9/27/2010

वो जब याद आए, बहुत याद आए.. असद भोपाली


90 की शुरुआत में जिन गीतों ने हर जवां दिल पर अपनी जगह बनाई थी, वह थे ’कबूतर जा जा जा..‘, ’दिल दीवाना, बिन सजना के माने ना..‘, ’आते-जाते, हंसते- गाते..‘। ’मैने प्यार किया‘ के इन गानों को संगीतबद्ध किया था रामलक्ष्मण ने और गीत थे असद भोपाली के। उन्हें ऐसे गीतकार में शुमार किया जाता है जिन्होंने फिल्म इंडस्ट्री में 40 साल तक का लंबा संघर्ष किया और जब उनका लिखा गीत सबकी जुबां पर था, गीतकार का फिल्मफेयर अवार्ड मिलना था तो वह बिस्तर पर थे।

किस्मत कब आपके साथ होती है, यह किसी को पता भी नहीं होता। यही बात असद साहब के साथ भी है। वे शायरी तो करते ही थे लेकिन हसरत थी कि फिल्मों के लिए गाने लिखें और उन्हें इसका मौका भी मिला

10 जुलाई, 1921 को भोपाल के इतवारा इलाके में पैदा हुए असद भोपाली का असल नाम असदुल्लाह खान था। पिता थे मुंशी अहमद खान। बचपन से ही पढ़ने-लिखने का शौक था और फिर कब लिखने लगे, किसी को कानोकान खबर तक नहीं लगी। किस्मत कब आपके साथ होती है, यह किसी को पता भी नहीं चलता। यही बात असद साहब के साथ हुई। वे शायरी तो करते ही थे लेकिन हसरत थी कि फिल्मों के लिए गाने लिखें। संयोगवश, 1940 के अंतिम दौर में मशहूर फिल्म निर्माता फजली ब्रादर्स ’दुनिया‘ नामक फिल्म बना रहे थे। फिल्म के गीत मशहूर शायर आरजू लखनवी लिख रहे थे लेकिन दो गीत लिखने के बाद वे पाकिस्तान चले गए। बाद में एस.एच. बिहारी, सरस्वती कुमार दीपक और तालिब इलाहाबादी ने भी गीत लिखे।

मगर, फजली बंधु और निदेशक एस.एफ. हसनैन लगातार नए गीतकार की तलाश कर रहे थे। इसी मकसद से उन्होंने 5 मई, 1949 को भोपाल टॉकिज में मुशायरे का आयोजन किया। फजली बंधु और निदेशक हसनैन खासतौर से मुशायरे में मौजूद थे। असद भोपाली ने उस दिन अपने कलाम से महफिल लूट ली और साथ ही फजली बंधुओं का दिल भी। फिर क्या था, अगले दिन भोपाल-भारत टॉकिज के मैनेजर सैयद मिस्बाउद्दीन साहब के जरिए असद साहब को पांच सौ रुपए का एडवांस देकर फिल्म ’दुनिया‘ के लिए बतौर गीतकार साइन कर लिया गया। कुछ दिन बाद असद बंबई रवाना हो गए।

असद भोपाली की पहली फिल्म बहुत बड़े बजट की ’अफसाना‘ थी, जिसमें अशोक कुमार, प्राण आदि थे। सालों साल तक वह एन.के. दत्ता, हंसराज बहल, रवि, सोनिक ओमी, ऊषा खन्ना, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल आदि संगीतकारों के साथ करते रहे। इस तरह असद भोपाली के फिल्मी सफर की शुरुआत हुई। ’दुनिया‘ के दो गीत ’अरमान लुटे, दिल टूट गया..‘ और ’रोना है तो चुपके-चुपके रो..‘ उन्होंने ही लिखे, लेकिन उन्हें ख्याति न दिला पाये। हालांकि काम मिलता गया लेकिन पहचान न मिली। हुस्नलाल-भगतराम के साथ फिल्म ’आधी रात‘ में दो ही गीत लिखे और दोनों को आवाज लता मंगेशकर ने दी। वे थे ’दिल ही तो है तड़प गया..‘ और ’इधर तो आओ मेरी सरकार..‘।

बीआर चोपड़ा की फिल्म ’अफसाना‘ में ’वो आए बहारें लाए, बजी शहनाई..‘, ’कहां है तू मेरे सपनों के राजा‘, ’वो पास भी रहकर पास नहीं‘ आदि लिखा। असद भोपाली उस वक्त बंबई पहुंचे जब फिल्म संगीत में नया मोड़ आ रहा था। शंकर-जयकिशन की पहली फिल्म ’बरसात‘ भी इसी साल रिलीज हुई। शैलेंद्र और हसरत जयपुरी जैसे दो गीतकारों का आगमन हो चुका था। साहिर, मजरूह, प्रेम धवन, जांनिसार अख्तर जैसे गीतकार पहले से मौजूद थे। 1963 में लक्ष्मीकांत- प्यारेलाल की पहली रिलीज फिल्म ’पारसमणि‘ का सबसे हिट गीत ’हंसता हुआ नूरानी चेहरा..‘ भी असद भोपाली का ही लिखा हुआ था। इसी फिल्म के गीत ’मेरे दिल में हल्की सी जो खलिश है.‘ और ’वो जब याद आए..‘ भी इन्होंने ही लिखे थे। 1964 की फिल्म ’आया तूफान‘ के सारे गीत हिट रहे और इन्हें असद साहब ने ही लिखे थे।

