9/24/2009
गिद्ध गायब और अब चमगादड़ों की बारी
पूरे इलाके में इन चमगादड़ों को पकड़ने के लिए आमतौर पर ताड़ के पेड़ों पर चढ़ने वाले एक जाति विशेष के परंपरागत लोगों को लगाया गया है। ये ताड़ के पेड़ पर चढ़कर ताड़ी उतारने के साथ-साथ जाल लेकर चमगादड़ों को भी फंसाकर नीचे उतरते हैं। चमगादड़ों को फंसाने के बाद अगर ग्राहक तैयार मिला तो जिंदा ही बेच डालते हैं लेकिन अगर ग्राहक तत्काल नहीं मिला तो फिर इन्हें मार डालते हैं। ताड़ के पेड़ पर से चमगादड़ पकड़कर इनको मारकर तेल और हड्डी निकालकर रखते हैं तथा मांस को खा जाते हैं। तेल जब ढ़ाई सौ ग्राम से ज्यादा जमा हो जाता है तो फिर पांच सौ रुपये किलो तक बेच देते हैं। हड्डी भी जमाकर रखते हैं और ग्राहक भी मरने वालों के गावों में ही आते हैं। इसके ग्राहक बाहर देश से आते हैं। एक सौ रुपये में चमगुदड़ी और पांच सौ रुपये में बादुर के खरीददार मिल जाते हैं। चमगादड़ पकड़ने के लिए ये जाल के साथ ताड़ पर चढ़ते हैं और सूखे पत्ते से सटाकर रखते हैं। ज्योंहित खड़-खड़ाहट की आवाज पर चमगादड़ भागकर उड़ते हैं, वे जाल में फंसते चले जाते हैं। किस ताड़ के पेड़ पर चमगादड़ है, इसके लिए पेड़ के नीचे सूक्ष्मता से निरीक्षण किया जाता है और अगर इनका मल दिख गया तो फिर पेड़ पर चढ़कर इनका काम तमाम किया जाता है। चमगादड़ के तेल से दर्द निवारक दवा बनाई जाती है जबकि हड्डियों को पीसकर शक्तिवर्द्धक दवा बनती है।
हालाँकि चमगादड़ के तेल या हड्डी से कोई एलोपैथिक दवा तो नहीं बनती है लेकिन झारखंड के आदिवासी गांवों में ऐसी मान्यता है कि चमगादड़ का रक्त और मांस अस्थमा रोग में लाभकारी होती है। यहाँ के लोगों का कहना है कि चमगादड़ों को यहां से बांग्लादेश के मार्फत इंडोनेशिया ले जाकर महंगे दामों में बेचा जाता है। एक छोटे चमगादड़ की कीमत वहां तीन पौंड तक होती है। इंडोनेशिया में परंपरागत रूप से बंद का ब्रेन, भालू का पांव जैसे अजीबोगरीब वस्तुओं को भी लोग खाते हैं। स्तनपायी चमगादड़ के विषय में यहां यह मान्यता है कि इसका हृदय खाने से दमा रोग ठीक होता है।
9/23/2009
पाखंड नहीं है सादापन : गोविन्दाचार्य
सादगी तर्कसंगत और प्रशंसनीय है, लेकिन कुछ लोगों की सादगी आम लोगों को महंगी पड़ जाती है और सामान्य लोगों के लिए कष्टकारी हो जाती है। ऐसे में सामान्य लोगों को कष्ट से बचाने के लिए सादगी का परित्याग किया जाना चाहिए। आमजन को उनकी सादगी महंगी पड़ रही है जिन्हें विशेष सुरक्षा मिली है। वह अपनी सादगी से आम आदमी को कष्ट पहुंचाते हैं। प्रशासन को चाहिए कि सादा, सरल और छोटा कारगर कदम कैसे हो, इस बार अमल किया जाए।
संथानम कमीशन ने इस मामले में काफी कुछ कहा है कि सस्ता और सुलभ न्याय कैसे हो, इस पर ध्यान दिया जाना चाहिए।एक तरफ शिक्षा को महंगा किया जा रहा है, तीस करोड़ लोगों की जरूरत के मुताबिक कानून बनाया जा रहा है और बात सादगी की हो रही है, तो यह पूरी तरह विरोधाभास है। इससे जनहित तो नहीं सधेगा, राजनीति भले सध सकती है। आप जनमानस के साथ जाएं तो बात बने।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि आज भी त्याग व सादगी का वैसा ही महत्व है। आज भी बनारस का विधायक पैदल ही घूमता है, अंगरक्षक तक नहीं है। इंदौर का लक्ष्मण और आंध्र प्रदेश का जयप्रकाश बिना खर्च किए जनता के बदौलत प्रतिनिधि चुना जाता है। आज भी उनकी सादगी काबिले-तारीफ है।स्वस्थ स्पर्धा हो और केवल राजनीतिक कारणों से सादगी को अपनाया जाए, यह गलत है। साधना और शुचिता का राजनीतिक जीवन में आज भी महत्व है, लेकिन इसके पीछे राजनीतिक पैंतरेबाजी गलत है। पाखंड इस बात का प्रमाण है कि समाज में विवेक जिंदा है और गुणों का महत्व है।
9/18/2009
ब्लॉग से पोर्टल तक: कुमुद सिंह
9/15/2009
तमाम भाषाओं की रचनाएं हिंदी में : बृजेंद्र त्रिपाठी, संपादक, समकालीन भारतीय साहित्य
नए संचार माध्यमों के जरिए पाठक वर्ग काफी हद तक प्रभावित हुआ है लेकिन तमाम भारतीय भाषाओं की रचनाएं हिंदी पाठकों के द्वारा पढ़ी जा रही हैं। करीब 24 भारतीय भाषाओं के साथ लोक भाषाओं की एक इकाई के तौर पर छपने वाली पत्रिका के जरिए पाठक आम जनमानस से रूबरू होता है। जब दो दशक पहले नए संचार माध्यम सामने आ रहे थे तो काफी हल्ला मचा था कि लिखित शब्दों की दुनिया खत्म हो जाएगी। लेकिन हुआ इसका उलट, पाठक और बढ़ गए। कई नए प्रकाशक सामने आए। लिखित शब्दों की एक अलग दुनिया है। हालांकि यह और बात है कि नए संचार माध्यमों ने पाठकों का समय चुरा लिया है लेकिन पढ़ने की प्यास अब भी बुझी नहीं है।
