7/05/2009

सफलता, शटल, शायना

एक मध्यवर्गीय परिवार यदि अपनी आमदनी का आधे से अधिक भाग अपनी बेटी के खेल पर खर्च करे तो इसे पागलपन ही कहा जाए गा। वह भी उस खेल पर जिसके शटल के ‘चेप’ से सामने वाला खिलाड़ी तो चित्त होता ही है, उसकी कीमत से जेब तक खाली हो जाती है। लेकिन सायना नेहवाल के वैज्ञानिक पिता डॉ। हरवीर सिंह को अपनी बेटी पर विश्वास था और उसने भी अपने पिता के उस विश्वास को बनाए रखकर अपने परिवार का ही नहीं बल्कि देश का भी नाम रोशन किया।
सायना नेहवाल ने इंडोनेशियन सुपर सीरिज बैडमिंटन टूर्नामेंट के फाइनल में तीसरी वरीयता प्राप्त चीनी खिलाड़ी लिन विंग को हराकर इतिहास रच दिया। वह पहली भारतीय महिला बैडमिंटन खिलाड़ी है जिसने इंडोनेशिया आ॓पन जीत कर देश का परचम दुनिया में लहराया है। यही नहीं, वह पहली भारतीय खिलाड़ी हैं जो न सिर्फ आ॓लंपिक के सिंगल क्वार्टर फाइनल तक पहुंची बल्कि वर्ल्ड जूनियर बैडमिंटन चैंपियनशिप पर कब्जा भी जमाया। फिलहाल, विश्व वरीयता सूची में उसका स्थान सातवां है।
हरियाणा के हिसार में 17 मार्च, 1990 को जन्मी सायना की जिंदगी हैदराबाद में बीती। उनकी प्रतिभा को सबसे पहले बैडमिंटन कोच ए न। प्रसाद राव ने 1998 में पहचाना। राव ने सायना के पिता से अपनी बेटी को उनके ट्रेनिंग कैंप में लाने को कहा। बस यहीं से सायना के खेल के सफर की शुरूआत हो गई। उसके वैज्ञानिक पिता डॉ. हरवीर सिंह आठ साल की सायना को हर रोज सुबह छह बजे स्कूटर पर बिठाकर 20 किमी दूर ट्रेनिंग कैंप ले जाते। शाम को भी इतनी दूर छोड़ते और वापस लाते। बीच में सायना को स्कूल भी जाना होता। घर के लोगों का कहना है कि वह इतनी थक जाती थी कि स्कूटर पर ही उसे नींद आने लगती।
द्रोणाचार्य अवार्ड से सम्मानित ए स।ए म। आरिफ ने उन्हें बैडमिंटन की काफी बारीक ट्रेनिंग दी। फिलहाल वह इंडोनेशिया के बैडमिंटन कोच अतीक जहूरी से ट्रेनिंग ले रही हैं। ऐसा भी वक्त था जब उसके खेल में होने वाला खर्च यानी शटल, रैकेट, शू आदि में बारह हजार रूपए से अधिक होता था जो किसी भी मध्यवर्गीय परिवार के आय के आधे हिस्से से भी अधिक था। सायना के ट्रेनिंग में अधिक खर्च को देखते हुए उसके पिता ने अपनी बचत और पीएफ का पैसा निकाल लिया था। उनकी हालत तब तक खस्ताहाल रही जब तक कि 2002 में स्पोटर्स ब्रांड ‘योनेक्स’ ने सायना को किट स्पांसरशिप करने का प्रस्ताव दिया। जैसे ही उसकी रैंकिंग बढ़ी, स्पांसरशिप में जबर्दस्त इजाफा हुआ।
2004 में बीपीसीए ल ने पे-रोल पर इस चमकते सितारे को साइन किया और 2005 में मित्तल चैंपियंस ट्रस्ट ने इसका स्थान ले लिया। सायना ने तब इतिहास रच दिया जब ख्यातिप्राप्त ए शियन सैटेलाइट टूर्नामेंट (इंडियन चेप्टर) को दो बार जीता और ऐसा करने वाले पहली खिलाड़ी बनी। 