शर्म अल शेख में जारी हुए संयुक्त घोषणापत्र में बलूचिस्तान का जिक्र होना काफी संदेहास्पद है। संसद के साथ-साथ बाहर भी प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री ने इस मामले का खुलासा नहीं किया है कि ऐसी क्या आन पड़ी थी कि ऐसे घोषणापत्र पर स्वीकृति दे दी, जिसमें बलूचिस्तान जैसे विवादास्पद मसले थे। पाकिस्तान के साथ बातचीत करने पर किसी को कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन कांग्रेस के अलावा प्रधानमंत्री की क्या सोच है, यह खुलकर सामने आना चाहिए। ऐसा नहीं है कि भारत पर किसी तरह का कोई दबाव था कि वह उस संयुक्त घोषणापत्र पर दस्तखत करे, जिसमें ब्लूचिस्तान का जिक्र है।हालांकि कई लोगों का मानना है कि भारत दबाव में झुका और घोषणापत्र पर दस्तखत किए और प्रधानमंत्री ने इसे ज्यादा तवज्जो नहीं दिया। लेकिन सवाल यह है कि आखिर क्यों प्रधानमंत्री के साथ-साथ विदेश मंत्री इस मामले में सफाई देने से बच रहे हैं।
विस्तृत तौर पर देखा जाए, तो असल समस्या यह है कि पाकिस्तान आतंकवाद को लेकर कुछ करना ही नहीं चाहता। वह क्या कदम उठाना चाहता है और उसकी क्षमता क्या है, यह हमेशा ही संदेहास्पद रहा है। उसकी राजनीतिक के साथ-साथ सुरक्षा मामले पर उठाए गए कदम कभी भी खुलकर सामने नहीं आए हैं। वहां की सरकार का किसी भी मामले में कोई कंट्रोल नहीं है। पाकिस्तान की इतनी क्षमता भी नहीं है कि वह आतंकवाद का समाधान कर सके और उसका इस मसले पर रवैया भी गैरजिम्मेदारी भरा ही हमेशा देखने को मिला है। बलूचिस्तान, स्वात मामले में भी पाकिस्तान का यही हाल है। उसके पास आतंकवाद से निपटने के लिए कभी भी न तो कोई प्लान रहा है और न ही उसने कोई रणनीति बनाई। वह आतंकवाद के मसले को हमेशा नजरअंदाज करता रहा है और कहता रहा है कि इससे उसे किसी भी तरह की कोई समस्या नहीं है। लश्कर, हिजबुल आदि को लेकर उसका हमेशा ही कहना होता है कि इनसे उसके कोई संबंध नहीं हैं और इस कारण उनके विरुद्ध हम कोई भी एक्शन नहीं लेंगे। ऐसे में जब भारत में कोई भी आतंकवादी संगठन किसी कारनामे (मसलन प्लेन हाईजेक, संसद पर हमला आदि) को अंजाम देता है तो उसके पास कोई सबूत नहीं होता था कि वह कानूनी तौर पर पेश करे कि इसमें पाकिस्तान का हाथ है। लेकिन मंुबई कांड में भारत को जो सबूत मिला है, उससे पाकिस्तान कभी भी इंकार नहीं कर सकता कि इस मामले में उसका हाथ नहीं था। इस हमले में पाकिस्तान परोक्ष या अपरोक्ष तौर से पाकिस्तान शामिल था, इसके लिए अमेरिकी के साथ-साथ विभिन्न अंतरराष्ट्रीय संगठन पक्के तौर पर कह रहे हैं।
दिलचस्प बात यह है कि अभी तक पाकिस्तान खासकर यह मानने के लिए तैयार नहीं था कि भारत में आतंकी घटनाओं को अंजाम देने में जिन संगठनों का हाथ है, उसके तार पाकिस्तान से जुड़े हुए हैं। लेकिन मुंबई कांड में भारत ने इतने सबूत जुटाए हैं और उसे पेश किया है कि पाकिस्तान को मुंह की खानी पड़ी है। इस मामले में पाकिस्तान कोई ईमानदारी नहीं दिखा रहा है या कोई कार्रवाई नहीं कर रहा है। सवाल अंतहीन है। मुंबई मामले में यदि एफबीआई पाक के हाथ होने को लेकर संतुष्ट हो गया, तो पाकिस्तान इससे मुकर नहीं सकता।