नए संचार माध्यमों ने पाठकों का समय चुरा लिया है लेकिन पढ़ने की प्यास अब भी बुझी नहीं है।
तमाम साहित्यिक पत्रिकाएं निकल रही हैं। उनमें से पचास तो ऐसी हैं ही जो बेहतर सामग्री पाठकों को मुहैया करा रही हैं। जहां तक ई-पत्रिकाओं की बात है तो कंप्यूटर और इंटरनेट की पहुंच कितने फीसद लोगों तक है, इसके आंकड़े ढूंढने होंगे। हालांकि एक पाठक वर्ग है लेकिन देश के अधिकतर पाठक अभी इससे दूर ही हैं। पिछले कुछ समय से स्त्री, दलित और आदिवासी से संबंधित विमर्श साहित्य जगत में जारी है। इससे संबंधित विमर्श न सिर्फ हिंदी में चल रहा है बल्मि तमाम भारतीय भाषाओं में रचनाएं लिखी जा रही हैं। आदिवासियों के विस्थापन का लेकर काफी सशक्त रचनाएं आ रही हैं। करीब सौ से भी अधिक जनजातीय भाषाओं की रचनाएं हिंदी में पढ़ी जा रही हैं और इनका जबरदस्त पाठक वर्ग है।
विमर्श नहीं आंदोलन की जरूरत : रमेश उपाध्याय, संपादक, कथन
हिन्दी का भविष्य अच्छा है लेकिन आंदोलन की जगह साहित्य को महज विमर्श में तब्दील किया जाना गलत है। हिंदी के पाठक लगातार बढ़ रहे हैं। हिंदी के अखबारों और पत्रिकाओं के पाठकों में लगातार इजाफा हो रहा है। अनुदान भी मिलने लगे हैं, जो बेहतर भविष्य का संकेत है।
उत्तर आधुनिकतावाद के दौर में विमर्श को चलाया गया, वह गलत है।
इंटरनेट के कारण एक दुनिया के लोग दूसरी दुनिया से जुड़ रहे हैं। मैंने अपने ब्लॉग पर उदय प्रकाश और वर्धा विश्वविघालय को लेकर लिखा भी था कि सार्थक बहस चलाई जाए। इस युग में इंटरनेट इतना बड़ा साधन है लेकिन यहां भाषा काफी खराब लिखी जा रही है जिस कारण प्रबुद्ध पाठक इससे विरक्त हो रहे हैं। जहां तक साहित्यिक पत्रिकाओं का सवाल है, निराशा होती है क्योंकि यहां कोई आंदोलन नहीं है, कोई बहस नहीं है। हिंदी साहित्य की परंपरा आंदोलन की रही है, चाहे वह भक्तिकाल हो, छायावाद हो या नई कहानियों का दौर। आंदोलन चलाया जाना चाहिए।
उत्तर आधुनिकतावाद के दौर में विमर्श को चलाया गया, वह गलत है। स्त्री विमर्श हो या दलित विमर्श, इनके कारण साहित्य सीमित हो गया है। जबकि विमर्श के लिए ग्रामीण महिलाओं का दर्द है, दलित की गरीबी भी है। लेकिन साहित्यकारों ने तो नारी देह को ही विमर्श का मुद्दा बना दिया है। नारी देह को विमर्श से मुक्ति मिलनी चाहिए। इसी तरह दलित विमर्श को जाति तक सीमित कर दिया गया है। उसकी गरीबी को लेकर कोई बात नहीं करता। गांवों की पंचायतों में फैले भ्रष्टाचार साहित्य में कहीं नहीं हैं। साहित्य के दायरे में अब सवाल नहीं उठाया जाता।
हिंदी लेखक भी होंगे बेस्टसेलर :अपूर्व जोशी, संपादक, पाखी
हिन्दी साहित्य का बाजार काफी व्यापक है। पिछले एक साल के दौरान हमारी पत्रिका को आम पाठकों ने जिस कदर सराहा, उससे काफी उत्साहवर्धन हुआ है। मेरा मानना है कि यदि हिंदी की साहित्यिक पत्रिकाओं को देखें तो सामग्री का जो स्तर पाठकों तक पहुंचना चाहिए, वह उन तक नहीं पहुंच पा रहा है। साथ ही कोई भी पत्रिका आर्थिक दृष्टि से संबल नहीं हो पा रहा है।
भारत बाजार में तब्दील हो चुका है, उस बाजार को पकड़ने के लिए भाषा भी पकड़नी होगी।
जिस तरह पाठकों का रूझान है उसमें यदि पब्लिशर्स आर्थिक तौर से मजबूत हो जाएं तो एक लाख प्रतियां भी कम ही होंगी। बड़े घराने जो साहित्यिक पत्रिकाएं निकालते भी हैं उनकी मार्केटिंग काफी कमजोर है। इसके अलावा अखबारों या महिलाओं से संबंधित पत्रिकाओं जैसे विज्ञापन साहित्यिक पत्रिकाओं को नहीं मिल पाते हैं। आम पाठकों तक पत्रिका को पहुंचाने का सामर्थ्य भी इन पाठकों के पास नहीं है। आज का भारत बाजार में तब्दील हो चुका है, उस बाजार को पकड़ने के लिए भाषा भी पकड़नी होगी। हिंदी के प्रकाशन जगत में अंग्रेजी प्रकाशकों का आना मायने रखता है। क्योंकि वे उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं जो विज्ञापन ला सकता है। उनका मिशन पत्रिका चलाना नहीं है बल्कि व्यापार करना है। ‘हंस’ या ‘कथादेश’ का प्रकाशन व्यापार करने के लिए शुरू नहीं हुआ। वैसे मुझे बाजार में हिंदी के दखल को देखते हुए लगता है कि जल्द ही वह समय आएगा जब हिंदी लेखकों की रचनाएं भी बेस्ट सेलर होंगी।
लेखक ही हो गए हैं पाठक : हरिनारायण, संपादक, कथादेश
