भारत, पाकिस्तान और अफगानिस्तान जैसे त्रिकोण को लेकर अमेरिका की नजरिया क्या है? आखिर, आ॓बामा को अचानक अफगानिस्तान दौरे की क्यों सूझी और वह भी तब, जब आतंकवादी फिर से अपने पांव पसारने में लगे हैं?
भारत, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के साथ अमेरिका अपने रिश्तों को लेकर किस कदर कृतसंकल्प है, यह इस बात से जाहिर है कि इन दिनों आ॓बामा इन इलाकों की समस्याओं और उन्हें दूर करने के प्रयासों को लेकर पर्याप्त समय दे रहे हैं। उन्हें इस बात का अहसास है कि यहां की शांति और सुरक्षा-व्यवस्था अमेरिका के लिए अहम है। पिछले दिनों व्हाइट हाउस के प्रवक्ता राबर्ट गिब्स ने भी इस मामले को तवज्जो देते हुए कहा था कि अमेरिकी राष्ट्रपति इस क्षेत्र के देशों से बेहतर रिश्ते कायम करने के लिए पर्याप्त समय दे रहे हैं। 9/11 के बाद से अमेरिका ने तालिबान के खात्मे के लिए अफगानिस्तान में जो हालात पैदा किए, वह किसी से छिपे नहीं हैं। एक आ॓र जहां शांति का नोबल पुरस्कार मिलने के बावजूद बराक आ॓बामा अफगानिस्तान में सैनिकों की संख्या में इजाफा कर रहे हैं वहीं बरसों बाद भी न तो इराक की स्थिति सुधरी है और न ही अफगानिस्तान की। पिछले जून तक जहां अफगानिस्तान में करीब 80 हजार सैनिक मौजूद थे, वहीं बाद के दिनों में और तीस हजार सैनिकों की तैनाती की गई। बावजूद इसके विभिन्न देशों के कर्मचारियों पर आतंकवादी हमले कर रहे हैं। तीन बार भारतीय कर्मचारियों पर हमले किए जा चुके हैं। अफगान सरकार भारतीय कर्मियों को सुरक्षा देने में नाकाम रही है। यही कारण है कि भारत ने अफगानिस्तान में चलाए जा रहे सभी मेडिकल सहायता कार्यक्रम और शिक्षा से जुड़े प्रोग्रामों पर रोक लगाने का फैसला किया है। अफगानिस्तान से मादक पदार्थों की तस्करी जोरों पर है। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा जारी किए गए आंकड़ों के मुताबिक, विश्व में 90 प्रतिशत मादक पदार्थों का उत्पादन अफगानिस्तान में किया जाता है और रूस में इनका सबसे ज्यादा सेवन किया जाता है।
राष्ट्रपति चुनावों में गड़बड़ी का मामला लगातार आरोप-प्रत्यारोप के तौर पर सामने आ रहा है। एक आ॓र जहां राष्ट्रपति हामिद करजई ने संयुक्त राष्ट्र पर्यवेक्षकों पर पिछले साल हुए विवादित चुनावों के दौरान गड़बड़ी करने का आरोप लगाया था, वहीं इस बार संयुक्त राष्ट्र के पूर्व पर्यवेक्षक पीटर गॉलब्रेथ ने सफाई दी कि हामिद करजई के आरोप बेबुनियाद हैं। करजई अफगानिस्तान की चुनाव प्रक्रिया के लिए सभी पर्यवेक्षक स्वयं नियुक्त करना चाहते रहे हैं, जबकि संसद यानी जिरगा उन्हें ऐसा करने से रोक रही है। यह मामला किधर करवट लेगा, इसकी भविष्यवाणी करना आसान नहीं है। पिछले माह संयुक्त राष्ट्र महासचिव द्वारा भेजे गए विशेष दूत केई ऐड ने अफगानिस्तान की बिगड़ती स्थिति के लिए चेतावनी दी। उन्होंने कहा कि अगर अब भी कोई समाधान नहीं निकला तो अफगानिस्तान के हालात को काबू करना मुश्किल हो जाएगा। उनका कहना था कि अफगानिस्तान सैन्य तरीकों पर ज्यादा निर्भर होता जा रहा है जबकि राजनीतिक व नागरिक मामलों पर उसकी रूचि घटती जा रही है।
9/11 के बाद अफगानिस्तान में तालिबान के खिलाफ कार्रवाई में अमेरिका को कितनी सफलता मिली है, वह यक्ष प्रश्न है लेकिन वहां का बुनियादी ढांचा चरमरा चुका है, यह तथ्य किसी से छिपा नहीं रह गया है। यहां तक कि हॉलैंड और कनाडा ने अपने सैनिकों को इसी साल वापस बुलाने का फैसला कर लिया है। अमेरिकी राष्ट्रपति आ॓बामा ने भी घोषणा की है कि उनकी सेना जुलाई, 2011 में लौटनी शुरू हो जाएगी। अफगानिस्तान अब भी तालिबान या फिर स्थानीय लड़ाकुओं से जूझ रहा है, वहीं राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां लगातार वहां के लोगों के रहने-खाने जैसी मूलभूत सुविधाएं मुहैया कराने में लगी है लेकिन वे भी ज्यादा कारगर नहीं कर सकी हैं। राष्ट्रपति बनने के बाद पहली बार आ॓बामा ऐसे समय में अफगानिस्तान के दौरे पर आए, जब आ॓सामा बिन लादेन ने अमेरिका को एक बार फिर देख लेने की चुनौती दे डाली। ऐसे में सवाल है, आखिरकार भारत, पाकिस्तान और अफगानिस्तान जैसे त्रिकोण को लेकर अमेरिका की नजरिया क्या है? आखिर, आ॓बामा को अचानक अफगानिस्तान दौरे की क्यों सूझी और वह भी तब, जब आतंकवादी फिर से अपने पांव पसारने में लगे हैं? कौन-सी रणनीति पर अमेरिका काम कर रहा है और उसमें भारत की क्या भूमिका होगी?
यह आलेख राष्ट्रीय सहारा में तीन अप्रैल, २०१० को प्रकाशित हुआ है
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