1965 की फिल्म ’हम सब उस्ताद है‘ में सफलता की वही कहानी दोहराई गई। संगीतकार रवि के साथ काम करने के दौरान असद भोपाली ने सदाबहार गीत ’ऐ मेरे दिले नादां.‘, ’मै खुशनसीब हूं..‘ लिखा। 29 दिसम्बर, 1989 को जब ’मैने प्यार किया‘ बंबई में रिलीज हुई तो फिल्म के सभी गीतों ने देशभर में धूम मचा दी। उन्हें साल के बेहतरीन गीतकार का फिल्मफेयर अवार्ड भी दिया गया लेकिन उसे लेने वह नहीं जा सके। 40 साल के अरसे में करीब 100 फिल्मों के लिए असद साहब ने 400 गीत लिखे। नौ जून, 1990 को वह दुनिया को अलविदा कह ग

9/20/2010

सोशल मीडिया की खुमारी


सोशल मीडिया को जो दौर चल रहा है, उससे आने वाले वष्रो में पत्रकारिता में व्यापक परिवर्तन होने से शायद ही कोई रोक सके, क्योंकि सभी चीजें ’हमलोग‘ से ’उनलोग‘ में बदल रही है। आज के दौर में पाठक, उनकी सहभागिता और योगदान काफी हद तक बढ़ा है। सोशल नेटवर्किग साइट्स की ओर नजर दौड़ाएं तो किसी भी खबर के छपने से पहले उन पर बहस और फीडबैक भी आने लगते है और बातें काफी आगे निकल जाती है। इससे डिजिटल मीडिया और प्रिंट मीडिया के संबंधों को आसानी से समझा जा सकता है, क्योंकि सोशल मीडिया के जरिए जहां आम पाठक अपनी राय देने में आगे रहते है, वही प्रिंट मीडिया में काफी समय लगता है।

जब कोई सेलिब्रिटी सोशल मीडिया के जरिए अपनी बात लोगों के बीच रखता है, तो वह तेजी से चैनलों और अखबारों में भी आती है

जब ’द गार्जियन‘ के एडिटर-इन-चीफ एलन रूसब््िराडजर कहते है कि वह दिन बीत चुका, जब कोई पत्रकार अंतरात्मा की आवाज के जरिए किसी खबर के तह तक पहुंचता था और अखबार की जबर्दस्त बिक्री होती थी। अब जितनी जानकारी कोई पत्रकार जुटाता है, तब तक सोशल मीडिया में वह मुद्दा उछल चुका होता है। फिर कुछ ही समय में वह बात नहीं रह जाती, क्योंकि कई लोग सोशल मीडिया के जरिए उससे जुड़े और भी मुद्दों को सामने लाते है तो कई उस पर अपनी राय देने से भी नहीं चूकते। ऐसे में, इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि पिछले पांच बरसों में इंग्लैड में अखबारों की बिक्री में 25 फीसद की कमी आई है।

सोशल मीडिया की ताकत को जानना हो तो ट्विटर और फेसबुक के आंकड़ों को देखें। जितने लोग इंटरनेट का यूज करते है, वे अपना एक चौथाई समय सोशल मीडिया पर ही खर्च करते है। ये लोगों को इसलिए भी आकषिर्त कर रहे है, क्योंकि इसमें ’कम्युनिकेशन‘ की असीम संभावनाएं है जो दोनों तरफ से होती है। चाहे पक्ष का हो या विपक्ष का, हर कोई अपनी बात रखने के लिए स्वतंत्र है। यहां संपादक की कोई भूमिका नहीं होती। पाठकों की सहभागिता, किसी मुद्दे पर बहस, प्रकाशित मामले और सुझाव के साथ-साथ विभिन्न विषयों पर व्यक्तिगत या सामूहिक आपत्ति मीडिया की तस्वीर बदलने के लिए आतुर है। यही कारण है कि वर्तमान में सोशल मीडिया के जरिए कोई सेलिब्रिटी जब अपनी बात लोगों के सामने रखता है तो वह खबर के रूप में टीवी चैनलों पर दिखती है या फिर दूसरे दिन अखबारों में पाठकों के सामने होता है।

