9/15/2009

विमर्श नहीं आंदोलन की जरूरत : रमेश उपाध्याय, संपादक, कथन

हिन्दी का भविष्य अच्छा है लेकिन आंदोलन की जगह साहित्य को महज विमर्श में तब्दील किया जाना गलत है। हिंदी के पाठक लगातार बढ़ रहे हैं। हिंदी के अखबारों और पत्रिकाओं के पाठकों में लगातार इजाफा हो रहा है। अनुदान भी मिलने लगे हैं, जो बेहतर भविष्य का संकेत है।

उत्तर आधुनिकतावाद के दौर में विमर्श को चलाया गया, वह गलत है।

इंटरनेट के कारण एक दुनिया के लोग दूसरी दुनिया से जुड़ रहे हैं। मैंने अपने ब्लॉग पर उदय प्रकाश और वर्धा विश्वविघालय को लेकर लिखा भी था कि सार्थक बहस चलाई जाए। इस युग में इंटरनेट इतना बड़ा साधन है लेकिन यहां भाषा काफी खराब लिखी जा रही है जिस कारण प्रबुद्ध पाठक इससे विरक्त हो रहे हैं। जहां तक साहित्यिक पत्रिकाओं का सवाल है, निराशा होती है क्योंकि यहां कोई आंदोलन नहीं है, कोई बहस नहीं है। हिंदी साहित्य की परंपरा आंदोलन की रही है, चाहे वह भक्तिकाल हो, छायावाद हो या नई कहानियों का दौर। आंदोलन चलाया जाना चाहिए।

उत्तर आधुनिकतावाद के दौर में विमर्श को चलाया गया, वह गलत है। स्त्री विमर्श हो या दलित विमर्श, इनके कारण साहित्य सीमित हो गया है। जबकि विमर्श के लिए ग्रामीण महिलाओं का दर्द है, दलित की गरीबी भी है। लेकिन साहित्यकारों ने तो नारी देह को ही विमर्श का मुद्दा बना दिया है। नारी देह को विमर्श से मुक्ति मिलनी चाहिए। इसी तरह दलित विमर्श को जाति तक सीमित कर दिया गया है। उसकी गरीबी को लेकर कोई बात नहीं करता। गांवों की पंचायतों में फैले भ्रष्टाचार साहित्य में कहीं नहीं हैं। साहित्य के दायरे में अब सवाल नहीं उठाया जाता।

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