8/29/2009

सामाजिक कार्यों में रूचि : राजश्री बिड़ला

बिरला खानदान की पहली स्नातक बहू राजश्री बिड़ला को सामाजिक कार्यों को चलते राजीव गाँधी अवार्ड दिया गया है। मंदिरों के शहर मदुरै के एक सामान्य मारवाडी परिवार में जन्मी राजश्री आज आदित्य बिरला ग्रुप की सभी कंपनियों की बोर्ड डायरेक्टर हैं। साथ ही, आदित्य बिरला सेंटर फॉर कम्युनिटी इनिसियेतिव्स एंड रुरल डेवलपमेंट की चेयरपर्सन भी है।
सामाजिक कार्यों में रूचि राजश्री बिरला को बचपन से ही रहा है लेकिन करीब तीन दशक पहले अपने पति के साथ उसने गंभीर रूप से इस क्षेत्र में आई। उनका मानना है की कारपोरेट घराने को सामाजिक कार्यों को बढाया देने के साथ-साथ उसमें आर्थिक सहायता भी करनी चाहिए तभी आम लोगों की जिन्दगी में जबरदस्त बदलाव आएगा। वह हर साल करीब पचास विधवाओं का पुनर्विवाह कराती है। शुरूआती शिक्षा मदुरै में ग्रहण करने वाली राजश्री ने उच्च शिक्षा लोरेंट कालेज, कोलकाता से हासिल की और फिर बिरला खंडन की बहू बनकर कोलकाता की ही बनकर रह गई।
यदि तुम किसी भूखे आदमी को एक दिन खाने के लिए मछली दोगे तो वह खा लेगा और दूसरे दिन फिर भूखा रहेगा और यदि उसके बदले तुमने उसे मछली पलने के लिए सिखा दिया तो वह जिन्दगी भर कभी भूखा नहीं रहेगा।
उन्हें संगीत से भी लगाव है और इस कारण हर साल भारतीय शास्त्रीय संगीत के फनकारों को सम्मानित करती है। वह संगीत कला केंद्र की अध्यक्ष भी हैं जिसे उनके पति आदित्य बिरला ने १९७३ में शुरू किया था। १९९६ में आदित्य विक्रम बिरला कलाश्री पुरस्कार के स्थापना की है। पढने और फिल्म देखने में रूचि रखने वाली राजश्री खासकर सेल्फ इम्प्रूवमेंट से सम्बंधित किताबों को काफी पसंद करती है. साथ ही घूमना-फिरना उन्हें काफी पसंद है.
उनके नजदीक रहने वालों लोगों का कहना है की उन्होंने शायद ही राजश्री को गुस्से में देखा होगा। हालाँकि जब भी वह तनाव में आती है वह संगीत के जरिये उस पर नियंत्रण करती है. यहाँ तक की जब वे सोती हैं तो पार्श्व में हल्का संगीत बजते रहता है. करिश्माई मुस्कान की धनी राजश्री को सामाजिक कार्यों से आत्मसंतुष्टि मिलती है। वे अक्सर कहती हैं कि यदि तुम किसी भूखे आदमी को एक दिन खाने के लिए मछली दोगे तो वह खा लेगा और दूसरे दिन फिर भूखा रहेगा और यदि उसके बदले तुमने उसे मछली पलने के लिए सिखा दिया तो वह जिन्दगी भर कभी भूखा नहीं रहेगा।
विनीत उत्पल

8/28/2009

चीनी नीयत संदिग्ध

चीन जिस कदर मीडिया और अपने थिंक टैंक को भारत विरोधी अभियान में लगा रखा है, इसके प्रति भारत को सचेत होना होगा। लोगों से बातचीत के साथ-साथ खास इंटरव्यू कर चीन लगातार अंग्रेजी भाषा में मीडिया की सहायता से भारत विरोधी बयान देने की कोशिश कर रहा है। जहां पूरा विश्व शांति को लेकर एक-दूसरे देशों के साथ हाथ मिला रहा है वहीं चीन भारत के साथ कूटनीतिक लड़ाई लड़ रहा है। यह बात सही है कि भारत को चीन के साथ विभिन्न मुद्दों को लेकर बातचीत जारी रखनी चाहिए लेकिन उन्हें चीन की नियत पर आंखें मूंदें नहीं रहनी चाहिए। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि उसका यह रवैया काफी अरसे से है लेकिन भारत-चीन समझौते और भारत-अमेरिकी समझौते के बाद भारत विरोधी मामले में उसने तेजी लाई है।
सुजीत दत्ता
सेंटर फॉर पीस एंड कांफ्लिक्ट रिजोल्यूशन
जामिया मिल्लिया
इस्लामिया, नई दिल्ली

पिछले दिनों इंटरनेट के जरिए चीन के थिंक टैंक ने भारत को तोड़कर छोटे-छोटे टुकड़ों को बांटने की बात कही, वह काफी खतरनाक है। चीनी की सरकारी मीडिया लगातार भारत विरोधी अभियान में शामिल रहा है और अब इस मामले में वहां के थिंक टैंक को भी शामिल किया जा रहा है। इसमे पीछे चीन का उद्देश्य भारत, चीन सहित दुनिया के तमाम देशों की सोच को बरगलाना है जिससे चीन के पक्ष में हवा का रूख किया जा सके। यह बात गौरतलब है कि इस तरह के मामले सामने आने के बाद चीन लगातार मामले का खंडन करता है लेकिन उस पर रोक लगाने को लेकर कोई कदम नहीं उठाता है। स्वतंत्रता से लेकर आज तक के इतिहास को पलटें तो चीन लगातार भारत के विरोध में बयान देता रहा है। विश्व के वर्तमान हालत ऐसे हैं और 1962 की लड़ाई के बाद फिलहाल चीन भारत के साथ युद्ध करने की स्थिति में नहीं है। लेकिन कूटनीतिक चाल चलने से उसे कौन रोकेगा?
1993 में चीनी राष्ट्रपति ज्योंग जेनिन के भारत आने पर आपसी विश्वास बढ़ाने के
साथ-साथ एक दूसरे के खिलाफ सैनिक कार्रवाई न करने को लेकर समझौता हुआ था। लेकिन इसके बाद से चीन लगातार सेना का दवाब भारत पर बनाए हुए है।