सोशल मीडिया के आने से खबरों में भूल सुधारने और पारदर्शिता में भी इजाफा हुआ है। हालांकि इंटरनेट के दौर में पश्चिम के कई अखबार अब ऑनलाइन संस्करणों को पेड मोड में बदल गये है, बावजूद इसके पाठकों में कोई कमी नहीं आई है। वर्तमान दौर में विशेषज्ञ इस बात से सहमत है कि अखबार और इसकी खबर अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचे, इसके लिए इन्हें मोबाइल फोन और आई पॉड जैसे डिवाइज की सहायता ली जानी चाहिए। इन डिवाइज, सोशल मीडिया और प्रिंट मीडिया या फिर न्यूज चैनलों को जोड़ दिया जाए तो फिर पत्रकारिता की नई तस्वीर और इसकी तकदीर का आकलन आसानी से किया जा सकता है।


9/17/2010

न ये चांद होगा न तारे रहेंगे.. एच.एस.बिहारी

’न ये चांद होगा न तारे रहेंगे, मगर हम हमेशा तुम्हारे रहेंगे‘ गीत भले ही लोगों के जज्बातों को सामने लाने में सक्षम हो लेकिन यह बात भी सच है कि लोग गीत गुनगुनाते जरूर है मगर यह जानने की कोशिश नहीं करते कि उसे लिखा किसने है। मसलन ’न ये चांद होगा, न तारे रहेंगे..‘, ’देखो, वो चांद छुप के करता है, क्या इशारे..‘, ’सुभान अल्ला, हंसी चेहरा, ये मस्ताना अदाएं/ खुदा महफूज रखे हर बला से‘ आदि को ही लें, आज भी गुनगुनाए जाते है। इन गीतों को लिखने वाले थे एस.एच. बिहारी। वे थे तो सादा तबीयत सा दिखने वाले लेकिन ऐसे रूमानी थे कि अलग-अलग लफ्जों में अलग- अलग खूबसूरत रंगों में रंगे उनके गीत हमें आज भी हसीन अहसास देते है।

बिहार के आरा जिले में 1922 में शम्सउल हुदा बिहारी की पैदाइश हुई। कॉलेज की पढ़ाई कोलकाता में हुई जहां प्रेसीडेंसी कॉलेज से बीए की डिग्री हासिल की। वहां वे बंगाली भी सीख गए और पहले से हिंदी और ऊदरू तो आती ही थी। उस दौर में फुटबॉल इतने बेहतरीन खेलते थे कि मोहन बगान की टीम में भी चुने गए। लिखने-पढ़ने और शायरी का शौक भी था। बंबई में एक भाई पहले से रहते थे तो फिर क्या था अपनी मंजिल की तलाश में 1947 में बंबई पहुंच गए। काफी मशक्कत करने के बाद काम मिला। कई बार भूखे पेट सोने के लिए भी विवश हुए।

एच एस बिहारी भले ही सीधे सादे से दिखने वाले थे लेकिन उनमें कई ऐसे गुण थे जो उन्हें दूसरों से अलग पहचान दिलाते थे

1950 में फिल्म आई ’दिलरूबा‘ और इसका एक गीत था ’हटो-हटो जी आते है हम‘। बस यहीं से इनकी फिल्मी करियर की शुरुआत हुई लेकिन न ही यह गीत लोगों की जुबान पर चढ़ सका और न ही किसी की नजर में एस.एच.बिहारी ही। लेकिन इसी साल आई फिल्म ’निदरेष‘ और इसके बाद ’बेदर्दी‘, ’खूबसूरत‘, ’निशान डंका‘ और 1953 में ’रंगीला‘ में भी इन्होंने इक्का-दुक्का गीत लिखें जो लोगों की जुबां पर छाने में नाकाम रहे। 1950 के दौर में हेमंत दा के साथ उनके असिस्टेंट के तौर पर उस समय रवि काम कर रहे थे। जब वे स्वतंत्र रूप से संगीत देने लगे, तो उन्होंने भी बिहारी से नाता जोड़ा। 1954 में आई फिल्म ’शर्त‘ जिसका निर्माण किया था शशिधर मुखर्जी। इसमें संगीत था हेमंत कुमार का और गीत लिखे थे एस.एच. बिहारी और राजेंद्र कृष्ण ने। इसका गाना ’न ये चांद होगा, न तारे रहेंगे/मगर हम हमेशा तुम्हारे रहेंगे‘ जबर्दस्त हिट रहा।