हिन्दी पट्टी की जनसंख्या और साहित्यक पाठकों को देखें तो स्थिति काफी निराशाजनक है। किसी भी लघु पत्रिका का पाठक पांच- छह हजार से अधिक नहीं है। लघु पत्रिकाएं काफी सीमित संख्या में छप रही है। खाने-पीने वाले घरों के बच्चों खासकर कॉन्वेंट में पढ़ने वाले बच्चों में तो हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में कतई नहीं पढ़ते, उनकी कोई दिलचस्पी ही नहीं है। उन बच्चों का मन हिंदी सीरियल और फिल्में देखने में नहीं लगता। वर्तमान दौर में पत्रिकाएं अपने सीमित साधनों के बदौलत निकल रही हैं। यदि कोई सरकारी विज्ञापन मिल भी गया और दो-ढाई सौ प्रतियां छप भी गईं लेकिन उसके पाठकों वर्ग का दायरा नहीं बढ़ा तो क्या फायदा।
हालांकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि हिंदी अखबारों के पाठकों की संख्या में इजाफा हुआ है लेकिन लघु पत्रिकाओं की स्थिति में परिवर्तन नहीं हुआ है। लोगों की जिंदगी में लघु पत्रिकाएं, अखबारों की तरह जरूरत नहीं हंै। लेखक ही पाठक हो गए हैं। यहां तक कि विश्वविघालयों में पढ़ाने वाले शिक्षक या विभिन्न संस्थानों में काम करने वाले हिंदी अधिकारी तक हिंदी की साहित्यिक पत्रिका नहीं खरीदते हैं।
लिखित शब्दों का विकल्प नहीं : रविन्द्र कालिया, संपादक, नया ज्ञानोदय
इससे भी इतर बात यह है कि अधिकतर पत्रिकाओं के पास न तो कोई सोर्स है और न ही बड़ा नेटवर्क। पर अब भी बाजार में लघु पत्रिकाएं कम नहीं हैं। हजार पाठक तो हर पत्रिका के हैं ही लेकिन सही बाजार न हो तो लोगों तक पत्रिकाएं नहीं पहुंच पाती हैं। हिंदी के पाठकों की कमी नहीं है। जहां तक हिंदी ब्लॉग की बात है तो यह किसी भी पत्रिका के लिए चुनौती नहीं है। क्योंकि लिखित शब्दों का कोई विकल्प नहीं है।
बुजुर्ग हो रहे हैं गंभीर श्रेणी के पाठक : संजीव, कार्यकारी संपादक, हंस
वर्तमान दौर में हिंदी भाषा की स्थिति काफी खराब होती जा रही है। भाषा लगातार डीजेनरेट हो रहा है। शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी होता जा रहा है। जहां अखबार सिर्फ तीन रूपए की चीज है और एक बार पढ़ने के बाद उसकी अनिवार्यता खत्म हो जाती है वैसी स्थिति साहित्यिक पत्रिकाओं की नहीं होती। उसे पढ़ने के लिए जहां समय देना होगा, वहीं चिंतन भी अनिवार्य है।
वर्तमान में कहीं कोई विमर्श नहीं हो रहा है
जिस तरह फास्ट फूड ने पौष्टिक भोजन को हाशिए पर ला खड़ा किया है, उसी तरह तात्कालिकता, सूचना और मनोरंजन ने गंभीर चिंतन को धकिया कर बाहर कर दिया है। इसमें दूरदर्शन के अलावा निजी चैनल सहित तमाम संचार माध्यम शामिल हैं। वर्तमान में कहीं कोई विमर्श नहीं हो रहा है कि ऐसे में क्या किया जाए। ब्लॉग या दूसरे संचार माध्यमों के जरिए जो एक नई बात सामने आ रही है कि सुनाना सब चाहते हैं लेकिन सुनना कोई नहीं चाहता। विमर्श की पत्रिकाओं को लेकर कहना काफी मुश्किल है। पाठकों की कई श्रेणियां है लेकिन गंभीर पाठकों की श्रेणी लगातार बुजुर्ग होती जा रही है। एक्का-दुक्का ही युवा वर्ग के पाठक सामने आ रहे हैं जिसे लेकर चिंता लाजिमी है।
9/13/2009
राज्यों की राजनीति की रपटीली राहें
आज मुल्क की राजनीति दलितों के सवालों पर, अल्पसंख्यकों के मसलों पर, आदिवासियों के सवाल पर, पिछड़ों से जुड़े मसलों पर जितनी सचेत और सक्रिय है उतना पहले कभी नहीं थी। आजाद भारत की लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में जो बदलाव सर्वाधिक आश्चर्यपूर्ण है वह केंद्रीय या राष्ट्रीय राजनीति की जगह क्षेत्रीय या राज्यवार राजनीति का उदय प्रमुख है।
दो खंडों में अरविंद मोहन के संपादन में छपी किताब ‘लोकतंत्र का नया लोक’ देश के विभिन्न राज्यों की राजनीति की बारीक विश्लेषण के साथ-साथ राजनीति शास्त्र के छात्रों और अध्येताओं के अध्ययन को एक दिशा देने में सहायक है, क्योंकि हरेक राज्य की राजनीति के 1990 के दशक से अब तक किस तरह के बदलाव हुए हैं, उनके पीछे सामाजिक गोलबंदी किस तरह की रही है, कैसे काम करती है, इसे समझने-समझाने का काम इस किताब के जरिए किया गया है।
आजाद भारत की लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में जो बदलाव सर्वाधिक आश्चर्यपूर्ण है वह केंद्रीय या राष्ट्रीय राजनीति की जगह क्षेत्रीय या राज्यवार राजनीति का उदय प्रमुख है।
कुल बीस अध्यायों में बंटे इस किताब को पढ़ने के दौरान यह तथ्य पूरी तरह स्पष्ट होती है कि अगर अस्सी के दशक के आखिरी दिनों में मंदिर और मंडल वाले मुद्दे आए और राजनीति को काफी बदलने में सक्षम हुए, तो नए दशक के आने के साथ ही तीसरे ‘एम’ अर्थात मार्केट (बाजारवादी आर्थिक नीतियों) का भी धमाकेदार आगमन हुआ। प्रतिद्वंद्विता जितनी बढ़ी है, मुद्दों का विकल्प कम हुआ है और बदलाव वाले विकल्प सीमित हुए हैं।