2003 में जब भारतीय प्रधानमंत्री चीन अटल बिहारी वाजपेयी चीन गए थे तो उस वक्त साझा समझौते पर दस्तखत किया गया था। इसके बाद से दोनों देशों के बीच व्यापार में काफी बढ़ोत्तरी हुई है। यही वह वक्त था जब नाथुला दर्रा को खोला गया था और अरबों का व्यापार दोनों देशों के बीच हुआ था। लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि इस व्यापार में भारत के मुकाबले चीन को काफी फायदा हो रहा है। भारत में चीन में निर्मित विभिन्न सामानों की बिक्री जबर्दस्त है। चीनी कंपनियों का कारोबार हजारों करोड़ों का है। भारत के बाजारों में चीनी उत्पादों के सस्ते होने के कारण जबर्दस्त मांग है जबकि भारत किसी भी हद तक उससे प्रतिस्पर्धा करने में नाकाम साबित हो रहा है। दोनों देशों के बीच व्यापार के मामले में सबसे खास बात यह है कि भारत ने कुल 17 विभिन्न प्रोडक्टों को चीन में बेचने की बात थी लेकिन चीन ने सिर्फ तीन में हामी भरी है।
1993 में चीनी राष्ट्रपति ज्योंग जेनिन के भारत आने पर आपसी विश्वास बढ़ाने के साथ-साथ एक दूसरे के खिलाफ सैनिक कार्रवाई न करने को लेकर समझौता हुआ था। लेकिन इसके बाद से चीन लगातार सेना का दवाब भारत पर बनाए हुए है। तिब्बत में भी लगातार दबाव बनाए हुए है। भारत-चीन संबंधों को लेकर एक बात और गौर करने की है कि जबसे भारत अमेरिका के नजदीक आया है, वह चीन की आंखों की किरकिरी बना हुआ है। खास कर न्यूक्लियर डील के बाद उसने काफी कड़ा रूख अपनाया है और वह लगातार आर्थिक मोर्चे के साथ-साथ सामरिक मोर्चे पर भारत को चुनौती देता आ रहा है। कभी तिब्बत को लेकर तो कभी अरुणाचल प्रदेश से लगने वाली सीमा को अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भी उछालता रहा है।
हालांकि 2008 में भारतीय प्रधानमंत्री डॉ। मनमोहन सिंह की चीन यात्रा के दौरान वाणिज्य, व्यापार सहित तमाम मामलों पर दोनों देशों के बीच समझौते हुए। इससे अंदाजा लगाया जा रहा था कि दोनों देशों के बीच संबंध मधुर होंगे लेकिन इस बीच इंटरनेट पर भारत के टुकड़े-टुकड़े करने वाले लेख से चीन की भूमिका संदिग्ध लग रही है। ऐसे में भारत को चाहिए कि वह भी हर मोर्चे पर कड़ा रूख अपनाए। शांति को लेकर चीन का उतना ही दायित्व है जितना भारत का। पिछले चार-पांच सालों से मीडिया के साथ-साथ वहां की सरकार की जो भागीदारी रही है, इस मामले में भारत को अवश्य विचार करना चाहिए। इसके लिए चीन के साथ लगातार बातचीत जारी रखनी होगी। साथी ही भारत को दीर्घयामी योजना पर अमल करने की जरूरत है जिससे भविष्य में किसी भी तरह के संकट का सामना न करना पड़े।
प्रस्तुति : विनीत उत्पल
(राष्ट्रीय सहारा से साभार)

8/20/2009

औरों जैसी ही है शिखा शर्मा

जब पूरा विश्व मंदी के दौर से जूझ रहा हो ऐसे में किसी कर्मचारी को दो करोड़ रुपए सालाना वेतन मिलना मायने रखता है। भारतीय प्रबंधन संस्थान, अहमदाबाद से एमबीए की डिग्री हासिल करने वाली शिखा शर्मा को एक्सिस बैंक ने इस वेतन पर बतौर एमडी व सीईओ नियुक्त किया है। उसे वेतन के अलावा 51 लाख रुपए लोन की भी सुविधा के साथ शानदार घर, दफ्तर सहित तमाम सुविधाएं मुहैया कराई गई हैं। बीए करने के बाद नेशनल सेंटर फॉर साफ्टवेयर टेक्नोलॉजी, मुंबई से पीजी डिप्लोमा करने वाली शिखा पिछले 28 सालों से आईसीआईसीआई को सेवा दे रही थीं।
अधिक व्यस्त रहने के बावजूद उसे शायद ही लोगों ने कभी दवाब में देखा है। वह कूटनीतिक तौर से विचार करती है और उस पर अमल भी करती है जो नेतृत्व करने वाले लोगों में काफी कम देखने को मिलती है।

खूबसूरत साड़ियों की मालकिन शिखा रोमांटिक उपन्यास पढ़ना पसंद करती हैं और शास्त्रीय गायिका भी हैं। उनके साथ काम करने वाले लोगों का मानना है कि इतने अधिक व्यस्त रहने के बावजूद उसे शायद ही लोगों ने कभी दवाब में देखा है। वह कूटनीतिक तौर से विचार करती है और उस पर अमल भी करती है जो नेतृत्व करने वाले लोगों में काफी कम देखने को मिलती है। उसके साथ काम करने वाले मानते हैं कि वह बड़ी टीम को नेतृत्व देने में के साथ-साथ लोगों को मोटिवेट करने के सक्षम है। अपनी भारी व्यस्तताओं के कारण अपने मनपसंद उपन्यास पढ़ने में काफी कम समय दे पाती है क्योंकि वह अपने परिवार के साथ फिल्में देखना नहीं भूलतीं।
एक्सिस बैंक में उसकी नई भूमिका के कारण माना जा रहा है कि खाली समय मिलने पर वह जहां भारतीय शास्त्रीय संगीत की ओर लौटेगी, वहीं अपने एकमात्र बेटे-बेटी को गायन की शिक्षा भी देगी। शिखा कहती हैं, "मैं खुद पर विश्वास करती हूं। अनिवार्य तौर से खुद के लिए एक विजन होना चाहिए जो संस्थान के भी पार हो। मेरा हर कदम नई समझ के लिए खुला है जो पूरी तरह पारदर्शी है। हम ऐसी दुनिया में जी रहे हैं जहां लगातार बदलाव हो रहा है। मैं सोचती हूं कि ऐसे में सीखने का शौक, प्रयोग और रिस्क लेने की क्षमता ही सफलता दिला सकती है।' किसी भी कंपनी में इस ओहदे तक पहुंचने और बरकरार रखने के साथ काम के दवाब को लेकर कहती हैं कि अपने काम को प्राथमिकता देने के बावजूद अपने काम और परिवार के बीच सामंजस्य बनाए रखती है। यही कारण है कि छुट्टियां में जहां अपने परिवार के साथ पर्याप्त समय देती है जिससे वह खुद को रीचार्च करती है।
शिखा ऐसे परिवार से ताल्लुक रखती है जहां सभी एक छत के नीचे प्यार और खुशी से रहते हैं। वह कहती हैं कि उसके पति भी सीईओ हैं लेकिन दोनों के इतने व्यस्त रहने के बावजूद हमलोग समय मिलने पर एक परिवार की तरह एक साथ समय बिताते हैं। उनका रवैया मेरे करियर को लेकर हमेशा सहयोगात्मक रहा है और वह हमेशा ही मेरे ताकत रहे हैं। शिखा के दिन की शुरुआत भी और महिलाओं की तरह होती है और वह सुबह का समय अपने परिवार के साथ बिताने में काफी सकून महसूस करती हैं। लेकिन आफिस आने से लेकर देर शाम घर पहुंचने तक कामों के बीच ही घिरी रहती है। वह बताती है कि घर के काम को लेकर भी जिम्मेदारी बंटी हुई है। यही कारण है कि अपने परिवार के साथ पर्याप्त समय गुजार पाने में सक्षम होती हैं।

8/18/2009

शब्दचित्रों में सदियों का स्त्री-दर्द

वर्तमान सामाजिक परिवेश में एक स्त्री की मजबूरी, छटपटाहट, अंतर्द्वंद के साथ जीने और विपरीत परिस्थितियों को सहने के बावजूद इसकी आहट किसी को न लगने देना ही क्षमा शर्मा की कहानी का यथार्थ है। यह एहसास बिना किसी हो-हल्ला के एक स्त्री के अन्दर उठ रहे बवंडर के बारीक़ शब्दचित्रों से रूबरू उनकी कहानियों को पढने के दौरान होता है। क्षमा शर्मा का कहानी संग्रह 'रास्ता छोड़ो डार्लिंग' में संकलित कहानियाँ सामाजिक ताने-बाने में आम आदमी के रोजमर्रा के जीवन में घटने वाली घटनाओं का दस्तावेज है। ये कहानियाँ सदी के एक चौथाई समय की कहानियाँ हैं, जिसमें १९८४ में लिखी गई कहानी 'कस्बे की लड़की ' से लेकर २००६ में लिखी गई कहानी 'रसोई घर' तक शामिल है।