सबसे अहम बात यह है कि अगर अजहर महमूद पाकिस्तान चला गया, तो पाकिस्तान उस पर कौन-सा मुकदमा चलाए, यह अहम सवाल उसके सामने है, क्योंकि भारत पर्याप्त सबूत मुहैया नहीं करा सका है। आज तक हमने पाकिस्तान के साथ आतंकवाद के मसले पर "जैसे को तैसार् वाला रवैया अपनाया हुआ था। एनडीए सरकार ने भी कई गलत कदम उठाए, जिसके तहत कई आतंकवादियों को छोड़ा गया। जैसे सरबजीत के मामले को ही लें। पाकिस्तान आतंकवादी घटना का जिम्मेदार भारत को ठहराता रह है और भारत में हुए आतंकी घटना का दोषी पाकिस्तान को मानता रहा है, लेकिन दोनों में से कोई भी देश ठोस कानूनी सबूत नहीं सामने रखता। जहां तक बलूचिस्तान की बात है, वह अफगानिस्तान से सटा इलाका है। पाकिस्तान का आरोप है कि मजारे शरीफ और जलालाबाद स्थित भारतीय काउंसिलेट बंद हों, क्योंकि इसके जरिए भारत पाक में आतंकी घटना को अंजाम दे रहा है और वह पाकिस्तान में तालिबान का समर्थन कर रहा है, जबकि इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता है कि अफगानिस्तान में अधिकतर विकास भारत के सहयोग से हो रहा है। पाकिस्तान को यह पसंद नहीं है कि अफगानिस्तान के विकास में भारत सहयोग करे।
भले ही बलूचिस्तान मामले में पाकिस्तान भारत को घसीट रहा हो, लेकिन वह कभी भी यह सबूत नहीं दे सका कि वहां हो रही आतंकी घटनाओं में भारत का हाथ है।वह इस प्रोपगैंडा फैलाने में जुटा है कि किसी तरह वह भारत को इस मामले में घसीटे और अब वह यह दिखाने की कोशिश करे कि यदि इस मामले में भारत का हाथ नहीं होता, तो वह कभी भी संयुक्त घोषणापत्र में दस्तखत नहीं करता। चूंकि संयुक्त घोषणापत्र तभी जारी होता है, जब दोनों पक्ष सभी मामलों में संतुष्ट हों। आतंकवाद से पाकिस्तान भी उसी तरह त्रस्त है जिस तरह भारत।
इस मामले में जहां तक विपक्ष की बात है, उसने सही तरीके से सरकार को घेरा है, क्योंकि पाकिस्तान को लेकर चुनाव के बाद से उसका ध्यान कम हो गया था। दुर्भाग्य की बात है कि वर्तमान हालत में कहीं से भी यह नहीं लग रहा है कि भारत के ऊपर कोई दबाव था या डाला गया कि वह संयुक्त घोषणापत्र पर दस्तखत करे। पाकिस्तान के विरुद्ध जितने सबूत हमारे पास थे, हम उन्हें इस बात को स्वीकार करने के लिए तैयार हो जाते कि यहां होने वाले आतंकी घटनाओं में पाक का हाथ था। पाक का कहना है कि वह कार्रवाई कर रहा है, लेकिन शायद ही कोई कार्रवाई कर रहा है और इस मामले में वह गंभीर है। भारत को चाहिए कि वह पाकिस्तान के साथ गंभीरता से बात करे।
सरकार की नीतियों से लगता है कि जिस तरह लोगों ने उसके निर्णय पर सवाल खड़े किए हैं, वह फिर से सख्त रुख अपनाएगी, जिस तरह मुंबई कांड के बाद गई थी। यह बात भी गौरतलब है कि बलूचिस्तान का मामला अभी कुछ सालों तक जिंदा रहेगा। यह खत्म तभी होगा, जब तक कि पाक भारत के विरुद्ध कुछ सबूत न दे। संयुक्त घोषणापत्र को वह पूरी तरह एक प्रोपगैंडा के तौर पर पेश करेगा, लेकिन इससे भारत को कोई फर्क नहीं पड़ेगा। इसका असर तभी पड़ेगा जब वह कोई सबूत पेश करेगा। अगर वह इस मामले में कोई सबूत नहीं दे सका, तो समय के साथ-साथ यह दब जाएगा।एक और मामला जो लोगों के दिलोदिमाग में सवाल पैदा कर रहा है कि इतने बड़े मसले पर संसद में बहस हो रही है और सरकार गंभीरतापूर्वक इसका जवाब नहीं दे रही है। सरकार को चाहिए कि उसने जो कदम उठाए हैं, उसके लिए वह जनता को संतुष्ट करे। यदि इस मामले की जानकारी ब्यूरोक्रेट्स के साथ-साथ संबंधित मंत्रालय को नहीं थी, तो यह काफी गंभीर मसला है। इस गलती को सरकार को भी मानना पड़ेगा कि उसने इस मसले पर बिना विचार किए समर्थन कैसे कर दिया।
--डा अजय दर्शन बेहरा,कॉर्डिनेटर, पाकिस्तान स्टडीज प्रोग्राम,एकेडमी ऑफ थर्ड वर्ल्ड स्टडीज,जामिया मिल्लिया इस्लामियाप्रस्तुति:विनीत उत्पल
यह लेख राष्ट्रीय सहारा में छपा है।
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