मुसलमानों ने, दलितों ने, आदिवासियों ने अगर अपनी पहचान और राजनीतिक वजूद कायम रखा है तो यह किसी की दया से नहीं हुआ है। अगर वोट की ताकत न होती, तो इनकी और भी बुरी गत बन गई होती क्योंकि जितने ‘वाद’ आए-गए, उन सबमें इनकी खास चिंता कहीं नहीं थी। आज बिहार की राजनीति में विकास का मुख्य मुद्दा किसी एक आदमी ने नहीं बनाया है, पंजाब की, कश्मीर की अलगाववादी प्रवृत्तियों को लोकतंत्र ने ही सबसे मजबूत जवाब दिया है। अब राज्य सरकारें अपनी जीत या हार के लिए पूरी तरह राष्ट्रीय सरकारों पर निर्भर नहीं हो सकती हैं।
पिछले दो दशकों में हुए सामाजिक (आर्थिक) और उसके परिणामस्वरूप राजनीतिक परिवर्तनों को कोसने के बजाय समालोचना और विश्लेषण के नजरिए से देखना इस किताब की खूबी है। दोनों खंडों में मशहूर चुनाव विश्लेषक योगेंद्र यादव और सुहास पल्सीकर ने अपने लेखों के जरिए राष्ट्रीय व राज्यों की राजनीति के विभिन्न आयामों को सामने रखते हुए व्यापक विश्लेषण के जरिए अध्ययन को गहरा बनाते हैं। दोनों खंडों में अरविंद मोहन की भूमिका भी भारत के नए लोकतंत्र की अवधारणा को स्पष्ट करते हैं।
भारतीय राजनीति की सैद्धांतिक और तथ्यपरक व्याख्या करने वाले इस संकलन में विभिन्न विश्लेषकों ने लोकसभा और विधानसभा चुनाव परिणामों के आधार पर वहां हो रहे राजनीतिक परिवर्तन की सटीक तस्वीर पाठकों के सामने रखने में कामयाब रहे हैं। खंड एक में आंध्र प्रदेश, केरल, असम, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और बिहार पर विस्तृत चर्चा की गई है वहीं दूसरे खंड में जम्मू-कश्मीर, मध्य प्रदेश, गुजरात, दिल्ली, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, पंजाब, छत्तीसगढ़, आ॓डिसा, कर्नाटक, पूर्वोत्तर के साथ-साथ राजस्थान की राजनीति के बारीकियों का अध्ययन पेश किया गया है।
बहरहाल, हिंदी में उपलब्ध इस भारी-भरकम राजनीति की किताब उस तथ्य को भी पाठकों को सामने लाने में सक्षम है कि भारत की वर्तमान राजनीति में न तो कोई राष्ट्रीय मुद्दा है, न तो कोई राष्ट्रीय नेता जिसे आम जनता आंख मूंदकर सिरमौर बनाए। और किस तरह राज्यों की राजनीति राष्ट्रीय स्तर पर आते-आते मतदाताओं की सोच के साथ बदल जाती है कि बड़े दलों से लेकर राजनेताओं को हार का सामना करना पड़ता है।
विनीत उत्पल
9/12/2009
ब्रेड पकौडे नान स्टाप
दिल्ली का पाश इलाका. एक तरफ जेएनयू का ओल्ड कैम्पस तो दूसरी तरफ आईआईटी कैम्पस का विस्तृत इलाका. इसी बीच स्थित है बेर सराय, जहाँ इंजीनियरिंग से लेकर सिविल सर्विस की तैयारी करने वाले छात्र तक, घर से मीलों दूर, हास्टल या छोटे-छोटे कमरे लेकर रहते हैं। उन्हें न तो खाने की फ़िक्र रहती है और न ही सोने की। पढाई और तैयारी का बोझ उन पर इस कदर होता है कि वे चाय बनाने से लेकर खाना बनाने तक में परहेज करते हैं। बस एक ही धुन उनके सर पर होती है, कुछ कर दिखने की। अब जब धुन कुछ कर गुजरने की हो तो जाहिर है किसी और काम में मन कहाँ लगेगा, लेकिन रात बीतते सुबह चाय की तलब और भूख यहाँ रहने वाले छात्रों को 'शर्माजी टी स्टाल' तक पहुँचने के लिए मजबूर करती है।
करीब डेढ़ दशक से संकरी गलियों में बसी चाय और नास्ता की यह दुकान इन छात्रों के लिए न सिर्फ़ भूख और प्यास मिटने बल्कि दिमाग को तरोताजा करने की जगह भी बन चुकी है। सुबह करीब पॉँच बजे से खुलने वाला यह चाय स्टाल देर रात करीब एक बजे तक खुला रहता है। खासतौर पर अपनी चटनी के लिए मशहूर शर्माजी कि इस दुकान के ब्रेड पकौडों का सिविल सेवा की परीक्षा पास कर चुके कितने ही नौकरशाह आज भी नही भूले हैं। आज भी कई बार भूले-भटके वे इन गलियों में पहुँच जाते हैं।
सुबह करीब पॉँच बजे से खुलने वाला यह चाय स्टाल देर रात करीब एक बजे तक खुला रहता है। खासतौर पर अपनी चटनी के लिए मशहूर शर्माजी कि इस दुकान के ब्रेड पकौडों का सिविल सेवा की परीक्षा पास कर चुके कितने ही नौकरशाह आज भी नही भूले हैं।
बेरसराय गाँव की तंग गलियों में यह छोटी सी दुकान चला रहे सीएल शर्मा अतीत को झांकते हुए कहते हैं, 'मैं सरकारी नौकरी करता था, लेकिन जब मेरा तबादला दिल्ली से गुवाहाटी कर दिया गया तो मैं वहां नही जा पाया। उन दिनों बेटे का पैर ख़राब था, जिसका इलाज दिल्ली में चल रहा था। आखिरकार अपने बेटे और परिवार के खातिर मैंने सरकारी नौकरी छोड़ दी। तब मेरे पास पूंजी का अभाव था। जम्मू-कश्मीर के उधमपुर जिले के एक गाँव में मेरा घर था, इसलिए वहां लौट नहीं सकता था। बस... मजबूरियां थी इसलिए यह दुकान शुरू की।