इतने सालों में गाँव छोटे शहरों में, छोटे शहर नगरों में, नगर महानगरों में और
महानगर मेट्रो में तब्दील हो गए लेकिन नही बदला तो एक स्त्री का दर्द, जो सदियों से
वे चुपचाप सहती जा रही हैं।

कहानी संग्रह की हरेक कहानी गांवों,कस्बों और छोटे शहरों से निकलकर मेट्रो सिटी में रोजमर्रा घटने वाली घटनाओं के साथ आम व्यक्ति या स्त्री की उलझनें, समस्याएँ, आकाँक्षाओं, उधेड़बुन के साथ-साथ उनके सपनों को बयान करती है। अधिकतर कहानियों में एक औरत की जिन्दगी के खालीपन और मन में उतरने वाली तरंगों की छाप साफ-साफ दिकती है। वक्त जिन्दगी की परतों को इतनी निर्ममता से उधेड़ता है कि सिवाय छटपटाने के कोई चारा नहीं बचता। संग्रह की कहानी 'बयां ' में शहर की जीवंतता चाहे गली-मोहल्ले की सड़क हो या सिनेमा हाल की या टिकट खिड़की की-सभी बातें उकेरी गई हैं। साथ ही, किस कदर एक युवती या स्त्री को जीवन की हर सीढ़ी पर सतर्क रहना पड़ता है और शहर छोड़ दूसरे शहर में बस जाने पर कैसे एक टीस-सी उठती है, इससे भी पाठक अवगत होता है।

'पिता' कहानी में एक लड़की के दिलोदिमाग में अपने पिता की कल्पना और भावुक मन के वेदना है, जिसमें अपने शहर की याद के साथ-साथ अपने घर की याद भी उसे आती है। औरतों को इस पुरूष प्रधान समाज में किस कदर सुनना और सहना पड़ता है और आख़िर पलायन ही एक मात्र विकल्प दीखता है, इससे जूझती पटकथा 'जिन्न' है। कहानी 'कौन है जो रोता है' में जहांआराऔर उनकी माँ के जरिये एक स्त्री की वेदना को बखूबी दर्शाया गया है। कहानी 'दादी माँ का बटुआ' भ्रूण हत्या और मादा भ्रूण हत्या करने वालों के चेहरे पर जोरदार थप्पड़ है। संग्रह की कहानियाँ 'कैसी हो सुष्मिता', 'घर-घर', 'बिंदास', 'एक शहर अजनबी', 'रास्ता छोड़ो डार्लिंग', 'कस्बे की लड़की', 'ढाई आखर', 'एक है सुमन', 'चार अक्षर', 'मंडी हॉउस' आदि भी रोचक हैं, जिसमें समाज का सच और स्त्री का दर्द है।

क्षमा की कहानियाँ एक चौथाई सदी के पटल पर लिखी गई है, जबकि इतने सालों में गाँव छोटे शहरों में, छोटे शहर नगरों में, नगर महानगरों में और महानगर मेट्रो में तब्दील हो गए लेकिन नही बदला तो एक स्त्री का दर्द, जो सदियों से वे चुपचाप सहती जा रही हैं। मजबूरी, बेबसी और छटपटाहट के घुलते-पनपते वाली इस स्त्री संसार को क्षमा बखूबी अपनी सवेदनशील आखों से पहचानती है। संग्रह की कहानियों को पढ़ते वक्त एक बात अवश्य दिमाग में कौंधती है कि क्षमा ताकत और पैसे पर टिके समाज की परतों को बड़ी हुनरमंदी के साथ उघाड़ती तो है और कई बार कहानी कुछ ऐसा मासूम-सा सवाल पेश कर ख़तम हो जाती है जिसका उत्तर मासूमियत से देना सम्भव नही होता, लेकिन उससे बाहर निकलने का उपाय क्या है। जबकि कहानी एक तब्दीली की मांग करती है और यह तब्दीली वास्तविक जगत में भी हो सकता है।

बर्तोल्ख ब्रेख्त कहते हैं कि वह देश अभागा है जिसे नायकों कि जरूरत होती है। शायद यही सोच क्षमा शर्मा की भी है क्योंकि इनकी अधिकतर कहानियों में पात्र तो हैं लेकिन नायक एक भी नही है। इसके उलट सामाजिक सरोकारों में शामिल घर, मकान, सड़क, गलियां सभी इनकी कहानियों के नायक हैं लेकिन नही है तो एक अदद पात्र। यही क्षमा की कहानियों कि विशेषता है और लेखन शैली की भी।

8/15/2009

जी, आज हम स्वतंत्र हैं

जी, आज हम स्वतंत्र हैं
कुछ भी सोचने के लिए
कुछ भी मानने के लिए
कुछ भी करने के लिए
कुछ भी नहीं करने के लिए
आखिर देश स्वतंत्र हो चुका है

जी, आज हम स्वतंत्र हैं
कभी भी जागने के लिए
कभी भी सोने के लिए
कभी भी खाने के लिए
कभी भी पीने के लिए
आखिर देश स्वतंत्र हो चुका है

जी, आज हम स्वतंत्र हैं
किसी से प्यार का नाटक करने के लिए
किसी को झांसे में रख काम निकालने के लिए
किसी को दिन-दहाड़े धोखा देने के लिए
किसी के साथ फालतू का झगडा करने के लिए
आखिर देश स्वतंत्र हो चुका है

जी, आज हम स्वतंत्र हैं
कभी भी झूठ बोलने के लिए
कभी भी किसी का टांग खींचने के लिए
कभी भी किसी को जलील करने के लिए
कभी भी किसी को जिन्दा मरते देखने के लिए
आखिर देश स्वतंत्र हो चुका है

जी, आज हम स्वतंत्र हैं
किसी भी परम्पराओं को नहीं मानने के लिए
किसी भी रीति-रिवाजों को ढकोसला कहने कि लिए
किसी भी पुरुष का पुरुष से और स्त्री का स्त्री से सम्बन्ध बनाने के लिए
किसी भी संस्कार तो न मानने या न पालन न करने के लिए
आखिर देश स्वतंत्र हो चुका है

जी, आज हम स्वतंत्र हैं
जितना बिगड़ सकते हैं बिगड़ने के लिए
जितना कमीना हो सकते हैं कमीना बनने के लिए
जितनी अश्लीलता हो सकती है उतना अश्लील होने के लिए
जितने के साथ हमबिस्तर हो सकते हैं उतने के साथ हमबिस्तर होने के लिए
आखिर देश स्वतंत्र हो चुका है

जी, हम स्वतंत्र हैं, देश स्वतंत्र है
क्योंकि यह स्वतंत्रता मिली है
जीवन-मूल्यों, आदर्शों, नैतिकताओं को बलि चढाने के लिए
न कि उसे और पुख्ता करने के लिए
जैसा हमारे समाज में हो रहा है
और इसका परिणाम देश भुगत रहा है.

