अमेरिका और भारत की विदेश नीति एक जैसी नहीं है लेकिन अमेरिका पर दबाव तो है ही। हालांकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि वैश्विक आतंकवाद के मुद्दे पर विश्व के अधिकतर देश दबाव में हैं। कुछ हद तक यह दबाव महज दिखावा है। पाकिस्तान और भारत के मुद्दे पर अमेरिका दोनों को संतुष्ट कर रहा है।
विश्व आतंकवाद के मुद्दे पर सभी देश अलग-अलग दिख रहे हैं और सबकी अपनी-अपनी समस्याएं हैं। जहां तक भारत और पाकिस्तान की बात है, अमीर सईद को ट्रायल पर नहीं लिया जा रहा है। हर कोई जानता है कि उसके खिलाफ पर्याप्त सबूत नहीं है। उसके खिलाफ यदि चार्ज लाया भी गया तो उसे सबूतों के अभावों में बरी कर दिया जाए गा। इस कारण पाकिस्तान को उसके खिलाफ कोई भी कार्रवाई करने में नहीं बन रहा है।
आतंक के मुद्दे पर हमें अपनी लड़ाई खुद लड़नी होगी। खुद अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इसके खिलाफ आवाज बुलंद करनी होगी, अपनी नीतियों में बदलाव लाना होगा। जब आतंकवाद के मुद्दे पर हम दूसरे देशों की सहायता करेंगे तभी कोई हमारे कदम से कदम मिलाकर चलने के लिए आगे आएगा .
आतंकवाद के मुद्दे पर अमेरिका चाहता है कि उन्हें ज्यादा से ज्यादा सेना का साथ मिले। वह यह भी चाहता है कि एक ओर जहां पाक सेना तालिबान के खिलाफ अपनी जमीन पर लडाई लड़े वहीं अफगानिस्तान की ओर से अमेरिकी सेना दवाब बनाए । लेकिन ऐसा नहीं हो पा रहा है। अफगानिस्तान मामले में अमेरिका भारत से सैन्य सहायता चाहता है जिसे वह नहीं दे रहा है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सबकी अपनी-अपनी समस्याएं हैं। कोई भी देश किसी भी देश के लिए खासकर आतंकवाद के मुद्दे पर सामने नही आना चाहता।
अमेरिका में जब 9/11 की घटना हुई थी तब क्या भारत उसके साथ आया था, नहीं न। तो फिर मुंबई कांड सहित और आतंकवादी घटनाओं के बाद वह आपके साथ हो,यह कैसे हो सकता है। कई बार हाफिज सईद के खिलाफ यूए न में उस पर कार्रवाई करने का मामला सामने आया लेकिन चीन और रूस इसके खिलाफ खड़े थे। इस मामले पर वीटो लगाने की धमकी भी दे रहे थे। हालांकि बाद में सभी एकजुट भी हुए । दूसरे देश के साथ आतंकवाद के मुद्दे पर कैसे कोई हमारा साथ देगा, जब हम किसी की कोई सहायता नही करेंगे। हम अपेक्षा करते हैं कि आतंकवाद के मुद्दे पर दूसरे देश हमें सहायता करें लेकिन हमने किसकी सहायता की, जो हमारा कोई करेगा। अल-कायदा और तालिबान को खत्म करने के मामले में अमेरिका की किसी ने सहायता नहीं की। सिर्फ नेटो ही उसके समर्थन में सामने आया। अफगानिस्तान में उसके साथ कोई यूरोपियन देश भी शामिल नहीं है। अमेरिका चाहता है कि वहां भारत अपनी फौज भेजे लेकिन हम वहां फौज नहीं भेज रहें है क्योंकि हमारा वहा कोई इंटरेस्ट नहीं है। तालिबान के खात्मे से हमारा फायदा तो है, बावजूद इसके लिए मददगार नहीं बन रहे हैं।
यहां कहने को कुछ और करने की जब बारी आती है तो कुछ और किया जाता है। 9/11 के बाद हमने अमेरिका से कहा कि हम आपको सभी सहायता मुहैया करेंगे लेकिन कुछ नहीं किया गया। वह पाकिस्तान के खिलाफ कार्रवाई तभी करेगा जब उसका उससे कोई मतलब निकलेगा। अमेरिका को लगता है कि लश्करे तैयबा अब ज्यादा ताकतवर हो गया है और अल-कायदा कमजोर हो रहा है। अगर लश्कर, अल-कायदा की तरह बन रहा है तो उनकी रणनीति या भूमिका क्या होगी, यह सोचने वाली बात है। यदि ये आतंकवादी संगठन अमेरिका और भारत पर आक्रमण कर सकते हैं तो क्या वे दूसरे यूरोपीय देशों पर भी हमले कर सकते हैं।
इन दिनों पाकिस्तान भी इस मामले पर काफी दवाब में है। वहां भी आतंकवादी हमले हो रहे हैं। ऐसे में कैसे भारत पर होने वाले आक्रमण को लेकर पाकिस्तान पर दबाव बनाया जा सकता है। इसके लिए वहां हम सेना नहीं भेज सकते, डरा नहीं सकते। यदि पाक के भीतर इतनी संख्या में आतंकी हमले नहीं होते तो हम दबाव बना सकते थे। वहां की पूरी सेना तालिबान से निबटने में लगी है। बहरहाल, आतंक के मुद्दे पर हमें अपनी लड़ाई खुद लड़नी होगी। खुद अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इसके खिलाफ आवाज बुलंद करनी होगी, अपनी नीतियों में बदलाव लाना होगा। जब आतंकवाद के मुद्दे पर हम दूसरे देशों की सहायता करेंगे तभी कोई हमारे कदम से कदम मिलाकर चलने के लिए आगे आएगा।
--अजय दर्शन बेहरा (विदेश मामलों के जानकार)
1 comment:
अच्छा लेख पर सारे मुद्दे सही नही हैं मसलन,
अफगानिस्तान में उसके साथ कोई यूरोपियन देश भी शामिल नहीं है। नाटो में कौन है फिर ।
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