12/31/2010
माँ, मैं आरुषि
12/27/2010
यूथ, फैमिली और लाइफ
12/20/2010
गंभीर मुद्दे पर भटकती फिल्म
12/12/2010
नहीं बजता दिमाग का बैंड
फिल्म : बैंड बाजा बारात
निर्देशक : मनीष शर्मा
निर्माता : आदित्य चोपड़ा
कलाकार : रणवीर सिंह, अनुष्का शर्मा, मनमीत सिंह, मनीष चौधरी, नीरज सूद
दिल्ली की जिंदगी पर तो कई फिल्में बनी हैं लेकिन डीयू के यंगस्टर्स और करियर कांसस बिहेवियर को लेकर 'बैंड बाजा बारात" शायद ऐसी पहली फिल्म होगी। यंगस्टर्स की जिंदगी पर आधारित यह फिल्म यंगस्टर्स को नए-नए करियर और उसकी संभावनाओं के नजरिए दिखाती नजर आती है। फिल्म की अधिकतर शूटिंग दिल्ली में हुई है लेकिन शुरुआत में ही दर्शक आसानी से कहानी के क्लाइमेक्स को समझ जाता है। क्योंकि अधिकतर फिल्मों या यों कहें हमारी जिंदगी में यही होता है कि एक साथ काम करते-करते एक-दूसरे को समझने लगते हैं और फिर प्यार भी करने लगते हैं।
चूंकि निर्देशक मनीष शर्मा खुद डीयू से हैं, इसलिए लगता है कि उनके दिमाग में पहले से ही कहानी और लोकेशन तय था। उन्होंने दिल्ली के उन लोकोशनों पर शूटिंग की है जहां अभी तक किसी भी फिल्म मेकर्स की नजर नहीं गई है। डीयू के रामजस कॉलेज में पढ़ने वाली श्रुति (अनुष्का शर्मा) और हंसराज कॉलेज में पढ़ने वाले उसके दोस्त बिट्टू शर्मा (रणवीर सिंह) की यह कहानी है। एक ओर जहां श्रुति पढ़ाई खत्म करने के बाद वेडिंग प्लानर का बिजनेस करना चाहती है वहीं बिट्टू मस्तमौला है। श्रुति को लुभाने के लिए जहां वह पूरी रात जग कर उसके डांस के कैसेट तैयार करता हैं वहीं गांव में पापा के गन्ने के बिजनेस में न जाने की इच्छा के कारण वह श्रुति के बिजनेस में पार्टनर बन जाता है। दोनों के बीच पार्टनरशिप का अहम सिद्धांत है, 'जिससे व्यापार करो, उससे कभी प्यार न करो"।
दोनों साथ मिलकर अपनी कंपनी 'शादी मुबारक" को पहले मिडिल क्लास फैमिली से लांच करते हैं और धीरे-धीरे उस मुकाम तक ले जाते हैं जहां बड़े-बड़े लोगों की इच्छा होती है कि उसके यहां की शादी का सारा तामझाम 'शादी मुबारक" संभाले। दिल्ली के सैनिक फार्म से लेकर राजस्थान की भव्य शादियों में इनकी कंपनी की ही मांग होती है। धीरे-धीरे दोनों अपने कामों में इतने मशगूल हो जाते हैं कि अपने पार्टनरशिप के सिद्धांत को भूलकर एक-दूसरे से प्यार करने लगते हैं। एक रात जब दोनों अपनी पहली सफलता मना रहे होते हैं तभी कुछ ऐसा होता है कि दोनों के बीच के समीकरण बदल जाते हैं और बाद में श्रुति उससे कंपनी छोड़ देने के लिए कह देती है। दोनों के बीच दूरियां बढ़ती हैं और श्रुति अपना अलग बिजनेस शुरू की लेती है। बिट्टू भी 'हैप्पी मैरिज" नाम से दूसरी कंपनी खोल लेता है लेकिन दोनों के काम सही नहीं होते और उन पर काफी कर्ज हो जाता है। हालांकि एक भव्य शादी की तैयारी की चुनौती मिलने पर दोनों एकसाथ हो जाते हैं।