8/12/2009

निरूपमा का जवाब नहीं

1973 में बतौर भारतीय विदेश सेवा में प्रवेश करने वाली निरूपमा राव देश की ऐसी दूसरी महिला हैं, जो विदेश सचिव बनी। इससे पहले चोकिला अय्यर इस पद को सुशोभित कर चुकी हैं। केरल के मलापुरम जिले से ताल्लुकात रखने वाली निरूपमा की प्राथमिक शिक्षा बेंगलुरू, पुणे, लखनऊ और कुन्नूर में हुई। सेना अधिकारी की बेटी होने के कारण उन्हें बचपन से ही देश के विभिन्न भागों को देखने और समझने का मौका मिला। उन्होंने अंग्रेजी साहित्य में मराठवाडा विश्वविघालय से स्नातकोत्तर की डिग्री हासिल की है। अभी तक दक्षिण अफ्रीका, जिम्बाब्वे, नेपाल, श्रीलंका और चीन में अपनी सेवाएं दे चुकीं निरूपमा में शुरूआती दिनों से ही रचनात्मकता क्षमता विघमान थी। कॉलेज के दिनों में वह गाना भी गाती थीं।

गाना गाने के साथ ही गिटार और पियानो बजाने वाली निरुपमा कविता और कहानी भी लिखती हैं,वे ज्वेलरी की शौकीन तो हैं ही उनका ड्रेसिंग सेंस भी गजब का है
वह महज अधिकारी ही नहीं बल्कि बहुआयामी व्यक्तित्व की मालकिन भी हैं। संगीत के अलावा कविता और कहानी लिखने में रूचि रखने वाली निरूपमा गिटार और पियानो भी अच्छा बजाती हैं। वह पश्चिमी शास्त्रीय संगीत में भी दक्ष हैं तो परंपरागत हिन्दुस्तानी और कर्नाटक संगीत में उनकी निपुणता देखते ही बनती है। इतनी व्यस्तता के बावजूद वह लिखना-पढ़ना नहीं छोड़ती। सामान्य कद-काठी वाली निरूपमा की नोटबुक अभी भी कविताओं से भरी रहती हैं। उनकी कविता संग्रह ‘रेन राइजिंग’ 2004 में प्रकाशित हुई, जब वह श्रीलंका में पदस्थापित थीं। उनकी कुछ कविताओं का अनुवाद हाल ही में चीनी भाषा में किया गया है।
अपने साथियों के बीच वह अच्छे ड्रेसिंग सेंस के लिए भी जानी जाती हैं। उनके पास ज्वेलरी का बेहतरीन कलेक्शन है। उनके पति सुधाकर राव कर्नाटक के मुख्य सचिव हैं, कहते हैं कि उनकी सबसे बड़ी विशेषता काम के प्रति समर्पण है। जब वह कुछ करने की ठान लेती हैं तो कोई उनका ध्यान भटका नहीं सकता। वह बताते हैं कि 2008 में मेरे मुख्य सचिव बनने के बाद हमारी मुलाकातें काफी काम हो रही हैं। उनके अक्टूबर 2006 में बीजिंग में पद संभालने से लेकर विदेश सचिव बनने तक सिर्फ एक बार मुलाकात हो सकी है। वह बताते हैं कि उसे या मुझे जब भी मौका मिलता है तो फोन पर बात जरूर होती है और वह बेटों को जरूर फोन करती है।
लोकसभा की पहली महिला अध्यक्ष मीरा कुमार और निरूपमा राव एक ही बैच में भारतीय विदेश सेवा के लिए चुनी गईं थीं, जिसमें निरूपमा राव ने टॉप किया था। दो बेटों की मां निरूपमा को 21 साल की उम्र में विदेश सेवा से जुड़ने वाली व विदेश मंत्रालय की पहली महिला होने का गौरव हासिल है। चीन में राजदूत बनने से पहले बतौर प्रवक्ता दुनिया को खरी-खरी सुनाने के लिए मशहूर रही हैं। वह श्रीलंका की उच्चायुक्त और पेरू में देश की राजदूत रह चुकी हैं। वह मास्को स्थित भारतीय मिशन में भी काम कर चुकी हैं। विदेश मंत्रालय में पूर्वी एशिया मामलों की संयुक्त सचिव भी रह चुकी हैं।

विवादों की हिंदी अकादमी : विनीत उत्पल

जब साहित्य पर राजनीति और नौकरशाही हावी हो जाती है तो रचनात्मकता के लिए जगह की गुंजाइश कम हो जाती है। ऐसे में बहुतेरे विवाद इस कदर घुलमिल जाते हैं कि उनको अलग करना काफी कठिन होता है। कभी पद को लेकर बवाल उठ खड़ा होता है तो कभी पुरस्कार व सम्मान देने के निर्णय को चुनौती का सामना करना पड़ता है. लोकप्रिय और गंभीर लेखन और इससे इतर भी सवालिया निशान लगाए जाने लगते हैं। इस बीच हिन्दी अकादमी को लेकर जिस कदर कई मामले चाहे- अशोक चक्रधर को उपाध्यक्ष बनाने का हो या अकादमी की स्वायत्तता के साथ-साथ शलाका सम्मान को लेकर बवाल, काफी गंभीर हैं और अकादमी की छवि पर सवाल भी।
हिन्दी अकादमी के इतिहास में पहली बार किसी लोकप्रिय लेखक को उपाध्यक्ष के पद के लिए दिल्ली सरकार ने मनोनीत किया और इसके साथ ही लोकप्रिय साहित्य और गंभीर साहित्य को लेकर विवाद खड़ा हो गया। यह लोकतंत्र की विडंबना ही है कि जो लेखन लोक से जितना दूर रहता है वह उतना ही गंभीर कहलाता है और हास्य-व्यंग्य से जुड़े साहित्यकारों को ‘विदूषक’ कहा जाता है। जैसा कि अशोक चक्रधर के मामले में हुआ।
शलाका सम्मान को लेकर भी अकादमी की कार्यकारिणी से लेकर संचालन समिति तक कई सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया। जिस कदर कृष्ण बलदेव वैघ को श्लाका सम्मान देने को लेकर डॉ. नित्यानंद तिवारी से लेकर डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी तक ने इस्तीफा दिया, वह अकादमी के भविष्य पर सवाल खड़ा करता है। ए क नेता के पत्र लिखने पर कि वैघ अश्लील लेखन करते हैं, वास्तव में साहित्यिक दिवालियापन ही माना जाए गा। क्योंकि इससे काफी हद तक साहित्य पर राजनीति के हावी होने की बू आती है।
अकादमी के 28 साल के इतिहास में यह पहली घटना है जब किसी सचिव के सामने इतनी विकट परिस्थिति आ गई कि उन्होंने अपने कार्यकाल से पहले ही इस्तीफा देना उचित समझा। पुरस्कार या सम्मान मिलना ए क अलग मसला है और रचनात्मक क्षमता के साथ भविष्वदृष्टा होना अलग मसला। गलती कहीं भी किसी से भी हुई हो गलती स्वीकार कर क्षमा मांगने से किसी का कद छोटा नहीं हो जाता। निर्णय पर पुनर्विचार करने की गुंजाइश हमेशा बनी रहती है।
‘नृप होई कोऊ हमें का हानी’ वाली बात साहित्य को याद रखने की जरूरत है। हिन्दी साहित्य का दायरा काफी व्यापक है। इस पर लगातार तकनीक और सूचना का दबाव है। साथ ही राजनीति की रोटी भी इसके सहारे जमकर सेंकी जाती रही है और जाती है। लेकिन साहित्यकार चाहे वह किसी भी सोच व समझ के हों, उन्हें बौद्धिक लड़ाई के लिए तैयार होना होगा। हिटलरशाही की जगह लोकतंत्र में विश्वास करना होगा और एक मंच पर बैठकर अपनी बातों को रखने का साहस भी जुटाना होगा। इस्तीफे देना या लेना, पुरस्कार या सम्मान देना या न देना, पद मिलना या न मिलना इतनी तुच्छ बातें हैं जिसका तत्कालीन संदर्भ में मायने तो होता है लेकिन कालजयी तो रचना और रचना प्रक्रिया से आए तत्व ही होते हैं।

