वर्तमान दौर में हिंदी भाषा की स्थिति काफी खराब होती जा रही है। भाषा लगातार डीजेनरेट हो रहा है। शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी होता जा रहा है। जहां अखबार सिर्फ तीन रूपए की चीज है और एक बार पढ़ने के बाद उसकी अनिवार्यता खत्म हो जाती है वैसी स्थिति साहित्यिक पत्रिकाओं की नहीं होती। उसे पढ़ने के लिए जहां समय देना होगा, वहीं चिंतन भी अनिवार्य है।
वर्तमान में कहीं कोई विमर्श नहीं हो रहा है
जिस तरह फास्ट फूड ने पौष्टिक भोजन को हाशिए पर ला खड़ा किया है, उसी तरह तात्कालिकता, सूचना और मनोरंजन ने गंभीर चिंतन को धकिया कर बाहर कर दिया है। इसमें दूरदर्शन के अलावा निजी चैनल सहित तमाम संचार माध्यम शामिल हैं। वर्तमान में कहीं कोई विमर्श नहीं हो रहा है कि ऐसे में क्या किया जाए। ब्लॉग या दूसरे संचार माध्यमों के जरिए जो एक नई बात सामने आ रही है कि सुनाना सब चाहते हैं लेकिन सुनना कोई नहीं चाहता। विमर्श की पत्रिकाओं को लेकर कहना काफी मुश्किल है। पाठकों की कई श्रेणियां है लेकिन गंभीर पाठकों की श्रेणी लगातार बुजुर्ग होती जा रही है। एक्का-दुक्का ही युवा वर्ग के पाठक सामने आ रहे हैं जिसे लेकर चिंता लाजिमी है।
1 comment:
विनीत जी पाठक जो पढें और रुचि लें एसे लेखकों की पीढी बी बूढी हो गयी है। साथ ही साथ यह भी कहूंगी चूंकि आप हंस से जुडे हैं जो पढाये जाने की कोशिश है उसमें ही कितना गुड है? लेखक खेमेबाज है और अधकचरे यह बात सभी पत्रिकाओं पर लागू होती है हंस पर भी फिर कहाँ पाठक तलाश कर रहे हैं आप? साथ ही खोजिये कहाँ गये गंभीर श्रेणी के लेखक। वो केमे में नजर नहीं आयेंगे लेकिन अगर ढूंढ पाये तो पाठक आयेंगे अवश्य आयेंगे और गंभीर।
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