फिल्मी दुनिया में डेबू कर रहे रणवीर सिंह इंटरवल के बाद थोड़े से जमे दिखाई देते हैं, बावजूद इसके उन्हें अभी काफी कुछ सीखना है। यशराज फिल्म के बैनर तले अनुष्का शर्मा की यह तीसरी फिल्म है, फिर भी एक्टिंग में खुद को और डुबोना बाकी है। यह फिल्म चूंकि यंगस्टर्स को ध्यान में रखकर बनाई गई है, इसलिए ठीक है, वरना कोई बड़ा स्टार होता तो दोनों पानी मांगते नजर आते। फिल्म में अनुष्का और रणवीर के बीच लंबा लिप टू लिप किसिंग सीन तो हर किसी को खटता है, यह मनीष शर्मा की असफलता कही जाएगी। डायलॉग में दिल्ली के शब्द दर्शकों को फिल्म से जोड़ते हैं। इसके गाने लोगों की जुबान पर भले ही न चढ़ पाए हों लेकिन धुनें कर्णप्रिय हैं। बहरहाल, जिस तरह 'मूंगफली" एक तरह टाइम पास है, खाते हैं और भूल जाते हैं, उसी तरह इंटरटेनमेंट के लिए यह फिल्म टाइम पास है। नाम तो बैंड बाजा बारात है लेकिन आपके दिमाग का बैंड बजाए, इतना मसाला इसमें नहीं है।
11/10/2010
भानुमति का पिटारा ई-साहित्य
हिन्दी साहित्य के कंटेंट के साथ पहले से कई वेबसाइट मौजूद थे, जो पाठकों के सामने कहानी, कविता, लेख, नाटक, संस्मरण आदि को पेश करते रहे। ब्लॉग की दुनिया भी इससे अछूती नहीं रही। फिर भी मुट्ठीभर हिन्दी ब्लॉग जरूर है, जहां पोस्ट पढ़ने के बाद पाठकों को संतुष्टि मिलती है। सब जगह अपनी-अपनी भड़ास है, दूसरों को कोई क्यों सुने या लिखे। गौर करने वाली बात यह भी है कि भले ही आज के दौर में साहित्यिक गतिविधियों का केंद्र दिल्ली को माना जाता है, लेकिन वचरुअल स्पेस में तस्वीर अलग है। ’अनुभूति‘ और ’अभिव्यक्ति‘ नामक साहित्यिक पत्रिका का संचालन दुबई से की जाती है तो ’कल्पना‘ कनाडा से संचालित होता है।
हिन्दी साहित्य पर तो कई ब्लॉग और वेबसाइट है, मसलन प्रतिलिपि, रचनाकार, साहित्य-शिल्पी, कविता कोश, गद्यकोश, कबाड़खाना, अनुनाद, अभिव्यक्ति, कथा चक्र, बैतागबाड़ी आदि। यहां गाहे-बगाहे देश-विदेश के साहित्यकारों की रचनाएं लिखीं और पढ़ी जा रही है। कभी अनुवाद के तौर पर, कभी गाने के तौर पर तो कभी संस्मरण के तौर पर सर्वकालिक रचनाएं यहां मौजूद है। हालांकि कई कम्युनिटी ब्लॉग या और भी वेबसाइट है, जहां साहित्यिक रचनाओं के साथ- साथ दिलचस्प घटनाएं और बातें भी दिख रही है। मसलन, ’जानकीपुल‘ ब्लॉग को ही लें। क्या आपको मालूम है कि लोकनायक जयप्रकाश नारायण कविता और कहानी भी लिखते थे। उनकी कहानी ’टामी पीर‘ कितने लोगों ने पढ़ी होगी? क्या आप इससे इत्तेफाक रख सकते है