आलोचना ही नहीं आत्मलोचना भी हो : अशोक चक्रधर
हित स्वार्थगत, परमार्थिक, अथवा परम आर्थिक कारणों से जब भी कोई विवाद जन्म लेता है तो किसी निरीह अथवा समर्थ की बलि लेना चाहता है। मुझे लगता है कि अंतरंग कारण कुछ और हैं, निशाना मुझे बना दिया गया। निजी तौर पर मेरा भारी अहित हुआ है, जिसकी भरपाई नहीं हो सकती। हिंदी अकादमी के उपाध्यक्ष का पद मानद है, आर्थिक लाभ का नहीं। इसके लिए कोई वेतन नहीं होता। क्रियान्वयन की जिम्मेदारी का पद सचिव का है। उपाध्यक्ष का काम होता है दिशा-निर्देश और परामर्श देना। पुरस्कारों को लेकर जो विवाद हैं वे मेरे आने से पहले के हैं। इन दिनों आगामी कार्यक्रमों की रूपरेखा बन रही है। अभी तो मैं चीजों को समझने की प्रक्रिया में हूं। मेरी कार्यशैली पर अनावश्यक कयास लगाए जा रहे हैं।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर व्यापक हिन्दी-प्रेमी समाज और मेरे देशवासी विभिन्न संचार माध्यमों के कारण, अनगिन छात्र विभिन्न विश्वविघालयों में मेरी अध्यापकीय सक्रियता के कारण, हिन्दी के भविष्य की चिंता रखने वाले मेरे कम्प्यूटर-कर्म के कारण, कुछ दर्शक मेरी अभिनय-प्रस्तुति और फिल्म-लेखन-निर्देशन-कार्यों के कारण, दशकों से मुझे प्यार करते हैं। यह प्रेम मेरी पूंजी है। लेकिन कुछ हैं जो केवल ‘हास्य कवि’ कहकर ए कांगी छवि बनाना चाहते हैं। ‘हास्य-कवि’ कहते हुए उनके मन में कोई सम्मान नहीं होता। वे हास्य और व्यंग्य को दोयम दर्जे का मानते है। लोकप्रियता क्योंकि उनके हिस्से में नहीं आ सकी, इसलिए उससे नफरत करते हैं।
जनतंत्र सभी को बोलने का अधिकार देता है, साथ ही कर्तव्यों का बोध भी कराता है। मैं मानता हूं कि विवादों को विमर्श की दिशा में मुड़ना चाहिए । करिए , विमर्श करिए कि साहित्य क्या है? कविता क्या है? उसकी कितनी धाराए ं हैं? हर धारा में गंभीर और अगंभीर तत्व होते हैं, उनकी पहचान कैसे की जाए ? किसी संस्था के उद्देश्य क्या हैं? हिन्दी अकादमी का कार्य क्या केवल साहित्य का पोषण है या हिन्दी भाषा के विकास और प्रचार-प्रसार से भी उसका कुछ लेना-देना है? साहित्य लोकप्रिय भी होता है और शास्त्रीय भी। जनता की भाषा को लेकर शास्त्रीय लोग हमेशा ही कुपित होते रहे हैं। वे लोकप्रिय साहित्यकार को गंभीर मानते ही नहीं। मैं पूछता हूं कि क्या लोकप्रिय साहित्य गंभीर साहित्य नहीं है? और क्या सारा कथित गंभीर साहित्य सचमुच गंभीर है? साहित्य का आकलन विचार-चिंतन और जीवन-मूल्यों के आधार पर किया जाना चाहिए । देखना चाहिए कि किसका साहित्य समाज को बीमार बनाता है और किसका स्वस्थ। हंसी तो स्वास्थ्य की निशानी है। हिंदी अकादमी के उपाध्यक्ष के तौर पर मैं हिन्दी सेवियों को साथ लेकर चलना चाहता हूं। इसलिए धैर्य न खोए ं, काम करने दें, उतावली न करें। अपमान की भाषा अच्छी नहीं होती है। आलोचना करने वाले आत्मालोचना भी करें। सभी पक्षों को जाने बिना निर्णायक न बनें। मैंने साहित्य का गहन अध्ययन किया है, मुक्तिबोध पर लिखी मेरी पुस्तकें आज भी विवि स्तर पर मानक मानी जाती हैं। मुक्तिबोध ने सिखाया है कि अनुभव प्रक्रिया से विवेक निष्कर्षों तक पहुंचो और निष्कर्षों को क्रियागत परिणति तक पहुंचाआ॓। मेरा हास्य व्यंग्य लेखन भी इस शिक्षा से प्रभावित रहा है।

क्या कहता है साहित्य जगत
विवाद के कारण हुआ बैचैन : विश्वनाथ त्रिपाठी
हिंदी अकादमी के उपाध्यक्ष पद, सचिव पर दबाब डालकर इस्तीफा देने और शलाका सम्मान को लेकर हुए विवाद ने बैचन कर दिया है। पिछले दो सालों में मैं अकादमी की किसी बैठक में नहीं जा पाया। मैंने हिंदी अकादमी की संचालन समिति से इस्तीफा दिया है, अकादमी से नहीं। मैं उम्र को देखते हुए अपना समय रचनात्मक कामों में लगाना चाहता हूं। जहां तक अशोक चक्रधर के उपाध्यक्ष बनाये जाने का सवाल है, मैं न तो उसके विरूद्ध हूं और न ही साथ खड़ा हूं। जिस कदर उन्हें लेकर विवाद खड़ा किया जा रहा है, ए ेसे में उन्हें उपाध्यक्ष के नाते तटस्थ रहने को लेकर बयान देना चाहिए , जिससे पता चले कि जो उनका विरोध कर रहे हैं और जो दोस्त हैं, उनके लिए बतौर उपाध्यक्ष समान भाव रखते हैं।

अकादमी की छवि को हो सकता है नुकसान : अर्चना वर्मा
हिन्दी अकादमी के उपाध्यक्ष का पद साहित्य के उस प्रतिनिधि को दिया गया है जो मंचीय है, गंभीर नहीं है। अशोक चक्रधर के अलावा सुरेंद्र शर्मा भी कई सालों से संचालन समिति में शामिल हैं लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उन्हें कोई पद दे दिया जाए । हालांकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अकादमी के सबसे महंगे कार्यक्रम मंचीय ही होते हैं। जहां नित्यानंद तिवारी, विश्वनात्र त्रिपाठी जैसे गंभीर लोग मौजूद हों, वहां उन्हें उपाध्यक्ष पद देने से अकादमी की नीति पर सवाल उठना लाजिमी है। साहित्य-संस्कृति अकादमी को राजनीति दुम समझती है। अशोक चक्रधर से मेरा कोई व्यक्तिगत परिचय नहीं है लेकिन उनकी जो छवि है उससे अकादमिक छवि को नुकसान हो सकता है।