1954 से 1957 के बीच आई फिल्म ’डाकू की लड़की‘, ’बहू‘, ’अरब का सौदागर‘, ’एक झलक‘ और ’यहूदी की लड़की‘ में इन्होंने गीत लिखा। 1960 के दशक में वे संगीतकार ओ.पी. नैयर के साथ जुड़ गए और उसके बाद एक से एक बेहतरीन गीत उन्होंने दिए। नैयर साहब उन्हें ’शायर- ए-आजम‘ कहा करते थे। दोनों ने मिलकर ’रातों को चोरी-चोरी बोले मोरा कंगना‘, ’आज कोई प्यार से दिल की बातें कह गया/ मै तो आगे बढ़ गई, पीछे जमाना रह गया‘, ’मेरी जान तुम पे सदके एहसान इतना कर दो‘ जैसे सदाबहार गीत फिल्मी जगत को दिए जिसे आज भी याद किया जाता है। फिर आशा भोसले और मोहम्मद रफी ने अपनी पुरकशिश आवाज से इनकी गीतों को अमर करने का काम किया।

1971 में रिलीज हुई फिल्म ’बीस साल पहले‘ जिसका गीत ’भूल जा तू वो फसाने, कल के गुजरे जमाने‘ आज भी लोग याद करते है। ’कश्मीर की कली‘ का गीत ’तारीफ करूं क्या उसकी जिसने तुम्हें बनाया‘ या फिर ’किस्मत‘ का गीत ’कजरा मोहब्बत वाला, अखियों में ऐसा डाला‘ आज भी गुनगुनाए और सुने जाते है। बिहारी ने संगीतकार श्यामसुंदर, शंकर-जयकिशन और मदन-मोहन के साथ काम किया तो लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल और बप्पी लाहिड़ी के लिए भी गीत लिखे। वे न तो साहिर की तरह विद्रोही थे और न शकील की तरह जज्बाती। उनका नेचर न तो शैलेंद्र की तरह था जो सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधित्व करता था और न ही मजरूह की भांति जिन्होंने शोख नगमे ही दिए। उनका मानना था जिस तरह जिंदगी में मुश्किलात है वैसी ही हालत फिल्मी दुनिया की भी है। 25 फरवरी, 1987 को हार्ट अटैक होने से उनकी मौत हो गई और वह सदा के लिए अलविदा कह गए।

9/15/2010

टार्चर बंद करो

किसी को टॉर्चर करना हो तो इसके लिए न तो किसी खास सब्जेक्ट की और न ही इसे सीखने के लिए कहीं ट्रेनिंग की ही जरूरत होती है। वह भी तब जब घर की बहू की बात हो। इस देश में जहां महिलाओं को देवी का दर्जा दिया गया है, वहीं प्रेगनेंसी के दौरान सबसे ज्यादा प्रताड़ित भी इन्हें ही किया जाता है। यह बात नये अध्ययन में सामने आई है, जिसके तहत पाया गया कि प्रेगनेंसी के दौरान या फिर इसके बाद भारत में सास- ससुर, ननद-देवर या फिर घर के और लोग जमकर प्रताड़ित करते है।
ठीक-ठाक आमदनी वाले घरों की एक चौथाई महिला प्रेगनेंसी के दौरान या इसके बाद या अलग-अलग तरीकों से घरेलू हिंसा की शिकार होती है। महिला को न तो पर्याप्त इलाज ही उपलब्ध कराया जाता है और न ही पौष्टिक आहार ही दिया जाता है
बोस्टन यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ के द्वारा कराए गए रिसर्च में हुए खुलासे चौकाने वाली हैं। रिसर्च की प्रमुख अनीता राज और उनकी टीम ने पाया कि ठीक-ठाक आमदनी वाले घरों की एक चौथाई महिला प्रेगनेंसी के दौरान या इसके बाद या तो घरेलू हिंसा की शिकार है या फिर अगल-अलग तरीके से ससुराल के लोग प्रताड़ित करते है। साथ ही महिला को न तो पर्याप्त इलाज ही उपलब्ध कराया जाता है और न ही पौष्टिक आहार ही मुहैया कराया जाता है। भले ही आज इस तरह के शोध जा रहे है लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है भारतीय समाज आज भी बेटे और बेटियों में फर्क नहीं कर पाया है।
अनपढ़-गंवार को तो छोड़ दीजिए। अपने आस-पास सिर घुमाकर देख लीजिए या फिर अपने परिवार में ही झांक लीजिए, तथाकथित पढ़े-लिखे परिवारों में भी एक अदद बेटे की खातिर बच्चों को जन्म देती रहती है मां। कब्रा में पिता के पैर झूलते रहते है लेकिन उनकी आत्मा एक बेटे के लिए तरसती रहती है। और तो और यदि बेटी पैदा हो गई तो उस मां की नियति, वह मां ही बता सकती हंै। आधे दर्जन बच्चों के पैदा होने पर उनका लालन- पालन, पढ़ाई-लिखाई और फिर भारत जैसे संस्कृति प्रधान देश (जहां शादी में दहेज लेना और देना गर्व की बात समझी जाती है) में शादी वगैरह कैसे होता होगा, इसकी अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। हालांकि शोध में पाया गया कि प्रेगनेंसी के दौरान महिलाओं को शारीरिक तौर पर कम ही प्रताड़ित किया जाता है लेकिन 20 फीसद महिलाओं का कहना था कि प्रेगनेंसी के दौरान ससुराल के लोग दूसरों के सामने उन्हें या उनके परिवार वालों को प्रताड़ित करते रहते है।
मेटरनल एंड चाइल्ड हेल्थ जर्नल में छपे लेख के मुताबिक, एक महिला के ससुराल वालों को बेटे की लालसा थी लेकिन उसने बेटी को जन्म दिया। तो घर वालों का कहना था कि वह दूसरा बच्चा पैदा करे और उस बेटी को अपने जेठ को दे दे क्योंकि उन्हें बच्चा नहीं हो सकता है। कई बच्चों को जन्म देने पर जहां मां का स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है वहीं मां अपने बच्चे की सही परवरिश नहीं कर पाती है। और तो और इतने सारे बच्चों को पालते-पोसते यह समझ ही नहीं पाती ंहैं कि उनके बच्चे सही रास्ते पर है या गलत। यह एक बेटे के लिए तरसते मां-बाप जिंदा रहते ही देखने के लिए विवश होते है। न इन बच्चों को अपने करियर की परवाह रहती है और न ही अपने परिवार की।
बोस्टन यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ द्वारा कराए गए शोध सिर्फ भारत में ही नहीं ये मामले दक्षिण एशिया में महिलाओं की बदतर स्थिति को बयां करता है। शोध ने लोगों को इस मामले पर सोचने के लिए विवश कर दिया है कि पारिवारिक प्रताड़ना किस तरह भारतीय समाज में व्याप्त है। साथ ही पति के साथ-साथ ससुराल द्वारा होने वाली प्रताड़ना पर लगाम लगाने वाले कानूनों पर विचार करने की जरूरत है।