अपने यहाँ की मशहूर चटनी का राज खोलते हुए वह कहती हैं, 'हरी चटनी बनाना मैं बचपन से जानता था। फ़िर भी, हमेशा कुछ न कुछ नया करने की कोशिश करता रहता था। वह आज भी नही भूले वह दिन, जब यह दुकान खोली थी तब यहाँ नास्ते की एक भी दुकान नहीं आज दर्जनों ढाबे यहाँ खुल चुके हैं. फिर भी इनके हाथो से बनी स्वादिष्ट हरी चटनी के साथ ब्रेड-पकौडों स्वाद चखने का मौका कोई भी मिस नही करना चाहता।
वर्ष २००५ में सिविल सेवा में तीसरे रैंक पर रहे रणधीर कुमार कहते है कि जो छात्र बेरसराय में रह चुके हों, वे शर्माजी की चाय और ब्रेड-पकौडों का स्वाद भला कैसे भूल सकता है। वहीँ, सीए फाइनल के छात्र राज के अनुसार साबूदाने से बने यहाँ के चटपटे नमकीन का स्वाद वह कभी नही भूल सकते। साबूदाने से बने इस चटपटे नमकीन 'मनोरंजन' को बच्चे भी कम पसंद नही करते। हालाँकि यहाँ के ब्रेड पकौडे तो सालों से सबकी पसंद है ही। 'लन्दन की मीडिया ने कई साल पहले यहाँ आकर मेरा साक्षात्कार लिया था', कहते हुए चमक उठती हैं शर्माजी की आँखें। वह खुश हैं की देश के सर्वष्ठ प्रतियोगिता की तयारी का रहे छात्रों के संपर्क में रहते हैं। उन्हें बहुत खुशी होती है जब कोई छात्र अपना मुकाम पा लेता है।
क्या कभी लौटकर वे आपके पास आते हैं ? पूछने पर शर्माजी कहते हैं, 'बिल्कुल।' मुझे यह बताते हुए बहुत खुशी हो रही है की ऐसे कितने ही लोग हैं, जो प्रतियोगिता परीक्षा पास करने के बाद या लंबे समय तक देश की सेवा में जुटे रहने के बाद भी इधर से गुजरते हुए हमारे पास आए हैं। अपनी खुशी का इजहार मैं शब्दों में नही कर सकता की इतने सालों बाद भी मेरे हाथों का स्वाद उन्हें मेरे पास खिंच लता है।' ऐसे किसी भी छात्र से बाद में आपको किसी भी तरह की मदद भी मिली? सवाल के जवाब में वह कहते हैं, 'मैंने आज तक किसी से कुछ भी नही माँगा।'
अपने हुनर पर शर्माजी को इतना यकीं है की वे अक्सर दुकान के लिए नई-नई चीजें बनने और प्रयोग करना बेहद अच्छा लगता है। मेरे यहाँ खाने की कितनी वेरायटी आपको मिल जायेगी। तो यदि आप भी जिन्दगी में कुछ कर दिखने के लिए बेरसराय में रहकर परीक्षा की तैयारी कर रहे हों तो हाथों से बने इन स्वादिस्ट व्यंजनों और चाय की चुस्की लेना न भूलें।
हाँ, एक जरूरी बात। मंदी का असर भले ही आपको चारों ओर नजर आ रहा हो, लेकिन शर्माजी को महंगाई की मर ने आज भी परेशान नही किया है। आज भी उनकी दुकान में ब्रेड-पकौडे, मालपुवे, मनोरंजन की कीमत मात्र पांच रूपये और समोसे और कचौडी की कीमत चार रूपये ही रखी गई है। इससे पहले की आप यहाँ पहुंचें, खड़े होकर खाना सीख लें, क्योंकि यहाँ बैठने के लिए कुर्सी नही मिलेगी। आपको खड़े होकर या फ़िर सीधी पर बैठकर ही पेट पूजा करनी होगी.
9/10/2009
9/09/2009
मुझे लड़नी है एक छोटीसी लड़ाई
लेकिन सुबह कि बात शाम में कोई याद रखता है तो दूसरा भूल जाता है। दूसरा याद रखता है तो पहला भूल जाता है। रात कि बात सुबह होते ही अँधेरे में विलीन हो जाता है और सूर्य की नई किरण के साथ फिर नई सुबह होती है दोस्ती की। फिर इंतजार होता है फोन आने का, आग आख़िर दोनों तरफ लगी है। तभी तो पिछले छह माह से यह क्रम चलने के बाद भी अक्सर बातें होती हैं दोनों के बीच। हालचाल पूछते हैं दोनों। दोनों की रातें एक जैसी ही कटती हैं, करवट बदलते-बदलते हुए। दिन होते ही दोनों लग जाते हैं अपने-अपने कामों में। दोनों कामों में ऐसे खो जाते हैं की दुनियादारी का ख्याल ही नहीं रहता। काम के वक्त दोनों रहते मस्त लेकिन अकेले होते ही याद आती है एक-दूसरे की।
'कैसे मंजर सामने आने लगे हैं, गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं'
एक बोलता है सच्ची बात कि उसके लिए उसका प्रोफेशन ही सब-कुछ है लेकिन वह होता है पक्के तौर से झूठ। क्योंकि यदि ऐसा होता तो फिर दुनिया की बातें उसे याद कहाँ रहती। अपने दोस्त की हर बात क्यों याद रहती। पूरे दो साल के दौरान अपने दोस्त के साथ रहे हर पल कैसे याद रहते। हर प्यार और झगडे के रवानगी कैसे याद रहती। दूसरा कहता मैं तो पिछले दो साल से सिर्फ तुम्हें जानता हूँ।
कब तक चलेगा यह दोस्ती और झगडे का मामला। दोनों एक दूसरे पर जमकर दोषारोपण करते हैं। यहाँ तक की गालियाँ भी अनचाहे मुंह से निकल जाती है। फिर भी एक दूसरे के बिना दोनों को मन नहीं लगता। आखिर कब तक चलेगा यह। आखिर कब आएगा जब दोनों सारी गलतफमियों, शिकायतों को किसी आग में जलाकर एक हो दुनिया के सामने होंगे। क्योंकि मन में एक प्यार तो है ही भले ही कितना किसी पर दोषारोपण करें, झगडा करें, गुस्सा करें।
मुझे लड़नी है एक छोटी—सी लड़ाई
एक झूठी लड़ाई में मैं इतना थक गया हूँ
कि किसी बड़ी लड़ाई के क़ाबिल नहीं रहा.
मुझे लड़ना नहीं अब...