विपरीत परिस्थितियां है कारण : ज्योतिष जोशी
अकादमी की विपरीत परिस्थितियों के कारण मेरे लिए वहां काम करना संभव नहीं था। यहां गंभीर कार्यक्रमों, महत्वपूर्ण अकादमिक पुस्तकों के प्रकाशनों और उनकी संभावनों और योजनाओं में कमी के आसार दिख रहे थे। ए ेसे में मुझे लगा कि मेरी यहां कोई रचनात्मकता और प्रभावी भूमिका नहीं रहने वाली है। जिस उद्देश्य को लेकर मैं काम कर रह था, वह हिंदी अकादमी की स्थापना के मूल उद्देश्य थे। इससे यह भटकता दिखा तो यहां से मुक्ति पाना ज्यादा उचित लगा।

मनोरंजक साहित्य इंटरटेनमेंट इंडस्ट्री का अंग : नित्यानंद तिवारी
मैंने अशोक चक्रधर की वजह से इस्तीफा नहीं दिया है। मैंने इस्तीफा पिछली कार्यकारिणी में कृष्ण बलदेव वैघ का शलाका सम्मान स्थगित करने को लेकर दिया है। मैंने तय किया था कि यह मामला फिर जब कार्यकारिणी के सामने आए गा तो इस बार भी वैघ के नाम पर ही जोर दूंगा लेकिन संचालन समिति इसके कार्यकाल से पहले ही भंग कर दी गई। ए ेसे में मैंने काफी पहले ही त्यागपत्र देने का मन बना लिया था। उस वक्त तक तो अशोक आए भी नहीं थे। हां, ए क अखबार में खबर आई थी कि अशोक चक्रधर ने कहा कि मैं मंच का कवि हूं और साहित्य को मनोरंजन मानता हूं। हालांकि मैं इस बयान का विरोध कार्यकारिणी में रहते भी कर सकता था। अशोक से मेरा कोई विरोध नहीं है लेकिन अफसर और राजनेता के सीधे हस्तक्षेप का विरोध अवश्य है। साहित्य संबंधी उनके विचार को लेकर मेरा विरोध था। हास्य-व्यंग्य लेखन काफी कठिन काम है लेकिन मंच के जरिए पैसे कमाना या उपभोक्ता पैदा करने वाली भाषा साहित्य कैसे हो सकता है। साहित्य यदि मनोरंजन करता है तो वह इंटरटेनमेंट इंडस्ट्री का अंग हो गया।

स्वायत्ता व कामकाज इस्तीफे का कारण : बृजेन्द्र त्रिपाठी
मेरा इस्तीफा अकादमी की स्वायत्ता और कामकाज को लेकर है। शलाका सम्मान को लेकर जिस तरह कृष्ण बलदेव वैघ के बारे में कहा गया कि वह अश्लील लेखक हैं, यह बहुत अशोभनीय है। यदि पुरस्कार और सम्मान को लेकर नौकरशाह और सरकार के कहने पर अमल हो तो यह गलत है। फैसला लेखकों और साहित्यकारों पर छोड़ा जाना चाहिए । जब सब सरकार ही तय करेगी तो साहित्यकार वहां क्या करेंगे। जहां तक अशोक चक्रधर के अकादमी के उपाध्यक्ष बनने का सवाल है, मेरा इस्तीफा इस मामले से नहीं जुड़ा है। मेरा इस्तीफा स्वायत्तता को लेकर है व्यक्ति विशेष को लेकर नहीं।
(यह आलेख राष्ट्रीय सहारा में रविवार यानि नौ अगस्त,२००९ को मंथन पेज पर छपा है.)

8/10/2009

मुक्कों में है दम: मैरी कॉम

मुक्कों में है दम: मैरी कॉम
अपने मुक्के की बदौलत दुनिया को घुटने टेकने के लिए मजबूर करने वाली मैरी कॉम को राजीव गांधी खेल रत्न से सम्मानित किए जाने के बाद सुर्खियों में है। पद्मश्री और अर्जुन अवार्ड से सम्मानित हो चुकी दो बच्चों की मां मैरी कॉम पहली ऐसी महिला बॉक्सर है जिसने लगातार तीन साल तक अमेरिका में आयोजित वर्ल्ड टाइटल का खिताब जीता। मणिपुर की राजधानी इंफाल के पास छोटे से गांव से ताल्लुक रखने वाली मैरी कॉम गरीबी से लगातार लड़ाई लड़ी है और इस कारण उन्हें विश्व स्तरीय प्रशिक्षण तक हासिल नहीं हो सका।
जब वह स्कूल में थी तो सभी शिक्षक उसकी काबिलियत और जोश का लोहा मानते थे क्योंकि तब वह स्कूल की एथलीट हुआ करती थी। उसने 1999 में बतौर प्रोफेशनल एथलीट को अपनाया। जब उसने और लड़कियों को बॉक्सिंग की ट्रेनिंग लेते देखती तो वह इस आ॓र आकर्षित होती। वह मणिपुर के बॉक्सर डिंको सिंह से प्रदर्शन से काफी प्रभावित होती थी। आखिरकार उसने बॉक्सिंग की ट्रेनिंग लेना शुरू कर दिया और विभिन्न प्रतियोगिताओं में भाग लेना शुरू कर दिया।
मैरी कॉम की मेहनत का ही परिणाम था कि वह राज्य व राष्ट्रीय चैंपियन का खिताब अपनी झोली में डाल लिया। इसके बाद उसने इस खेल में कभी भी पीछे मुड़कर नहीं देखा। मजेदार बात यह है कि बॉक्सिंग में इस मुकाम तक पहुंचने के बाद भी उसकी इस काबिलियत से घर के सभी लोग अंजान थे। उसके पिता को मैरी कॉम की इस रूचि की जानकारी तब मिली जब उन्होंने अखबार में उसकी तस्वीर छपी हुई देखी।
मैरी कॉम ने वर्ल्ड चैंपियन का खिताब जीतकर उन सभी मामलों को झूठ साबित कर दिया कि महिला रिंग में नहीं उतर सकतीं। अपने शुरूआती दिनों को याद करती हुई मैरी कॉम कहती हैं, ‘शुरूआत में मैं ऑलराउंर एथलीट होती थी और चार सौ मीटर दौड़ के साथ-साथ जवेलियन थ्रो मेरा प्रिय स्पर्धा हुआ करता था। लेकिन जब डिंको सिंह बैंकॉक एशियन गेम्स में स्वर्ण लेकर लौटे तो मैंने भी इस खेल में हाथ अजमाने के फैसला लिया।’ उसने 2000 में बॉक्सिंग में आने वाली मैरी कॉम ने महज दो हफ्ते में ही तमाम बारीक चींजें जान लीं। 2000 में पहली राज्य स्तरीय बॉक्सिंग चैंपियनशिप जीतने के बाद उसने कभी भी पीछे मुड़कर नहीं देखा। उसी साल उसने सातवीं ईस्ट इंडिया वीमेंस बॉक्सिंग चैंपियनशिप में स्वर्ण पदक जीता।
2000 से लेकर 2005 तक लगातार राष्ट्रीय चैंपियन रहीं। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर द्वितीय एशियन वीमेंस चैंपियनशिप से पहचान कायम करने वाली मैरी कॉम की झोली में कई चैंपियनशिप का खिताब है। वह खुद को फिट रखने के लिए पांच से छह घंटे काम करती है। वह अपने भाई-बहनों को ऊंची तालीम दिलाने के लिए संघर्षरत है। बॉक्सिंग से होने वाले पैसे से जहां वह नया घर खरीदना के सपने को हकीकत में बदलना चाहती है वहीं प्रायोजक की कमी के कारण अपनी स्थिति को लेकर मायूस भी होती है।
विनीत उत्पल