कि भारतीय उपमहाद्वीप के लेखकों के लिए सफलता का बड़ा फामरूला विस्थापन है। वह भी तब, जब भारत में ही मेधा पाटकर की आवाज विस्थापन का दर्द है। क्या आपको मालूम है कि 2011 में शमशेर और नागार्जुन के अलावा गोपाल सिंह नेपाली की भी जन्म-शताब्दी है। ऐसी तमाम जानकारियों का खजाना है यह। इस ’पुल‘ होकर दुनिया जहान की ऐसी तमाम जानकारियां हर रोज गुजर रही है, जो शायद ही एक जगह इकट्ठी कहीं मिलें।
शायरों- अदीबों की गली बल्लीमारान के इतिहास में पाठकों को जाने के लिए मजबूर करते हुए ब्लॉगर प्रभात रंजन बताते है कि बल्लीमारान को बेहतरीन नाविकों के लिए जाना जाता था। मुगलों की नाव यहीं से नाविक खेया करते थे। गुलशन नंदा और जासूसी उपन्यासकार ओमप्रकाश शर्मा के बारे में लिखते है, ’जनवादी विचारों को माननेवाला यह जासूसी लेखक बड़ी शिद्दत से इस बात में यकीन करता था कि ऐसे साहित्य की निरंतर रचना होनी चाहिए, जिनकी कीमत कम हो तथा समाज के निचले तबके के मनोरंजन का उसमें पूरा ध्यान रखा गया हो। मजदूर वर्ग की आवाज उनके उपन्यासों में बुलंद भाव में उभरती है। ‘
’जानकीपुल‘ से गुजरने पर संतुष्टि मिलती है। पढ़ने का एक संतोष भी मिलता है। पाठकों के बीच इसकी पैठ का बड़ा सबूत है इस ब्लॉग के फॉलोअर्स की संख्या एक सौ से अधिक होना। क्योंकि आज भी, यदि किसी ब्लॉग को फॉलो करने वालों का आंकड़ा सैकड़ा पार है तो इसके पीछे का कारण सिर्फ और सिर्फ कंटेंट होता है। यहां कई ऐसे मुद्दे है, जिन पर विस्तार से बातें की गई है, मसलन आखिर भारतीय मूल के कनाडाई लेखक रोहिंग्टन मिी के उपन्यास ’सच ए लांग जर्नी‘ की कहानी क्या है, जिसके कारण शिवसेना के आदित्य ठाकरे ने मुंबई विश्वविद्यालय के सिलेबस से हटवाकर ही दम लिया।
बहरहाल, साहित्य या साहित्येतर जो भी हिन्दी ब्लॉग लिखे जा रहे है, उन पर रचनाएं या तो स्वमुग्ध है या फिर किसी दूसरे की। ’कहीं का ईंट, कहीं का रोड़ा, भानुमति ने कुनबा जोड़ा‘ का अर्थ साकार हो रहा है। इसके जरिए ’की बोर्ड‘ के सिपाही को एक प्लेटफॉर्म तो दिया जा रहा है या रचनाएं किसी की टीपी जा रही है लेकिन मौलिकता देखने को नहीं मिल रही है। आज भी हिन्दी ब्लॉग लेखन में मुट्ठीभर संचालक ही है, जिनमें लेखन-क्षमता है और पाठक उन पर विश्वास करते है। इं साहित्य या साहित्येतर जो भी हिन्दी ब्लॉग लिखे जा रहे है, उन पर रचनाएं या तो स्वमुग्ध है या फिर किसी दूसरे की। ’कहीं का ईंट, कहीं का रोड़ा, भानुमति ने कुनबा जोड़ा‘ का अर्थ साकार हो रहा है। यदि किसी ब्लॉग को फॉलो करने वालों का आंकड़ा सैकड़ा पार है तो इसके पीछे का कारण सिर्फ और सिर्फ कंटेंट है.
11/01/2010
बेटी के अस्तित्व पर चुप्प!