9/12/2010

ये जमीं चुप है आसमां चुप है.. खय्याम

खय्याम का पूरा नाम मोहम्मद जहूर खय्याम हाशमी है, जिन्हें बचपन में सादात हुसैन के नाम से पुकारा जाता था। उनका जन्म अविभाजित पंजाब के नवांशहर जिले के राहोन गांव में 18 फरवरी, 1927 को हुआ था। अभिनेता बनने की चाहत रखने वाले खय्याम बचपन में घर से भागकर फिल्म देखने जाते थे। लेकिन अभिनेता बनने की ललक ने उन्हें महज दस साल की उम््रा में दिल्ली आने के लिए मजबूर कर दिया। दिल्ली में उनके चाचा रहा करते थे जिन्होंने उनका एडमिशन स्कूल में करा दिया। लेकिन समय इतिहास बनने की कोशिश में था।

संगीत की लय को समझना इतना आसान नहीं होता वह भी तब जब उसके बोल काव्यमय हों। फिर साठ साल के फिल्मी करियर में महज 50 फिल्मों में संगीत देना खय्याम जैसा संगीतकार ही कर सकता है। उनकी कोई भी फिल्म चाहे हिट रही हो या फ्लॉप हर नगमा नायाब है। ’इन आंखों की मस्ती में..‘ और ’दिल चीज क्या है..‘ का संगीत आज भी जवां है

चाचा ने जब देखा कि खय्याम का मन पढ़ाई में नहीं लगता और उसकी दीवानगी संगीत और फिल्म के प्रति है, तो उन्होंने उन्हें संगीत की तालीम के लिए प्रोत्साहित किया। खय्याम से बड़े तीन और भाई थे और सभी पढ़े-लिखे होने के साथ ही काव्य रचना करने और संगीत सुनने के शौकीन थे। उन्होंने संगीत की शुरुआती तालीम मशहूर संगीतकार पंडित हुस्नलाल भगतलाल भगतराम और पंडित अमरनाथ से हासिल की। उसी दौरान वे लाहौर भी गए और उनकी मुलाकात पाकिस्तान के बड़े शास्त्रीय गायक और फिल्म संगीतकार बाबा चिश्ती जीए चिश्ती से हुई जिनके साथ उन्होंने छह माह तक काम किया। 1943 में वह मुंबई से लुधियाना वापस आ गए और काम की तलाश शुरू कर दी। लेकिन जीवन गुजारने के लिए पैसे की जरूरत तो थी ही। द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू हो चुका था। संयोगवश उनकी भर्ती सेना में बतौर सिपाही हो गई।