8/09/2009

बलूच का ज़िक्र संदेहास्पद

बलूच का ज़िक्र संदेहास्पद
शर्म अल शेख में जारी हुए संयुक्त घोषणापत्र में बलूचिस्तान का जिक्र होना काफी संदेहास्पद है। संसद के साथ-साथ बाहर भी प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री ने इस मामले का खुलासा नहीं किया है कि ऐसी क्या आन पड़ी थी कि ऐसे घोषणापत्र पर स्वीकृति दे दी, जिसमें बलूचिस्तान जैसे विवादास्पद मसले थे। पाकिस्तान के साथ बातचीत करने पर किसी को कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन कांग्रेस के अलावा प्रधानमंत्री की क्या सोच है, यह खुलकर सामने आना चाहिए। ऐसा नहीं है कि भारत पर किसी तरह का कोई दबाव था कि वह उस संयुक्त घोषणापत्र पर दस्तखत करे, जिसमें ब्लूचिस्तान का जिक्र है।हालांकि कई लोगों का मानना है कि भारत दबाव में झुका और घोषणापत्र पर दस्तखत किए और प्रधानमंत्री ने इसे ज्यादा तवज्जो नहीं दिया। लेकिन सवाल यह है कि आखिर क्यों प्रधानमंत्री के साथ-साथ विदेश मंत्री इस मामले में सफाई देने से बच रहे हैं।
विस्तृत तौर पर देखा जाए, तो असल समस्या यह है कि पाकिस्तान आतंकवाद को लेकर कुछ करना ही नहीं चाहता। वह क्या कदम उठाना चाहता है और उसकी क्षमता क्या है, यह हमेशा ही संदेहास्पद रहा है। उसकी राजनीतिक के साथ-साथ सुरक्षा मामले पर उठाए गए कदम कभी भी खुलकर सामने नहीं आए हैं। वहां की सरकार का किसी भी मामले में कोई कंट्रोल नहीं है। पाकिस्तान की इतनी क्षमता भी नहीं है कि वह आतंकवाद का समाधान कर सके और उसका इस मसले पर रवैया भी गैरजिम्मेदारी भरा ही हमेशा देखने को मिला है। बलूचिस्तान, स्वात मामले में भी पाकिस्तान का यही हाल है। उसके पास आतंकवाद से निपटने के लिए कभी भी न तो कोई प्लान रहा है और न ही उसने कोई रणनीति बनाई। वह आतंकवाद के मसले को हमेशा नजरअंदाज करता रहा है और कहता रहा है कि इससे उसे किसी भी तरह की कोई समस्या नहीं है। लश्कर, हिजबुल आदि को लेकर उसका हमेशा ही कहना होता है कि इनसे उसके कोई संबंध नहीं हैं और इस कारण उनके विरुद्ध हम कोई भी एक्शन नहीं लेंगे। ऐसे में जब भारत में कोई भी आतंकवादी संगठन किसी कारनामे (मसलन प्लेन हाईजेक, संसद पर हमला आदि) को अंजाम देता है तो उसके पास कोई सबूत नहीं होता था कि वह कानूनी तौर पर पेश करे कि इसमें पाकिस्तान का हाथ है। लेकिन मंुबई कांड में भारत को जो सबूत मिला है, उससे पाकिस्तान कभी भी इंकार नहीं कर सकता कि इस मामले में उसका हाथ नहीं था। इस हमले में पाकिस्तान परोक्ष या अपरोक्ष तौर से पाकिस्तान शामिल था, इसके लिए अमेरिकी के साथ-साथ विभिन्न अंतरराष्ट्रीय संगठन पक्के तौर पर कह रहे हैं।
दिलचस्प बात यह है कि अभी तक पाकिस्तान खासकर यह मानने के लिए तैयार नहीं था कि भारत में आतंकी घटनाओं को अंजाम देने में जिन संगठनों का हाथ है, उसके तार पाकिस्तान से जुड़े हुए हैं। लेकिन मुंबई कांड में भारत ने इतने सबूत जुटाए हैं और उसे पेश किया है कि पाकिस्तान को मुंह की खानी पड़ी है। इस मामले में पाकिस्तान कोई ईमानदारी नहीं दिखा रहा है या कोई कार्रवाई नहीं कर रहा है। सवाल अंतहीन है। मुंबई मामले में यदि एफबीआई पाक के हाथ होने को लेकर संतुष्ट हो गया, तो पाकिस्तान इससे मुकर नहीं सकता।
सबसे अहम बात यह है कि अगर अजहर महमूद पाकिस्तान चला गया, तो पाकिस्तान उस पर कौन-सा मुकदमा चलाए, यह अहम सवाल उसके सामने है, क्योंकि भारत पर्याप्त सबूत मुहैया नहीं करा सका है। आज तक हमने पाकिस्तान के साथ आतंकवाद के मसले पर "जैसे को तैसार् वाला रवैया अपनाया हुआ था। एनडीए सरकार ने भी कई गलत कदम उठाए, जिसके तहत कई आतंकवादियों को छोड़ा गया। जैसे सरबजीत के मामले को ही लें। पाकिस्तान आतंकवादी घटना का जिम्मेदार भारत को ठहराता रह है और भारत में हुए आतंकी घटना का दोषी पाकिस्तान को मानता रहा है, लेकिन दोनों में से कोई भी देश ठोस कानूनी सबूत नहीं सामने रखता। जहां तक बलूचिस्तान की बात है, वह अफगानिस्तान से सटा इलाका है। पाकिस्तान का आरोप है कि मजारे शरीफ और जलालाबाद स्थित भारतीय काउंसिलेट बंद हों, क्योंकि इसके जरिए भारत पाक में आतंकी घटना को अंजाम दे रहा है और वह पाकिस्तान में तालिबान का समर्थन कर रहा है, जबकि इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता है कि अफगानिस्तान में अधिकतर विकास भारत के सहयोग से हो रहा है। पाकिस्तान को यह पसंद नहीं है कि अफगानिस्तान के विकास में भारत सहयोग करे।
भले ही बलूचिस्तान मामले में पाकिस्तान भारत को घसीट रहा हो, लेकिन वह कभी भी यह सबूत नहीं दे सका कि वहां हो रही आतंकी घटनाओं में भारत का हाथ है।वह इस प्रोपगैंडा फैलाने में जुटा है कि किसी तरह वह भारत को इस मामले में घसीटे और अब वह यह दिखाने की कोशिश करे कि यदि इस मामले में भारत का हाथ नहीं होता, तो वह कभी भी संयुक्त घोषणापत्र में दस्तखत नहीं करता। चूंकि संयुक्त घोषणापत्र तभी जारी होता है, जब दोनों पक्ष सभी मामलों में संतुष्ट हों। आतंकवाद से पाकिस्तान भी उसी तरह त्रस्त है जिस तरह भारत।
इस मामले में जहां तक विपक्ष की बात है, उसने सही तरीके से सरकार को घेरा है, क्योंकि पाकिस्तान को लेकर चुनाव के बाद से उसका ध्यान कम हो गया था। दुर्भाग्य की बात है कि वर्तमान हालत में कहीं से भी यह नहीं लग रहा है कि भारत के ऊपर कोई दबाव था या डाला गया कि वह संयुक्त घोषणापत्र पर दस्तखत करे। पाकिस्तान के विरुद्ध जितने सबूत हमारे पास थे, हम उन्हें इस बात को स्वीकार करने के लिए तैयार हो जाते कि यहां होने वाले आतंकी घटनाओं में पाक का हाथ था। पाक का कहना है कि वह कार्रवाई कर रहा है, लेकिन शायद ही कोई कार्रवाई कर रहा है और इस मामले में वह गंभीर है। भारत को चाहिए कि वह पाकिस्तान के साथ गंभीरता से बात करे।
सरकार की नीतियों से लगता है कि जिस तरह लोगों ने उसके निर्णय पर सवाल खड़े किए हैं, वह फिर से सख्त रुख अपनाएगी, जिस तरह मुंबई कांड के बाद गई थी। यह बात भी गौरतलब है कि बलूचिस्तान का मामला अभी कुछ सालों तक जिंदा रहेगा। यह खत्म तभी होगा, जब तक कि पाक भारत के विरुद्ध कुछ सबूत न दे। संयुक्त घोषणापत्र को वह पूरी तरह एक प्रोपगैंडा के तौर पर पेश करेगा, लेकिन इससे भारत को कोई फर्क नहीं पड़ेगा। इसका असर तभी पड़ेगा जब वह कोई सबूत पेश करेगा। अगर वह इस मामले में कोई सबूत नहीं दे सका, तो समय के साथ-साथ यह दब जाएगा।एक और मामला जो लोगों के दिलोदिमाग में सवाल पैदा कर रहा है कि इतने बड़े मसले पर संसद में बहस हो रही है और सरकार गंभीरतापूर्वक इसका जवाब नहीं दे रही है। सरकार को चाहिए कि उसने जो कदम उठाए हैं, उसके लिए वह जनता को संतुष्ट करे। यदि इस मामले की जानकारी ब्यूरोक्रेट्स के साथ-साथ संबंधित मंत्रालय को नहीं थी, तो यह काफी गंभीर मसला है। इस गलती को सरकार को भी मानना पड़ेगा कि उसने इस मसले पर बिना विचार किए समर्थन कैसे कर दिया।
--डा अजय दर्शन बेहरा,कॉर्डिनेटर, पाकिस्तान स्टडीज प्रोग्राम,एकेडमी ऑफ थर्ड वर्ल्ड स्टडीज,जामिया मिल्लिया इस्लामिया
प्रस्तुति:विनीत उत्पल
यह लेख राष्ट्रीय सहारा में छपा है।