10/30/2010
जज्बा तो निजात आसान
सबकुछ पैसा या इलाज ही नहीं होता, सकारात्मक सोच भी बड़ी चीज होती है । यदि आपने बीमारी को छोटा आंका और तय किया कि यह मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकती और इसे ठीक करना है, तो इससे थोड़ी-बहुत परेशानी तो होगी, लेकिन कम से कम जान तो नहीं जा सकती
10/23/2010
अंग्रेजीदां ने हिन्दी कबूली
वाल स्ट्रीट जर्नल इंडिया द्वारा लांच ब्लॉ ग इंडिया रियल टाइम हिन्दी पर स्पष्ट लिखा हुआ है, जिन महत्वपूर्ण प्रसंगों पर विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र चर्चा कर रहा है, जिनका अभिन्न हिस्सा आप भी है, उन्हीं विषयों पर वाल स्ट्रीट जर्नल और डाव जोंस के पत्रकारों द्वारा लिखी गई व्याख्याएं आप यहां रोजाना पढ़ सकते है कुछ साल पहले जब हिन्दी ब्लॉगिंग की शुरुआत हुई थी तब शायद ही किसी ने सोचा होगा कि इंटरनेट की दुनिया में हिन्दी इस कदर छा जाएगी। यही कारण है कि जब आप गूगल पर अंग्रेजी में ’हिन्दी ब्लॉग‘ सर्च करते है तो 32 करोड़ रिजल्ट आपके सामने होता है। वही जब हिंदी में ’हिन्दी ब्लॉग‘ सर्च करते है तो यह आं कड़ा पांच लाख पार जाता है। पिछले दिनों जब वाल स्ट्रीट जर्नल इंडिया ने हिन्दी ब्लॉग लांच किया तो यह सोचना लाजिमी है कि आखिर हिन्दी किस तरह अंग्रेजी दुनिया में अपनी पैठ बनाने में सफल रही है। हालांकि वाल स्ट्रीट जर्नल का कहना है कि यह महज एक प्रयोग है और इसके जरिए इंडिक लैग्वेज कंजम्पशन पैटर्न को समझने की कोशिश की जा रही है। साथ ही क्वालिटी लेखकों और कंटे ट को सामने लाने की ओर ध्यान दिया जा रहा है। यह बात और है कि भारत की जिन मीडिया का काम हिन्दी में हो रहा है वह इंटरनेट की दुनिया में जरूर अपनी मौजूदगी दर्ज करा चुके है या करा रहे है। हिन्दी ब्लॉगर्स की ओर नजर डालें तो आलोक कुमार का ’9211‘ को हिन्दी का पहला ब्लॉग माना जाता है। 21 अप्रैल, 2003 में वह पहली बार लिखते है, ’चलिए अब ब्लॉग बना लिया है तो कुछ लिखा भी जाए इसमें। वैसे ब्लॉग की हिन्दी क्या होगी? पता नहीं।‘ उस दौर में उनकी दुविधा जायज थी लेकिन कुछ ही समय में हिन्दी ने ब्लॉगिंग की दुनिया में जो तरक्की की है, वह काबिलेतारीफ है। शुरुआती दौर में तकनीकी तौर पर हिन्दी पिछड़ता नजर आया। 2006 तक हिन्दी ब्लॉग की संख्या महज सैकड़े में थी जो अब 15 हजार के पार हो गई है। छह लाख से भी अधिक प्रविष्टियां यहां मौजूद है तो दो लाख से भी अधिक सांकेतिक शब्दों के जरिए ब्लॉग की दुनिया में घूमा जा सकता है। हिन्दी ब्लॉगों को लोकप्रिय बनाने में एग्रीगेटर ने काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। 2005-2006 में जीतू ने ’अक्षरग्राम‘ शुरू किया और फिर ’नारद‘ की शुरुआत हुई। 