9/06/2009
मिट्टी से निर्मित कुएं मिले
दरअसल गत वर्ष आई प्रलयकारी बाढ़ के वक्त आनंदपुरा-नेमुआ गांव के बीच पानी के बढ़ते दबाव के कारण सड़क टूट गयी जिसके कारण उस स्थल पर काफी गढ्डा हो गया। परंतु जलस्तर में फिलहाल काफी कमी आने के कारण कच्चे मिट्टी का छह कुआं को लोगों ने देखा तत्पश्चात इस संवाददाता ने स्थल निरीक्षण किया। निरीक्षण में देखा कि सही मायने में छह मिट्टी का कुआं वर्तमान में है ही। जिस कुएं का मिट्टी काफी कठोर है। लेकिन यह स्पष्ट नहीं हो पा रहा है कि कुआं कब का है। चूंकि मिट्टी के बने होने के कारण उस पर कुछ भी लिखा हुआ नहीं है। इस संबंध में ग्रामीण छत्री यादव एवं अन्य लोगों का कहना है कि अंग्रेज के जमाने में इस जगह नील की खेती बड़े पैमाने पर की जाती थी। हो सकता है कि मजदूरों को पीने के लिए पानी उपलब्ध कराए जाने के लिए इस कुआं का निर्माण कराया गया होगा। लेकिन जिस कठोर मिट्टी का कुआं मिट्टी के नीचे देखने को मिल रहा है उस तरह की मिट्टी इस इलाके में उपलब्ध नहीं है। लेकिन इस तर्क से खुलासा इसलिए नहीं हो रहा है कि एक ही जगह छह कुओं का मिलना विश्वास नहीं जता पा रहा है।
अगर प्रशासन और शासन इसकी जांच पुरातत्व विभाग से कराए तब ही पता चल सकता है कि उक्त कुआं कब का है और क्या इसी जगह था या नहीं? खुदाई से यह भी स्पष्ट हो सकेगा कि कुआं के अंदर और कुछ भी है। अगर कुआं से कुछ प्राप्त होता है तो निश्चित रूप से उसे साक्ष्य के रूप में देखा और परखा जा सकता है।
इस संबंध में अनुमंडलाधिकारी दयानिधान पांडेय ने बताया कि इसकी सूचना सरकार को दी जाएगी और पुरातत्व विभाग से जांच कराने का आग्रह किया जाएगा। चूंकि गांव के वयोवृद्ध भी इस संदर्भ में कुछ भी बताने से इंकार कर रहे हैं। दरअसल मिट्टी से निर्मित कुओं का प्रचलन कब ओर किस परिस्थिति में हुआ था इसकी भी जानकारी किसी को नहीं है। वैसे लोगों ने यह भी माना है कि पूर्व काल में राजा-महाराजा इस प्रकार की कुएं का निर्माण कराया करते थे।
ऐसी संभावना व्यक्त की जा रही है कि हो सकता है ऐसे कुएं का निर्माण राजा के द्वारा किया गया हो और उसमें कुछ अद्भुत चीजें भी मिल सकती है। बहरहाल कुएं की चर्चा गांव-गांव में हो रही है लेकिन वास्तविकता से परे। इसकी जांच के बाद ही सही पता चल पाएगा।
साभार : दैनिक जागरण
9/05/2009
पेड़ वाली बाई ; सुनीति
ऐसे दौर में जहां सगे भी जन्म से लेकर मृत्यु तक साथ नहीं देते हैं, वहीं ये मूक वृक्ष जन्म से लेकर मृत्यु तक किसी न किसी रूप में हमेशा साथ देते हैं और बदले में कुछ नहीं मांगते। ऐसे में उनकी क्यों न रक्षा की जाए।
औघोगिकरण के लिए जिस तरह बहुमूल्य व विशष्टि पेड़ काटे जा रहे हैं, उनको हर हाल में रोकना होगा। जिस अनुपात में वृक्ष कट रहे हैं, उसी अनुपात में उन्हें लगाकर संरक्षित और सुरक्षित किया जाना चाहिए। यही वजह है कि उन्होंने पेड़ों को धर्म से जोड़ दिया। रक्षाबंधन आने पर सुनीति ने कई महिलाओं को इकट्ठा कर पेड़ों को राखी बांधकर उनकी रक्षा करने का संकल्प लिया।
सुनीति बताती हैं, ‘जशपुर की पनचक्की नर्सरी में लगी प्राइवेट जमीन पर पांच विशष्टि वृक्ष लगे थे। जमीन का मालिक उन्हें काटकर वहां दुकान बनाना चाहता था। उसने इसे काटने का आवेदन डीएम के पास दे रखा था। जब मुझे यह बात मालूम हुई तो मैंने निश्चय किया कि इन्हें हर हालत में बचाना है। रक्षाबंधन के मौके पर आसपास की महिलाओं को साथ ले विधिवत पूजा कर उनमें राखी बांधी दी। शाम तक देखा-देखी में आसपास की कई महिलाओं ने भी उन वृक्षों पर ढेर सारी राखियां बांध दीं। इसके बाद भूस्वामी ने उन पेड़ों को काटने का विचार छोड़ दिया। इस तरह वृक्षों को बचाने के लिए रक्षासूत्र बांधने के आंदोलन की शुरूआत हुई।’
इस सफलता से प्रभावित होकर सुनीति ने जशपुर वनमंडल की सहायता से प्रत्येक गांव में एक या दो वरिष्ठ वृक्षों का चयन किया। साथ ही राज्य में गठित ईको क्लब, वन सुरक्षा समितियों, महिला समूहों एवं स्वयंसेवी संस्थाओं को अपने आंदोलन में शामिल होने का आग्रह किया। इनके सहयोग से अप्रत्याशित परिणाम सामने आए। भिलाई शहर व आसपास के इलाकों के लोग नीम के पेड़ की डालियां तोड़कर ले जाते थे जिससे इनमें बढ़त नहीं हो पाती थी। इन पेड़ों को राखियां बांधने के बाद लोगों ने उसके पत्ते तोड़ने बंद कर दिए।
शुरूआती दौर में पेड़ों को भाई मानने की बात को लेकर लोगों के मजाक का पात्र बनने वाली सुनीति के लगन व अथक प्रयास का ही परिणाम था कि केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने सभी राज्यों को वृक्ष रक्षा सूत्र कार्यक्रम चलाने का निर्देश दिया। उनकी अगुवाई में शुरू हुआ यह आंदोलन छत्तीसगढ़ के अलावा मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, झारखंड, उत्तरांचल, राजस्थान, बिहार और उड़ीसा में फैल चुका है। उनके आंदोलन से प्रभावित होकर छत्तीसगढ़ राज्य वन विभाग राज्य में बम्लेश्वरी देवी मंदिर, डोंगरगढ़, महामाया मंदिर, अंबिकापुर सहित अन्य धार्मिक स्थलों पर पौध प्रसाद की परंपरा की शुरूआत की है। इसके तहत मंदिर में आने वाले श्रद्धालुओं को प्रसाद के रूप में पौधे दिए जाते हैं।