8/03/2009

यह स्वयंवर था या नाटक

टीआरपी बढ़ाने के खेल में रविवार को उदयपुर शहर के बहने तमाम टीवी दर्शकों ने वह देखा, जिसका तसव्वुर उसे सपने में भी नहीं था। उसने सोचा भी नहीं था की राखी सावंत 'स्वयंवर' में इलेश परुजनवालाके गले में हर तो डालेंगी लेकिन इस जुमले के साथ की उन्हें समझने को थोड़ा वक्त चाहिए। समझने को, यानि कोई जरूरी नहीं की वह इलेश की जीवनसंगिनी बनें ही। इस टीवी नाटक से टीआरपी तो बेशक बढ़ गया लेकिन जबरदस्त ड्रामे के बाद। राखी सावंत ने एक साथ पञ्च लोगों के लिए करवाचौथ का ब्रत रखा, तीन को फाइनल के लिए बुलाया और इलेश के गले में हर और उनकी उंगली में अंगूठी पहना दी।
'स्वयंवर' के बहने अभी तो हमारी सगाई हुई है। मुझे समझने को थोड़ा वक्त चाहिए।'

स्वयंवर तो सीता का भी हुआ था। एक से बढ़कर एक भूप उसमें आए थे। स्वयंवर की समाप्ति पर जब सीता ने राम के गले में माला डाली, तब से लेकर धरती की गोद में समाने तक वह राम की रहीं। उन्होंने स्वयंवर के बाद सोचने-विचारने की कोई तारिख नहीं छोड़ी, क्योंकि ऐसा करना परम्परा और स्वयंवर के स्थापित नियमों के सर्वथा विरूद्व होता।
स्वयंवर तो सीता का भी हुआ था। एक से बढ़कर एक भूप उसमें आए थे। स्वयंवर की समाप्ति पर जब सीता ने राम के गले में माला डाली, तब से लेकर धरती की गोद में समाने तक वह राम की रहीं। उन्होंने स्वयंवर के बाद सोचने-विचारने की कोई तारिख नहीं छोड़ी, क्योंकि ऐसा करना परम्परा और स्वयंवर के स्थापित नियमों के सर्वथा विरूद्व होता।
टीआरपी बढ़ाने का फार्मूला तो चल निकला लेकिन इस तिकड़म में दर्शकों के रहे-सहे कौतूहल की बलि चढ़ गई। इस पूरे मामले में तमाम यक्ष प्रशन बिखरे पड़े हैं जिनका जवाब देते बाजार में बने रहने के तिकड़म की हवा खिसक जायेगी। मसलन, इलेश के उस अधेड़ माँ-बाप का क्या होगा जो बिल्कुल नहीं चाहते थे लेकिन बेटे की खुशी के लिए इस मौके का गवाह बनने सात समंदर पार आने के लिए मजबूर हुए? इलेश का क्या होगा ? उन सपनों का क्या होगा जो राखी के बहने इलेश ने देखे थे ? उस कौतूहल का क्या होगा जिसने टीवी दर्शकों को अपने जिद में बांधे रखा ? शहर तो बस जायेंगे लेकिन उन दिलों का क्या होगा जिन्हें राखी सावंत के बाजार दर्शन ने निगल लिया ?
टीआरपी, प्रचार और पैसा की तिकडी ने इस पूरे एपिसोड के जरिये विवाह की सामाजिक मर्यादा के साथ-साथ भारत की सामाजिक संस्कृति और सभ्यता को भी तार-तार किया है। राखी सावंत का 'स्वयंवर' और इससे जुड़े तमाम एपिसोड सिर्फ़ और सिर्फ़ दर्शकों की आखों में धूल झोंकते रहे। लोग टीवी देखते रहे और चैनल की टीआरपी बढती गई और इसके साथ पैसों का खेल चलता रहा। पूरे स्वयंवर के दौरान दूल्हा बनने का सपना देख रहे लड़कों ने राखी के लिए कवितायें लिखी, गाने गए, डांस किए और फ़िर राखी के माना करने पर ऑन रिकार्ड या ऑफ़ रिकार्ड गाली-गलौच से भी बज नहीं आए। टोरेंटो में ऐक्टिंग एकेडमी से ग्रेजुएशन करने वाले इलेश और आयटम गर्ल राखी सावंत के बीच सगाई का यह ड्रामा आम दर्शकों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करने में सफल रहा, इसमें कोई शक नहीं।
(राष्ट्रीय सहारा से साभार)