सेना के सांस्कृतिक दल का हिस्सा बनकर वे जगह- जगह नाटकों के माध्यम से लोगों को सेना में भर्ती होने के लिए प्रेरित करते थे। हालांकि दो साल काम करने के बाद उन्होंने सेना की नौकरी छोड़ दी और फिर चिश्ती बाबा से जुड़ गए। कुछ दिनों में ही निर्माता-निर्देशक बी.आर. चोपड़ा की नजर इन पर पड़ी और उन्होंने बाबा चिश्ती को 125 रुपए प्रतिमाह देने के लिए तैयार कर लिया। 1946 में खय्याम अभिनेता बनने के इरादे से मुंबई आ गए और अपने गुरु हुस्नलाल भगतराम से मिले जिन्होंने ’रोमियो एंड जूलियट‘

में जोहराबाई अंबालेवाली के साथ युगल गीत ’दोनों जहां तेरी मोहब्बत में हार के..‘ गाना गाया। उसी दौरान खय्याम ने एसडी नारंग की फिल्म ’जिंदगी‘ में अभिनय भी किया। उन दिनों संगीत में मौका मिलना आसान नहीं था इस कारण उन्होंने अजीज खान बुलो सी रानी और हुस्नलाल भगतराम जैसे संगीतकारों के सहायक के रूप में काम शुरू किया। उनकी मेहनत रंग लाई और फिल्म ’हीर-रांझा‘ में संगीत देने का पहली बार मौका मिला। उनका नाम फिल्म ’बीबी‘ से चमका जब उनके संगीत दिये गीत ’अकेले में वो घबराते तो होंगे..‘ हिट हुआ जिसे मोहम्मद रफी ने गाया था। पहली बार जिया सरहदी ने ’फुटपाथ‘ फिल्म में स्वतंत्र संगीत निर्देशक के तौर पर काम करने का मौका दिया। इसी फिल्म का गाना है, ’शामे गम की कसम..‘ जिन्हें क्लासिक गीतों में शुमार किया जाता है। उन्होंने राजकपूर अभिनीत फिल्म ’फिर सुबह होगी‘ में संगीत दिया।

इसके बाद तो संगीत जगत में तहलका मच गया और फिर खय्याम और साहिर की जोड़ी ने एक से बढ़कर एक खूबसूरत और दिलकश गीत लोगों को सुनने के लिए मजबूर कर दिया। अपने लंबे करियर के दौरान उन्होंने दो बार धमाकेदार बापसी की। पहली बार उन्होंने 1976 में यश चोपड़ा की फिल्म ’कभी-कभी‘ और दूसरी बार 1982 में मुजफ्फर अली की फिल्म ’उमराव जान‘ से। फिल्म ’रजिया सुल्तान‘ में संगीत देकर तो उन्होंने इतिहास ही रच दिया। जांनिसार अख्तर का लिखा, ’ऐ दिले नादां..‘ की पंक्ति ’ये जमीं चुप है, आसमां चुप है..‘ के दौरान जब सहरा की वीरानी और निस्तब्धता में संगीत भी मौन हो जाता है तो ऐसे में उन्हें दाद तो देनी ही होगी।

खय्याम ने हमेशा उन गीतकारों के साथ काम किया है जो कवि या फिर शायर रहे है। इनमें मिर्जा गालिब, दाग, वली साहब, अली सरदार जाफरी, मजरूह सुल्तानपुरी, साहिर लुधियानवी, नक्श लायलपुरी, निदा फाजली और अहमद वसी की रचनाओं को संगीत दिया है। उन्हें तीन बार फिल्म फेयर अवार्ड से सम्मानित किया गया और 2010 में लाइफ टाइम एचीवमेंट पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

ऑनलाइन डिक्शनरी

अंग्रेजी शब्दों के अर्थ और उनका रहस्यमय इतिहास ढूंढने में जो लोग टाइम पास किया करते थे या फिर जिन्हें डिक्शनरी के शब्दों में उलझना अच्छा लगता था, उनके लिए निराश करने वाली खबर है। 1989 से अब तक 80 लेक्सोग्राफर की मदद से जो ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी तैयार की जाती थी, वो अब कभी प्रिंट नहीं होगी। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस के सीईओ निजेल पोर्टवुड के मुताबिक, प्रिंट डिक्शनरी का बाजार अब नहीं रहा और इस पर खर्च करने से कोई फायदा नहीं है। माना जा रहा है कि अधिकतर लोग अब किताब के पन्ने पलटने की बजाय जानकारियों को पाने के साथ पढ़ाई और शोध के लिए ऑनलाइन रिसोर्स पर भरोसा कर रहे है।

ऑनलाइन डिक्शनरी थोड़ी महंगी है। वैट के साथ एक सप्ताह तक एक्सेस करने के लिए ब्रिटिश पौड और एक साल के लिए पौड खर्च करने होंगे। इसके विकल्प भी मौजूद है क्योंकि इसका पॉकेट वर्जन डिक्शनरी ऑनलाइन सेवा फ्री में उपलब्ध है