सुनीति यादव का कहना है कि ऐसे दौर में जहां सगे भी जन्म से लेकर मृत्यु तक साथ नहीं देते हैं, वहीं ये मूक वृक्ष जन्म से लेकर मृत्यु तक किसी न किसी रूप में हमेशा साथ देते हैं और बदले में कुछ नहीं मांगते। ऐसे में उनकी क्यों न रक्षा की जाए। ऐसी ही सोच उनके आंदोलन से जुड़ी हर महिलाओं की है, तभी तो इस आंदोलन को छत्तीसगढ़ के लोग ‘चिपको आंदोलन’ का दूसरा रूप मानते हैं।
9/03/2009
कई प्रतिभाशाली नेताओं पारी का असमय अंत
दुर्घटना का शिकार होने वाले नेताओं में महत्वपूर्ण नाम पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के पुत्र एवं कांग्रेस नेता संजय गांधी का है जिनकी 29 वर्ष पहले दिल्ली के सफदरजंग हवाई अड्डे पर ग्लाइडर दुर्घटना में मौत हो गई थी। इसी कड़ी में कांग्रेस के प्रतिभाशाली नेता राजेश पायलट आते है जिनकी 11 जून 2000 को जयपुर के पास सड़क हादसे में मौत हो गई थी। पेशे से पायलट राजेश ने अपने मित्र राजीव गांधी की प्रेरणा से राजनीति में कदम रखा और राजस्थान के दौसा लोकसभा क्षेत्र से निर्वाचित हुए। पालयट एक महत्वपूर्ण गुर्जर नेता के रूप में उभर कर सामने आए थे। उनके नरसिंह राव सरकार में गृह राज्य मंत्री रहते हुए तांत्रिक चंद्रास्वामी को जेल भेजा गया था।
माधव राव सिंधिया एक और महत्वपूर्ण नाम है जो असमय दुर्घटना का शिकार हुए। सिंधिया ने अपने राजनैतिक कैरियर की शुरूआत 1971 में की थी जब उन्होंने जनसंघ के सहयोग से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में गुना लोकसभा क्षेत्र से चुनाव मेें जीत दर्ज की थी। बहरहाल, 1997 में वह कांग्रेस में शामिल हो गए और 1984 में उन्होंने भाजपा के वरिष्ठ नेता अटल बिहारी वाजपेयी को ग्वालियर लोकसभा क्षेत्र से पराजित किया। सिंधिया ने विभिन्न सरकारों में रेल मंत्री, नागर विमानन मंत्री और मानव संसाधन विकास मंत्री का दायित्व संभाला। लेकिन 30 सितंबर 2001 को विमान दुर्घटना में उनकी असमय मौत हो गई।
तेदेपा नेता जी एम सी बालयोगी भी असमय दुर्घटना का शिकार हुए जब तीन मार्च 2002 को आंध/ प्रदेश के पश्चिमी गोदावरी जिले के कैकालूर इलाके में उनका हेलीकाप्टर दुर्घटनाग्रस्त हो गया। बालयोगी सबसे पहले 10वीं लोकसभा में तेदेपा के टिकट पर चुन कर आए। उन्हें 12वीं और 13वीं लोकसभा का अध्यक्ष चुना गया।
उघोगपति तथा राजनेता आ॓ पी जिंदल भी दुर्घटना का शिकार होने से असमय भारतीय राजनीति के पटल से आ॓²ाल हो गए। जिंदल आर्गेनाइजेशन को उघोग जगत की बुलंदियों पर पहुंचाने वाले आ॓ पी जिंदल हरियाणा के हिसार क्षेत्र से तीन बार विधानसभा के लिए चुने गए और उन्होंने प्रदेश के उुर्जा मंत्री का दायित्व भी संभाला। 31 मार्च 2005 को हेलीकाप्टर दुर्घटना में उनकी असमय मौत हो गई।
भाजपा के प्रतिभावान नेता साहिब सिंह वर्मा का नाम भी इसी कड़ी में आता है। वर्ष 1996 से 1998 तक दिल्ली के मुख्यमंत्री का पद संभालने वाले वर्मा 1999 से 2004 तक लोकसभा के सदस्य और केन्द्रीय मंत्री भी रहे। भाजपा के उपाध्यक्ष पद का दायित्व संभालने वाले साहिब सिंह वर्मा की 30 जून 2007 को अलवर॥दिल्ली राजमार्ग पर सड़क दुर्घटना में मौत हो गई।
इसी कड़ी में इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, ललित नारायण मिश्रा, दीन दयाल उपाध्याय का नाम भी आता है जिनकी आतंकवादी हिंसा या रहस्यमय परिस्थिति में मौत हुई। 31 अक्तूबर 1984 को इंदिरा गांधी की अपने ही सुरक्षाकर्मियों ने हत्या कर दी थी। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी भी आतंकवादी हमले के शिकार हुए जब श्रीपेरम्बदूर में चुनावी सभा के दौरान लिट्टे आतंकवादियों ने उनकी हत्या कर दी।
हालांकि उधर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के राजनीतिक सचिव अहमद पटेल, केंद्रीय मंत्री पृथ्वीराज चव्हाण और शैलजा उस समय बाल॥बाल बच गए थे जब 2004 में गुजरात में खाणवेल के पास उन्हें ले जा रहे हेलीकाप्टर का पिछला हिस्सा क्षतिग्रस्त हो गया था।
साभार : राष्ट्रीय सहारा
9/01/2009
मेरी तो सहानुभूति है भाजपा के साथ: के.एन.गोविन्दाचार्य
मेरी तो सहानुभूति है भाजपा के साथ : के.एन.गोविन्दाचार्य
भाजपा की स्थिति वास्तव में चिंतनीय है। पुराने संबंधों के कारण मेरी सहानुभूति भी है। देश में विपक्ष इतना कमजोर और असंगठित होगा, यह शायद ही किसी ने कभी सोचा होगा। यह लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ी समस्या है और सार्थक लोकतंत्र के विकल्प के अभाव में देश अराजकता की लपटों में झुलसेगा। सभी सोचने-समझने वालों के लिए यह चुनौती भी है। मैं यह मानता हूं कि भाजपा में बहुत वर्षों से संगठनात्मक समस्याओं का इलाज नहीं हुआ। वैचारिक मुद्दों की सफाई की कोशिश नहीं हुई है। वैज्ञानिक कार्य-शैली विकसित नहीं की जा सकी है। उसका परिणाम अब सामने आ रहे हैं जो बदहवासी और हड़बड़ी के रूप में अभिव्यक्त हो रहा है।
भाजपा में बहुत वर्षों से संगठनात्मक समस्याओं का इलाज नहीं हुआ। वैचारिक मुद्दों की सफाई की कोशिश नहीं हुई है। वैज्ञानिक कार्य-शैली विकसित नहीं की जा सकी है। उसका परिणाम अब सामने आ रहे हैं जो बदहवासी और हड़बड़ी के रूप में अभिव्यक्त हो रहा है.