2006 में सायना दुनिया के नजरों में तब आईं जब फोर स्टार फिलिपींस आ॓पन टूर्नामेंट जीतने वाली पहली भारतीय खिलाड़ी बनीं। पिता हरवीर सिंह कहते हैं, ‘बीते सात सालों से सायना न कभी किसी पार्टी में गई और न कभी किसी रेस्तरां में। उसने थियेटर में कभी कोई पूरी फिल्म भी नहीं देखी। और फादर्स डे पर उसका ए क मध्यवर्गीय परिवार यदि अपनी आमदनी का आधे से अधिक भाग अपनी बेटी के खेल पर खर्च करे तो इसे पागलपन ही कहा जाए गा। वह भी उस खेल पर जिसके शटल के ‘चेप’ से सामने वाला खिलाड़ी तो चित्त होता ही है, उसकी कीमत से जेब तक खाली हो जाती है। लेकिन सायना नेहवाल के वैज्ञानिक पिता डॉ। हरवीर सिंह को अपनी बेटी पर विश्वास था और उसने भी अपने पिता के उस विश्वास को बनाए रखकर अपने परिवार का ही नहीं बल्कि देश का भी नाम रोशन किया। सायना नेहवाल ने इंडोनेशियन सुपर सीरिज बैडमिंटन टूर्नामेंट के फाइनल में तीसरी वरीयता प्राप्त चीनी खिलाड़ी लिन विंग को हराकर इतिहास रच दिया। वह पहली भारतीय महिला बैडमिंटन खिलाड़ी हंै जिसने इंडोनेशिया आ॓पन जीत कर देश का परचम दुनिया में लहराया है। यही नहीं, वह पहली भारतीय खिलाड़ी हैं जो न सिर्फ आ॓लंपिक के सिंगल क्वार्टर फाइनल तक पहुंची बल्कि वर्ल्ड जूनियर बैडमिंटन चैंपियनशिप पर कब्जा भी जमाया। फिलहाल, विश्व वरीयता सूची में उसका स्थान सातवां है। हरियाणा के हिसार में 17 मार्च, 1990 को जन्मी सायना की जिंदगी हैदराबाद में बीती। उनकी प्रतिभा को सबसे पहले बैडमिंटन कोच ए न। प्रसाद राव ने 1998 में पहचाना। राव ने सायना के पिता से अपनी बेटी को उनके ट्रेनिंग कैंप में लाने को कहा। बस यहीं से सायना के खेल के सफर की शुरूआत हो गई। उसके वैज्ञानिक पिता डॉ। हरवीर सिंह आठ साल की सायना को हर रोज सुबह छह बजे स्कूटर पर बिठाकर 20 किमी दूर ट्रेनिंग कैंप ले जाते। शाम को भी इतनी दूर छोड़ते और वापस लाते। बीच में सायना को स्कूल भी जाना होता। घर के लोगों का कहना है कि वह इतनी थक जाती थी कि स्कूटर पर ही उसे नींद आने लगती। द्रोणाचार्य अवार्ड से सम्मानित ए स।ए म। आरिफ ने उन्हें बैडमिंटन की काफी बारीक ट्रेनिंग दी। फिलहाल वह इंडोनेशिया के बैडमिंटन कोच अतीक जहूरी से ट्रेनिंग ले रही हैं। ए ेसा भी वक्त था जब उसके खेल में होने वाला खर्च यानी शटल, रैकेट, शू आदि में बारह हजार रूपए से अधिक होता था जो किसी भी मध्यवर्गीय परिवार के आय के आधे हिस्से से भी अधिक था। सायना के ट्रेनिंग में अधिक खर्च को देखते हुए उसके पिता ने अपनी बचत और पीए फ का पैसा निकाल लिया था। उनकी हालत तब तक खस्ताहाल रही जब तक कि 2002 में स्पोटर्स ब्रांड ‘योनेक्स’ ने सायना को किट स्पांसरशिप करने का प्रस्ताव दिया। जैसे ही उसकी रैंकिंग बढ़ी, स्पांसरशिप में जबर्दस्त इजाफा हुआ। 2004 में बीपीसीए ल ने पे-रोल पर इस चमकते सितारे को साइन किया और 2005 में मित्तल चैंपियंस ट्रस्ट ने इसका स्थान ले लिया। सायना ने तब इतिहास रच दिया जब ख्यातिप्राप्त ए शियन सैटेलाइट टूर्नामेंट (इंडियन चेप्टर) को दो बार जीता और ऐसा करने वाले पहली खिलाड़ी बनी। 2006 में सायना दुनिया के नजरों में तब आईं जब फोर स्टार फिलिपींस आ॓पन टूर्नामेंट जीतने वाली पहली भारतीय खिलाड़ी बनीं। पिता हरवीर सिंह कहते हैं, ‘बीते सात सालों से सायना न कभी किसी पार्टी में गई और न कभी किसी रेस्तरां में। उसने थियेटर में कभी कोई पूरी फिल्म भी नहीं देखी। और फादर्स डे पर उसका इंडोनेशियन सुपर सीरीज बैडमिंटन टूर्नामेंट जीतना मेरे लिए सबसे बड़ा तोहफा है।'
(यह आलेख राष्ट्रीय सहारा में छपा है)

1 comment:

अनिल कान्त said...

जब विश्वास किया जाता है और बनाये रखा जाता है तभी सफलता मिलती है ...अच्छा आलेख