2007 में ’ब्लॉगवाणी‘ और ’चिट्ठाजगत‘ अस्तित्व में आया। कालांतर में सब ठंडे पड़े है लेकिन ’चिट्ठाजगत‘ आज भी मौजूद है। हालांकि इसके बाद और भी कई एग्रीगेटर मैदान में आए है लेकिन लोकप्रियता के मामले में कुछ खास नहीं कर पाए है। वर्तमान दौर में हिन्दी ब्लॉगर्स कई विषयों पर खूब लिख रहे है। चिट्ठाजगत ने तो बकायदा तकनीक, कला, समाज, इकाई, खेल, मस्ती और सेहत जैसे कॉलम बनाकर संबंधित ब्लॉग और पोस्टों को पाठकों के सामने परोस रहे है। ताज्जुब है कि अंग्रेजीदां लोग अब भारत और भारतीय भाषाओं को इतनी गंभीरता से ले रहे है। इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि वाल स्ट्रीट जर्नल इंडिया द्वारा लांच ब्लॉग इंडिया रियल टाइम हिन्दी पर स्पष्ट तौर से लिखा हुआ है, ’जिन महत्वपूर्ण प्रसंगों पर विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र चर्चा कर रहा है, जिसका एक अभिन्न हिस्सा आप भी है, उन्हीं विषय पर वाल स्ट्रीट जर्नल और डाव जोंस के पत्रकारों द्वारा लिखे गए व्याख्याएं आप यहां रोजाना पढ़ सकते है।‘ बीबीसी ने काफी पहले ही भारतीय पाठकों की नब्ज को देखते हुए ब्लॉग या फिर हिन्दी में वेबसाइट लांच किया था। हालांकि चीन और जर्मन रेडियो काफी अरसा पहले से ही खबरों के साथ-साथ तमाम बातें अपनी हिन्दी वेबसाइट के जरिए हिन्दी पाठकों के सामने परोस रहे है। |
10/22/2010
जिम्मेदार कौन?
आज भी बेटे और बेटियों में भेद किया जाता है। बेटे बाहर जाकर पढ़ेंगे लेकिन बेटियां घर पर रहकर बर्तन मांज-मांजकर रट्टा लगाने के लिए मजबूर है। शादी हुई तो तुरंत मां-बाप, सास-ससुर, ननद-भौजाई को संबंधों में ‘प्रमोशन’ पाने की ललक होने लगती है यह जाने बिना कि ‘लड़की’ शारीरिक और मानसिक तौर पर इसके लिए तैयार है भी या नहीं। कितनी आमदनी है, कितना खर्च होता है, भविष्य के क्या सपने है, आदि-आदि बात पर कैसे कोई गौर करेगा, अहम सवाल है?
क्या आपने कभी सोचा है कि आपके काम पर न जाने और घर में रहने से घरेलू बजट पर क्या प्रभाव पड़ता है। क्या एक बार भी लगा कि आपने नौकरी छोड़ दी है या नौकरी नहीं कर रही है तो घर का कर्ज कैसे निबटेगा। घर खरीद लिया है, बच्चों की पढ़ाई है, फिर सामाजिकता है, खान-पान है तो जाहिर सी बात है कि खर्च तो होता ही है। हालांकि इस मामले को सोचने की जहमत शायद ही कोई भारतीय परिवेश में उठाता हो। यहां महिलाओं को तो बंद चारदीवारी में रहना, बच्चों को पालना, सास-ससुर की सेवा करना आदि से ही फुर्सत नहीं मिलती है। पुरुषप्रधान समाज में इस हिसाब-किताब के चक्कर में महिलाएं नहीं पड़ती। विश्वास न हो तो अपने घर क्या आस-पड़ोसी के यहां जाकर हालात पर नजर डाल लीजिए।
10/20/2010
लहर ये डोले कोयल बोले.. अनजान
