जिस कदर पूरे विश्व में भूखे लोगों की संख्या बढ़ रही है वह गंभीर मसला है। मंदी, रोजगार में कमी, बढ़ती महंगाई के साथ-साथ विभिन्न देशों की सरकार की अनदेखी और अंतरराष्ट्रीय संगठनों की अनदेखी ऐसे मामले हैं। जिस कारण वर्ष 2009 में एक अरब लोग भुखमरी की चपेट में हो सकते हैं। जबकि ठीक एक साल पहले 2008 में संयुक्त राष्ट्र के खाघ एवं कृषि संगठन (एफएआ॓) ने अनुमान लगाया था कि बेहतर वैश्विक खाघ आपूर्ति के कारण भुखमरी के शिकार लोगों में कमी आएगी और इनकी संख्या 96।3 करोड़ से घटकर 91।5 करोड़ हो जाएगी। लेकिन हुआ इसके उलट। हालात इस कदर बदतर हुए हैं कि हर छठा आदमी दाने-दाने के लिए मोहताज हा रहा है और इसके इस साल तक 11 फीसद तक बढ़ने के आसार हैं।
संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के मुताबिक, सबसे अधिक भुखमरी के शिकार लोग एशिया महाद्वीप में रहते हैं जहां 62।4 करोड़ लोग इसके शिकार हैं। इसके अलावा सहारा-अफ्रीकी महादेश में 26।5 करोड़, लैटिन अमेरिका के साथ कैरिबाई देशों में 5.3 करोड़ और मध्यपूर्व व उत्तरी अफ्रीका में 5.2 करोड़ लोगों के पास भोजन करने के लिए खाना नहीं है। गंभीर बात यह है कि विकसित देश के लोग भी भूखे रहने के लिए मजबूर हैं और रिपोर्ट के मुताबिक, इन देशों के करीब 1.5 करोड़ लोगों भूखे रह रहे हैं। ऐसा नहीं है कि दुनिया में खाघान्न की कमी के कारण लोग भुखमरी के शिकार हो रहे हैं बल्कि कम वेतन और रोजगारों की कमी के कारण दुनिया को इस समस्या का सामना करना पड़ रहा है।
वर्तमान में पिछले तीस साल के मुकाबले पूरा विश्व 17 फीसद अधिक कैलोरी से युक्त खाघ पदार्थों का उत्पादन करता है लेकिन इस काल में 70 फीसद आबादी की वृद्धि हुई है। यदि भुखमरी के मामले पर गौर करें तो 1980 की दशक से लेकर 1990 के पूर्वार्द्ध में काफी हद तक भुखमरी पर नियंत्रण रहा लेकिन कालांतर में खास कर पिछले एक दशक में स्थिति भयावह हो गई है। संभावना जताई जा रही है कि इस कारण पूरी दुनिया में शांति और सुरक्षा पर भी प्रश्नचिह्न खड़ा हो सकता है। खाघ पदार्थों के दामों में लगातार वृद्धि हो रही है। वर्ष 2008 के अंत तक दुनिया में खाघ पदार्थों के दामों में वर्ष 2006 के मुकाबले 24 फीसद की वृद्धि हुई है। और तो और गरीब लोग अपनी कमाई का 60 फीसद हिस्सा सिर्फ और सिर्फ खाने पर खर्च करते हैं। गौरतलब है कि कुपोषण के शिकार बच्चे साल में 160 दिन बीमार रहते हैं और करीब 50 लाख बच्चे मौत के आगोश में जाने के लिए विवश होते हैं। जहां तक विकासशील देशों की बात है तो वहां हर तीसरा बच्चा कुपोषण का शिकार है। भुखमरी के तमाम आंकड़े उस शताब्दी विकास लक्ष्य की धज्जियां उड़ाते हैं जो 2000 में रखे गए थे और जिसमें कहा गया था कि 2015 तक भुखमरी के शिकार लोगों में आधी फीसद की कमी आएगी। माना जा रहा है कि वैश्विक मंदी के दौर में सबसे अधिक शहरी गरीब प्रभावित हुए हैं, क्योंकि वे पूरी तरह से अपनी नौकरी के भरोसे ही परिवार का पेट पालते हैं। दुनिया के तमाम देशों में अधिकतर ऐसे लोग हैं जिनके पास न तो खाघ पदार्थ खरीदने के लिए पैसे हैं, न उपजाने के लिए जमीनें हैं और न ही उनके पास खाघ पदार्थ ही हैं।
सवाल उठता है कि पूरे विश्व के सामने जो समस्या उभर कर सामने आई है उससे निजात पाने का क्या उपाय है। क्या केवल योजनाएं बनाने से काम चल सकता है ? क्या सेमिनार आयोजित करने या रिपोर्ट जारी करने से काम चल सकता है? नहीं बल्कि वर्तमान दौर में जरूरत है दुनिया के तमाम देशों को एक मंच पर आकर भुखमरी और कुपोषण को लेकर गंभीर होने की और इससे मुक्ति पाने के उपाय ढूंढ़ने की क्योंकि जिस तरह यह समस्या अनुमान के विपरीत बढ़ रही है और इस पर गंभीरता नहीं बरती गई तो आने वाले समय में बच्चों, बूढ़ों के साथ-साथ महिलाएं जबर्दस्त तौर से प्रभावित होंगी। साथ ही साथ, समाज की शांति और सुरक्षा पर भी सवाल पैदा होगा क्योंकि खाघान्न का असमान वितरण लोगों के बीच आक्रोश पैदा करने के लिए काफी होगा और ऐसे में लोगों को ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ेगा कि वे शायद ही इसका अंदाजा लगा पाएं।
(यह आलेख एक जुलाई, २००९ को राष्ट्रीय सहारा में छपा है)
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