोई शिकायत नहीं करते..
सवाल ठीक हैं, जवाब देते ही कविता नारेबाजी में बदलने लगी है. पहले हिस्से को पढते हुए पाश याद आते हैं, जिन्होंने हमारी मुर्दाशांति को लताडा था. खैर
रघुवीर सहाय की टोन में कहें तो.. लिखो लिखो जल्दी लिखो
vah
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