बनारस के लालजी पांडेय यानी गीतकार अनजान बचपन से ही शेरो-शायरी के शौकीन थे। हिन्दी फिल्मों में उनका योगदान अतुलनीय है 'डान‘ का ’खइके पान बनारस वाला.,‘ या फिर ’मुकद्दर का सकिंदर‘ का ’रोते हुए आते है सब..‘ आज भी लोग इन गानों को सुनकर झूम उठते है। इन गीतों को लिखने वाले का नाम है अनजान! यह कोई अनजान नहीं बल्कि अनजान ही है जिनका असली नाम था लालजी पांडेय। 28 अक्टूबर 1930 को बनारस में जन्मे अनजान का बचपन से ही शेरो-शायरी के प्रति गहरा लगाव था। अपने इसी शौक को पूरा करने के लिए वह बनारस में आयोजित लगभग सभी कवि सम्मेलनों और मुशायरों में हिस्सा लिया करते थे। हालांकिमुशायरांे में वह उर्दू का इस्तेमाल कम ही किया करते थे। जहां हिन्दी फिल्मों में उर्दू का इस्तेमाल पैशन था, वहीं अनजान अपने गीतों में हिन्दी पर ज्यादा जोर दिया करते थे। गीतकार के रूप में अनजान ने करियर की शुरुआत 1953 में अभिनेता प्रेमनाथ की फिल्म ’गोलकुंडा का कैदी‘ से की। इस फिल्म के लिए सबसे पहले उन्होंने ’लहर ये डोले कोयल बोले ..‘ और ’शहीदों अमर है तुम्हारी कहानी..‘ गीत लिखे लेकिन इस फिल्म से वह कुछ खास पहचान नहीं बना पाए। उनका संघर्ष जारी रहा। इस बीच अनजान ने कई छोटे बजट की फिल्में भी की जिनसे उन्हें कुछ खास फायदा नहीं हुआ। अचानक उनकी मुलाकात जी.एस. कोहली से हुई जिनके संगीत निर्देशन में उन्होंने फिल्म ’लंबे हाथ‘ के लिए ’मत पूछ मेरा है मेरा कौन वतन..‘ गीत लिखा। इस गीत के जरिये वह काफी हद तक अपनी पहचान बनाने में सफल हो गए। लगभग दस वर्ष तक मुंबई में संघर्ष करने के बाद 1963 में पंडित रविशंकर के संगीत से सजी प्रेमचंद के उपन्यास गोदान पर आधारित फिल्म ’गोदान‘ में ’चली आज गोरी पिया की नगरिया..‘ गीत की सफलता के बाद अनजान ने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। अनजान को इसके बाद कई अच्छी फिल्मों के प्रस्ताव मिलने शुरू हो गए। इनमें ’बाहरे फिर भी आएंगी‘, ’बंधन‘, ’कब क्यों और कहां‘, ’उमंग‘, ’रिवाज‘, ’एक नारी एक ब्राह्मचारी‘ और ’हंगामा‘ जैसी फिल्मों के गीत लिखे। इस दौर में वह सफलता की नई बुलंदियों को छू रहे थे और एक से बढ़कर एक गीत लिखे। 1976 में उन्होंने कल्याणजी-आनंदजी के संगीत में ’दो अनजाने‘ का गीत ’लुक छिप लुक छिप जाओ ना..‘ लिखा, जो अमिताभ बच्चन के करियर के अहम फिल्मों में से एक है। 80 के दशक में उन्होंने मिथुन चक्रवर्ती की फिल्मों के लिए भी गाने लिखे। आर.डी. बर्मन के लिए उन्होंने ’ये फासले ये दूरियां..‘, ’यशोदा का नंदलाला..‘ जैसी कालजयी गीत लिखे। लेकिन 90 के दशक में वे अस्वस्थ रहने लगे, बावजूद इसके उन्होंने ’जिंदगी एक जुआ‘, ’दलाल‘, ’घायल‘ के अलावा ’आज का अजरुन‘ के लिए ’गोरी है कलाइयां..‘ लिखा। उन्होंने अपनी जिंदगी का आखिरी गाना ’शोला और शबनम‘ फिल्म के लिए लिखा। ऐसा नहीं कि उन्होंने सिर्फ फिल्मों के लिए ही गाने लिखे। 