चूंकि ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी अब ऑनलाइन उपलब्ध होगी और दिसंबर तक वेब वर्जन को रीलांच भी कर दिया जाएगा, इसलिए इस पर काफी जोर-शोर से काम चल रहा है। इतिहास में ऐसा पहली बार होगा जब ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी के इस ऑनलाइन डिक्शनरी में पुरानी अंग्रेजी से लेकर वर्तमान अंग्रेजी के सभी शब्द मौजूद होंगे। इससे लोग शताब्दी पूर्व या फिर वैसे शब्दों से भी रूबरू हो सकेंगे, जिनका प्रयोग अब नहीं होता है। साथ ही लोग वैसे भी शब्दों को भी जान सकेंगे, जो पिछले कुछ दशकों से चलन में आए है। ऑनलाइन डिक्शनरी थोड़ी महंगी है और वैट के साथ एक सप्ताह तक एक्सेस करने के लिए सात ब््िराटिश पौड और एक साल के लिए 205 पौड खर्च करने होंगे। हालांकि इसके विकल्प भी मौजूद है क्योंकि इसका पॉकेट वर्जन डिक्शनरी ऑनलाइन सेवा फ्री में उपलब्ध है।

21वीं सदी की इस डिक्शनरी में 75,000 शब्द और मुहावरे है और 110,000 परिभाषा है। यह प्रेजेंटेबल है और इसकी परिभाषाएं भी संतोषप्रद है। शब्दों की व्युत्पत्ति सहित करीब 1.7 लाख शब्दों, मुहावरे और 2.7 लाख परिभाषाएं जाननी हों तो 40 पौड खर्च करने पड़ेंगे। यह बात और है कि इसमें दी गई परिभाषाएं काफी छोटी है और इनफॉम्रेशन कहां से ली गई है, इसकी जानकारी कहीं भी नहीं है। ऑनलाइन ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में चाहे ब्रिटिश हो या अमेरिकन अंग्रेजी, सभी के शब्द यहां मौजूद है। इस ऑनलाइन साइट पर 1,89,67,499 शब्द है, जो अंग्रेजी के 1,060 प्रमुख डिक्शनरियों से लिए गए है।

गौरतलब है कि ये डिक्शनरियां बिजनेस, आर्ट, मेडिसीन सहित तमाम भाषाओं की है। ऐसे में यह सवाल भी सामने आता है कि यदि अंग्रेजी भाषा को लेकर ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस इस कदर जागरूक है तो फिर इतने वृहद पैमाने पर बोली और समझी जाने वाली हिन्दी भाषा को लेकर जागरूकता क्यों नहीं है। और तो और भारत सरकार ने 18वीं अनुसूची में जिन भाषाओं को स्थान दिया है, उनकी लिपि और भाषा में कितनी किताबें छप रही है और ऑनलाइन काम कितना हो रहा है, यह अहम सवाल है।

9/03/2010

बैठी हूं तेरी याद का लेकर के सहारा...नूरजहां

नूरजहां को लोकप्रिय संगीत में क्रांति लाने और पंजाबी लोकगीतों को नया आयाम देने का श्रेय जाता है। विभाजन के बाद अपने पति के साथ वह बंबई छोड़कर लाहौर चली गईं इंतजार है तेरा, दिल बेकरार है मेरा, आजा न सता और, आजा न रूला‘ गीत आज भी लोग गुनगुनाते है। फिल्म ’बड़ी मां‘ का यह गीत है जिसे जिया सरहदी ने लिखा और संगीतबद्ध किया था दत्ता कोरेगांवकर ने। और तो और फिल्म ’गांव की गोरी‘ का गीत ’बैठी हूं तेरी याद का लेकर के सहारा, आ जाओ के चमके मेरी किस्मत का सितारा‘ के बोल देखिये। किस तरह दिल की वेदना शब्दों में पिरोकर सामने आती है। इन गानों को गाकर ’मल्लिका ए तरन्नुम‘ नूरजहां ने फिल्मी दुनिया को ऐसा अनमोल तोहफा दिया है जो आज भी लोगों के दिलों में बरकरार है।

’नूरजहां‘ का असली नाम ’अल्ला वसई‘ था। उनका जन्म 21 सितम्बर, 1926 को अविभाजित भारत के कसूर नामक स्थान पर हुआ था। उनके पिता-माता पेशेवर संगीतकार मदद अली और फतेह बीबी थे और वह उनकी 11 संतानों में से एक थीं। उनको बचपन से ही संगीत के प्रति गहरा लगाव था और पांच-छह साल की उम््रा से ही गायन शुरू कर दिया था। उनकी रुचि को देखते हुए मां ने उन्हें संगीत का प्रशिक्षण दिलाने का इंतजाम किया। उन दिनों कलकत्ता थियेटर का गढ़ हुआ करता था। इसी को ध्यान में रखकर उनका परिवार 1930 के दशक के मध्य में कलकत्ता चला गया। नूरजहां की गायकी से प्रभावित होकर संगीतकार गुलाम हैदर ने उन्हें केडी मेहरा की पहली पंजाबी फिल्म ’शीला‘ उर्फ ’पिंड दी कुड़ी‘ में उन्हें बाल कलाकार की संक्षिप्त भूमिका दी और एक गाना भी गवाया। वर्ष 1935 में रिलीज हुई यह फिल्म पूरे पंजाब में हिट रही। ’गुल-बकावली‘, ’यमला जट‘ और ’चौधरी‘ में नूरजहां ने बाल कलाकार के रूप में पूरे पंजाब में धूम मचा दी थी।