आडवाणी का पाकिस्तान में जिन्ना की मजार पर जाना और अधकचरी जानकारियों के आधार पर जिन्ना जैसे संवेदनशील मुद्दे पर जसवंत सिंह का किताब लिखना, दोनों ही वैचारिक असंवेदनशीलता के उदाहरण हैं। यदि आडवाणी में वैचारिक स्पष्टता होती, तो वे जिन्ना की मजार पर जाने के बजाय रणजीत सिंह की समाधि पर माथा टेकने गए होते। कंधार कांड के समय करीब डेढ़ सौ अपहृत लोगों की प्राण रक्षा की बजाय पिछले साठ बरसों में हताहत हुए हजारों जांबाज सिपाहियों के बलिदान से वे प्रेरणा लेते। आतंकवादियों को खत्म किए होते, न कि विभिन्न जेलों में बंद आतंकवादियों की रिहाई की बात करते।
मेरा मानना है कि दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद से दूर भाजपा नेतृत्व जा रहा है और इसके लिए नए पैंतरे या शब्दों के प्रयोग किये जा रहे हैं। भाजपा की नीतियां सरकार की प्रति-नीतियों में तब्दील हो गई हैं। दिशा-दर्शक तत्व के नाते मैं यह कह सकता हूं कि भाजपा नेतृत्व ने इसको अंगीकार नहीं किया। मसलन, एक तरफ अखिल भारतीय अध्यक्ष कहते हैं कि विचारधारा से कोई समझौता नहीं होगा, ऐसे में उन्हें इस बात का उत्तर देना होगा कि सत्ताधारी राज्यों में बेतहाशा बढ़ाए गए शराब के ठेके के मामले में हिन्दुत्व विचारधारा कहां गई? उसी प्रकार उत्तराखंड में गंगा के साथ जो छेड़छाड़ की गई, उसमें भारत की स्मिता कहां गई? मध्य प्रदेश या राजस्थान में जितने भ्रष्टाचार के मामले सामने आए या पनपे, उस वक्त विचारधारा कहां चली गई? ऐसे सवाल चाहे मूल आधारित हों या प्रतीकों में उस वक्त खड़े हुए हैं, जब विचारधारा पर कायम रहने की बात कही जाती रही है।
मुख्तार अब्बास नकवी से लेकर वरूण गांधी के जो बयान आए, वे किस विचारधारा से प्रेरित थे? गुजरात में ‘सेज’ को रामबाण कहा गया। इसे एक ऐसी लग्जरी बस के तौर पर सामने लाया गया कि यदि अभी इस बस पर नहीं चढे़, तो आप पीछे छूट जाआ॓गे। ऐसे में एकात्म मानवतावाद जो स्वदेशीकरण पर आधारित था, उसका क्या हुआ? जिस तरह विनिवेश हो रहा है, उस पर पार्टी की विचारधारा क्या है? इन तमाम मुद्दों पर पार्टी में कभी बातचीत नहीं हुई। पार्टी को जब जो लगा कि सत्ता में आने के लिए यही ठीक है, वैसा ही मान लिया गया।
वर्तमान में, भाजपा की स्थिति ऐसी सेना की है, जिसके सिपाही लड़ने के लिए रणक्षेत्र में तैयार हैं लेकिन सेनापति और वरिष्ठ नायक दुश्मन को छोड़ आपस में ही लड़ रहे हैं। भाजपा के कार्यकर्ताओं की मन:स्थिति फिलहाल ऐसी ही है। और इसके लिए सत्ता का सुविधाभोगी और सत्ताधारी नेता काम नहीं आएंगे। उन्हें आगे क्या करना है, वे भाजपा के लोग ही सोचें।
जहां तक संघ की बात है, उसकी भूमिका हमेशा सलाहकार की रही है। संगठनात्मक भूमिका रही है। यह अलग बात है कि इस बार भाजपा की चिंतन बैठक से दो दिन पहले मोहन भागवत का साक्षात्कार छपा। संघ हमेशा संगठनात्मक धर्म निभाता रहा है और राजनीति से उसका कोई लेना-देना नहीं है। चूंकि भारत के सभी प्रमुख राजनीतिक दल अमीरपरस्त हो गए हैं, अल्पसंख्यकपरस्त हो गए हैं, तो भारत में भारतपरस्त और गरीबपरस्त का उभार होना जरूरी है। जब भारतीय जनता के पास तिरंगा कांग्रेस, भगवा कांग्रेस और लाल कांग्रेस के बीच किसी को चुनना हो, तो लाचारीवश उन्हें लगा कि लाल या भगवा कांग्रेस की तुलना में तिरंगा कांग्रेस क्या बुरा है? इन कांग्रेसों का सत्ता में आना वक्त का तकाजा है और ऐसे में लोकतंत्र खतरे में पहुंचेगा। गरीबों की आवाज संसद के बदले सड़कों पर गूंजेगी। देश अराजकता की लपटों में झुलसेगा। आगे की राजनीति और रणनीति भाजपा में सोची ही नहीं जा रही है।
शिमला में आयोजित ‘चिंतन बैठक’ चिंता बैठक के रूप में समाप्त हो गई। यह ऐसी स्थिति है कि ‘पढ़ने गए नमाज, गले पड़ा रोजा’। चिंतन करने गए थे, पार्टी के बारे में और निष्कासन की बात होने लगी। होशोहवास के साथ कोई भी निर्णय नहीं लिया जा रहा है। सब काम हड़बड़ में हो रहा है जो अधकचरे निर्णय के रूप में सामने आ रहा है। जब वसुंधरा से त्यागपत्र लेना ही था, तो उन्हें विधायक दल का नेता ही क्यों बनाया गया? बुनने-उधेड़ने की प्रक्रिया से पार्टी बच सकती थी। इस तरह दिशा और नियमों की समझ मनमर्जी और तात्कालिकता की शिकार हो गई।
: विनीत उत्पल
(यह आलेख राष्ट्रीय सहारा में छपा है )