60 के दशक में उन्होंने गैर फिल्मी गीत भी लिखे जिसे मोहम्मद रफी, मन्ना डे, सुमन कल्याणपुर ने गाये। अनजान 20 वष्रांे तक हिन्दी फिल्मों की दुनिया में छाए रहे। उनके गानों में भोजपुरी के अलावा बनारस की खुशबू रहती थी। 13 सितम्बर, 1997 को वह दुनिया से अलविदा कह गए लेकिन इसके कुछ ही महीने पहले उनकी कविता की किताब ’गंगा तट का बंजारा‘ का लोकार्पण अमिताभ बच्चन ने किया था। विनीत उत्पल ’डॉ 60 के दशक में उन्होंने गैर फिल्मी गीत भी लिखे जिन्हें मोहम्मद रफी, मन्ना डे, सुमन कल्याणपुर ने गाया। अनजान 20 वष्रांे तक हिन्दी फिल्मों की दुनिया में छाए रहे। उनके गानों में भोजपुरी के अलावा बनारस की खुशबू थी. |
10/19/2010
टूटे या खुले झूले पर
सब कुछ खुला हो तो आप कुछ नहीं कर सकते यह कम्प्यूटर की कोई फाइल हो सकती है खुला व्यवहार या बातचीत का दायरा भी हो सकता है नजर चुराने का मामला भी इसमें शामिल है ऐसा मेरे सहयोगी का कहना है और वह इस मामले के विशेषज्ञ हो सकते हैं जरूरी नहीं कि वह खुले दिल के ही हों जरूरी नहीं कि वह अपनी पत्नी, बच्चे या बॉस से खुले हों जरूरी नहीं कि मॉडर्न लड़कियों को लेकर उनकी सोच खुली हो जरूरी यह भी नहीं कि उनका लिखा खुला न होकर घिचपिच ही हो रेडियो को ऑन करने के बदले खोल दें तो कैसे बजेगा दरवाजा खुला हो तो कैसे मन का राक्षस जीवित हो सकेगा आखिर आदमीयत मारने के लिए कितना सहना पड़ता है आत्मसम्मान, नैतिकता, शिष्टाचार से मुंह फेरना पड़ता है आप खुले तौर पर कुछ भी नहीं कर सकते हमारे सहयोगी के साथ दिन के उजाले के चोर की तरह हैं वो जो नजरें चुराते फिरते हैं क्योंकि वे करते हैं कामचोरी-सीनाजोरी और चुगलखोरी तो धर्म है ही उनका फिर सब कुछ खुला-खुला हो तो कैसे हो सकती है बेइमानी खुल्लम खुला कैसे कर सकता है कोई किसी लड़की की छेड़खानी पिटाई होने का डर जो है, बदनाम होने का भी खुले तौर पर कैसे लड़की के चरित्र पर सवालिया निशान उठाया जा सकता है जब सड़क के किनारे या फिर मेट्रो स्टेशन पर हो बैठने के लिए काफी जगह आखिर थोड़ी-सी लज्जा भी छुपी है अंदर अभी तक अपनी बहन-बेटी के चरित्रता की नहीं कर सकते बात लेकिन ऑफिस में काम करने वाली महिला सहयोगी या सामने वाली खिड़की में रहने वाली कोमलांगी को लेकर खुले तौर पर नहीं बोल सकते, इसलिए क्यों न कर लें कानाफुसी टूटे या खुले झूले पर मन नहीं भर सकता खुलेआम हिंडोला न ही जमाने के सबसे बड़े और खुले तकिए पर मैं लिख सकता था अपना नाम सेक्सुअल जमाने में खुला हो सामने वाला तो घबराना जरूरी था नहीं तो हम हो जाते बदनाम आखिर हमाम में नंगे जमाने में एक हम थे जो न तो नंगा पैदा हुए और न ही नंगे मरेंगे यही भ्रम था जमाने से आखिर खुला दिमाग जो न था। |