बाल कलाकार होने के बावजूद नूरजहां का नाम अपनी दूसरी ही फिल्म से प्रचार विज्ञापन में हीरोइन के बाद दूसरे नंबर पर आने लगा। ’फख््रो इस्लाम‘, ’मिस्टर 420‘, ’मिस्टर एंड मिसेज मुंबई‘, ’हीर सयाल‘, ’इम्पीरियल मेल‘ जैसी फिल्मों के आने के बाद यह तय हो गया था कि उनकी आवाज के बिना फिल्म हिट करना आसान नहीं है। जीवन के 21वें साल में नूरजहां ने भारत और हिंदी फिल्में छोड़ दीं। वह लाहौर चली गईं और निर्देशक के तौर पर उनकी पहली फिल्म ’चुनवे‘ सुपरहिट हुई। बाद में सिबतैन फजली की ’दोपट्टा‘, एम रशीद की ’पाटे खान‘ और मसूद परवेज की ’इंतिजार‘ भी सफल रही। यहां नूरजहां का कांट्रेट पंचोली आर्ट स्टूडियोज से हुआ। एक स्टेज शो के दौरान सैय्यद शौकत हुसैन रिजवी ने उन्हें अपनी पहली फिल्म ’खानदान‘ के लिए हीरोइन चुन लिया। अभिनेत्री के रूप में पहली ही फिल्म के बाद पूरे हिन्दुस्तान में उनके गीतों और उनके स्वाभाविक अभिनय की धूम मच गई और मुंबई के फिल्म निर्माता उन्हें मुंबई ले जाने के लिए लाहौर पहुंच गए। 1943 में वह बंबई चली आईं। महज चार साल की संक्षिप्त अवधि के भीतर वह अपने सभी समकालीनों से आगे निकल गईं। बंबई के फिल्म निर्माता वीएम व्यास की दो फिल्मों ’दुहाई‘ और ’नौकर‘ और जिया सरहदी की फिल्म ’नादान‘ के पिट जाने के बाद भी नूरजहां की शोहरत पर कोई असर नहीं पड़ा।

अमरनाथ की ’गांव की गोरी‘, शौकत हुसैन रिजवी की ’जीनत‘ और महबूब की गीतों से सजी रोमांटिक फिल्म ’अनमोल घड़ी‘, ’हमजोली‘ उनकी हिट फिल्म रही। ’अनमोल घड़ी‘ का संगीत नौशाद ने दिया था। उसके गीत ’आवाज दे कहां है‘, ’जवां है मोहब्बत‘ और ’मेरे बचपन के साथी‘ जैसे गीत आज भी लोगों की जुबां पर है। लता मंगेशकर भी नूरजहां को अपना गुरु मानती है। 1945 में नूरजहां की लोकप्रियता अपने पूरे शबाब पर थी। उनको लोकप्रिय संगीत में क्रांति लाने और पंजाबी लोकगीतों को नया आयाम देने का श्रेय जाता है। नूरजहां विभाजन के बाद अपने पति के साथ बंबई छोड़कर वापस लाहौर चली गईं। उन्होंने अपने से नौ साल छोटे एजाज दुर्रानी से दूसरी शादी की। उनकी पहली उर्दू फिल्म ’दुपट्टा‘ थी। इसके गीत ’चांदनी रातें..चांदनी रातें‘ आज भी लोगों की जुबां पर हैं। नूरजहां की आखिरी फिल्म बतौर अभिनेत्री ’बाजी‘ थी जो 1963 में प्रदर्शित हुई। उन्होंने पाकिस्तान में 14 फिल्में बनाईं जिसमें 10 उर्दू फिल्में थीं। पाकिस्तान में पाश्र्वगायिका के तौर पर उनकी पहली फिल्म ’जान-ए-बहार‘ थी। इस फिल्म का ’कैसा नसीब लाई‘ गाना काफी लोकप्रिय हुआ। उन्हें मनोरंजन के क्षेत्र में पाकिस्तान के सर्वोच्च सम्मान ’तमगा-ए-इम्तियाज‘ से सम्मानित किया गया था। 23 दिसम्बर, 2000 को दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया।