12/31/2010

माँ, मैं आरुषि

यह कविता आरुषि की मौत के ५० दिन बीतने पर लिखी थी. तारीख थी Sun, Jul 6, 2008 . 

माँ, मैं आरुषि
 
माँमैं आरुषि
वहीजिसे करती थी तुम प्यार
वहीजिसके लिए पापा देते थे जान
मैंवही जिसे स्कूल और सेक्टर में 
सभी करते थे दुलार
 
माँक्यों हो इस कदर परेशान
क्यों हो चिंतित
पापा क्यों गए जेल
क्यों है हमारा घर
संगीनों के साये में माँ। 
 
माँतुम नही जानती
मुझे किसी ने नही मारा 
उसी तरह,
जिस तरह
जेसिका लाल को किसी ने 
नहीं मारा
 
माँक्या मैं बेहया थी
क्या बदचलन थी मैं
क्या पापा के थे ख़राब चरित्र
बोलो  माँ,
अनीता आंटी भी ठीक नही थी क्या.
 
माँमैं तो मारी गयी
लेकिन हेमराज को किसने मारा
क्या गुनाह था उसका
क्यामेरे मरने में 
कृष्णा और राजकुमार का भी हाथ था
 
माँमैं आरुषि
पचास दिन बीत गए
क्या जाँच हुई
क्या हुई फजीहत
कोई कह रहा कांट्रेक्ट कीलिंग
तो आनर कीलिंग की भी हो रही है बात
 
माँयह पुलिस ही कर रही थी ना जाँच
मीडिया ट्रायल भी तो जम कर हुआ माँ
सच्चाई से हटकर सब कुछ हुआ
कलंकित करने का जमकर खेला गया खेल।
 
मांक्या खुशी के दिन थे
किसकी लग गयी बुरी नजर
क्या सबसे ख़राब हम ही थे
घर में और मोहल्ले में
 
मांसच बतलाना
क्या हमलोगों को अपनी इज्जत का 
नही था ख्याल
क्या मोहल्ले में हमारी कोई 
इज्जत ना थी
क्या समाज में हम इतने बुरे थे
सच बतलानासच्चाई क्या थी
 
मांआज पूछती हूँ तुमसे
नोयडा पुलिस ने क्या 
सच में की थी जाँच
उन्हें क्या मिला था सबूत
फ़िर किस हक़ से
हमें कर दिया कलंकित
और इज्जत को तार-तार
मांचुप क्यों हो
जबाब दो ना मां
 
मांमैं आरुषि
अब तो सीबीआई कर रही जाँच
ला डिटेक्टर और नार्को टेस्ट
क्या कभी बतलाया है सच्चाई
अब क्या होगा मां
क्या और कोई टेस्ट नही है माँ 
जिससे दूध का दूध और  पानी का पानी हो जाए
 
माँ,मानो या ना मानो
मेरी मौत का खुलासा नही होगा
ना कोई रिपोर्ट आयेगी 
और ना किसी को होगी सजा
माँदेख लेना सजा भी होगी तो निर्दोषों को
लेकिन दामन पर दाग लगेंगे ही
मेरी जैसी और आरुषि मरेंगी ही
 
माँसुनो मेरी बात
चाहे पुलिसतंत्र हो 
या हो न्यायतंत्र
सभी 
अपनी खामियां छिपाएंगे
लोगों को बर्गालायेंगे।
 
माँमर्डर करने वाले
सरेआम घूमेंगे
कभी नही बदलेगी परिस्थितियां
मानवता की
उडती रहेगी धज्जियाँ
 
माँचुप हो जा
रो मत
इंसाफ होगाअपराधी पकड़े जायेंगे
तबजब दमन को दागदार
ठहराने वालों के घरों की
आरुषि की अर्थी उठेगी
तभी खुलेगी नींद
तभी जागेंगे
इनके जज्बात
माँ, मैं आरुषि

12/27/2010

यूथ, फैमिली और लाइफ

राजश्री प्रोडक्शन की पहचान जिस तरह की फिल्मों के लिए है, काफी हद तक ’इसी लाइफ में‘ उसी लीक पर है। विधि कासलीवाल ने स्वच्छ मनोरंजक पारिवारिक फिल्म की परंपरा को आगे बढ़ाया है। अंतर यह है कि पारंपरिक और संस्कार के ईद-गिर्द आधुनिकता भी है। ’इसी लाइफ में‘ के जरिए कई बातें सामने आती हैं, मसलन छोटे और बड़े शहर के लोग एक-दूसरे के बारे में क्या सोचते हैं, थियेटर को लेकर लोगों की सोच क्या है। सबसे अहम यह कि शहरी युवाओं में संस्कार होते हैं या नहीं। हालांकि बखूबी यह दिखाने की कोशिश की गई है कि युवा पीढ़ी बिना बगावत किए भी घर के बुजुर्गो से अपनी बात मनवाने का माद्दा रखती है। साथ ही, संदेश देने की कोशिश भी की है कि विवाह जिंदगी नहीं, उसका एक हिस्सा है।
कहानी अजमेर में रहने वाले रवि प्रकाश (मोहनीश बहल) के इर्द-गिर्द घूमती है। वे आधुनिकता की अंधी दौड़ में अपने संस्कार को दूषित होने से बचाना चाहते हैं। उनकी रूढिवादी सोच अखबारी और टेलीविजन की खबरों से प्रखर होती है। उनकी बेटी राजनंदिनी (संदीपा धर) राज्य की टॉपर बनती है। वह आगे की पढ़ाई करना चाहती है, लेकिन रविप्रकाश इसके खिलाफ हैं। विदेशी खाना बनाना सीखने के बहाने राजनंदिनी की मां उसे आगे की पढ़ाई के लिए मौसी के पास मुंबई भेज देती है। मुंबई के कॉलेज में दाखिला लेने के बाद राजनंदिनी यानी आरजे कॉलेज की ड्रैमेटिक सोसायटी में शामिल हो जाती है। वहीं उसकी दोस्ती विवान (अक्षय ओबेरॉय) से होती है, जो ड्रैमेटिक सोसायटी का चेयर पर्सन और प्ले डायरेक्टर है। नेशनल प्ले काम्पिटिशन के लिए विवान और उसकी टीम शेक्सिपयर के नाटक को प्ले करने की तैयारी करते हैं। नाटक का लीड रोल आरजे को मिलता है और वह अपना लुक भी बदल लेती है। आखिर तक दोनों अपने मन की बात एक-दूसरे से कह नहीं पाते। हालांकि नये और पुराने के बीच की यह कहानी दर्शकों पर कुछ खास असर नहीं छोड़ती।
’इसी लाइफ में‘ की स्क्रीन प्ले ’हम आपके हैं कौन‘ की तरह है। पहले एक घंटे तक कहानी उसी तर्ज पर है पर इंटरवल के बाद फिल्म रोचक बनी है। कहानी का प्लॉट नया कतई नहीं है। हां, थियेटरकर्मियों को परिवार से न मिलने वाले सपोर्ट का दर्द पूरी फिल्म में है। नई अभिनेत्री संदीपा धर ने बखूबी राजनंदिनी का किरदार निभाया है, जिसकी मुस्कान के साथ आंखें काफी कुछ कह जाती हैं। विवान के किरदार में अभिनय और डांस का बेहतर प्रदर्शन अक्षय ओबेरॉय ने किया है। सलमान खान का बस गेस्ट एपीयरेंस है। मोहनीश बहल ठीक-ठाक हैं। फिल्म का संगीत इतना आकषर्क नहीं बन पाया है जो दर्शकों को गुनगुनाने के लिए मजबूर करे। 
फिल्म : इसी लाइफ में 
मुख्य कलाकार : अक्षय ओबेरॉय, संदीपा धर, मोहनीश बहल, आदित्य राज कपूर आदि
निर्दे शक : विधि कासलीवाल
निर्माता : कमल कुमार बड़जात्या, राजकुमार बड़जात्या, अजीत कुमार बड़जात्या

12/20/2010

गंभीर मुद्दे पर भटकती फिल्म

क्षेत्रवाद के आंधी में राजनीति उठापटख खूब होती है लेकिन इसकी शिकार होती है आम जनता। खासकर पिछले कुछ सालों से महाराष्ट्र हो या असम, हर जगह क्षेत्रवाद का बोलबाला रहा। इसे भुनाने में फिल्मकार भी पीछे नहीं रहे। हालांकि यह और बात है कि ऐसी फिल्मों को दर्शकों ने कभी भी हाथोंहाथ नहीं लिया है। ऐसी ही मामले को लेकर कुछ अर्सा पहले फिल्म आई थी 'देशद्रोही"। इसके जरिए कमाल खान ने महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों के संघर्ष को दिखाया था। इसी परंपरा की फिल्म '332-मुंबई टू इंडिया" भी है। 
फिल्म की कहानी सच्ची घटना पर आधारित है, जब 27 अक्तूबर 2008 को पटना के राहुल राज ने मुंबई में बेस्ट की एक बस का अपहरण किया था और जिसे पुलिस ने इनकाउंटर कर मार गिराया था। फिल्म '332-मुंबई टू इंडिया" में कुंठा में जी रहा राहुल अंधेरी-कुर्ला के बीच चलने वाली बेस्ट की डबलडेकर बस का अपहरण करता है और बस की ऊपरी फ्लोर पर मौजूद यात्रियों को बंदी बनाता है। फिल्म में सामानांतर तौर पर बीएचयू के हॉस्टल में रह रहे महाराष्ट्र के लड़के और उसके साथियों के अलावा मुंबई की लड़की और उत्तर भारत के लड़के के बीच के प्रेम-प्रसंग और विवाह की कहानी भी चलती है। लेखक निर्देशक महेश पांडे ने सच्ची और गंभीर विषय पर करीब पौने दो घंटे की फिल्म तो बनाई लेकिन सही तरीके से पूरे मामले को दर्शकों के सामने नहीं रख सके। क्योंकि फिल्म आखिर तक भटकती नजर आती है। पूर्वांचल में मनाए जाने वाले छठ पर्व और टीवी चैनल पर इससे और उत्तर भारतीयों को लेकर दिखाई जा रही खबरें भी फिल्म में अपरोक्ष किरदार के तौर पर दर्शकों के सामने है।
हालांकि उत्तर भारतीय बनाम मराठी विवाद को एक आम आदमी के नजरिए को दर्शाने वाली यह फिल्म है जिसमें आम आदमी सुबह से लेकर शाम तक रोजगार की लड़ाई लड़ता रहता है। मामले की गहराई में उतरने के साथ कुछ ट्विस्ट होता तो बेहतर हो सकता था। हालांकि नए स्टार्स ने काफी मेहनत की है, बावजूद इसके वे दर्शकों को खुद से बांध नहीं पाते। हालांकि बिहार के किसी पिता की बेचैनी और बस में यात्रियों के बेबसी दर्शकों को बखूबी फिल्म से जोड़ने का माद्दा रखते हैं। अंतिम दृश्य में एकता का संदेश देने के लिए ताज पर आतंकी हमले के बाद के परिदृश्य का सहारा लेना लगता है कि निर्देशक की मंशा फिल्म बनाने को लेकर यही दिखाने की थी। गंभीर विषय पर फिल्म बनाने के बाद भी फिल्म में कहीं गंभीरता नहीं है। बहरहाल, आम दर्शकों के मन में यह फिल्म भले ही कौतुहल पैदा न करे लेकिन 'क्षेत्रवाद" के नाम पर रोटी सेंकने वालों के साथ त्रस्त लोगों को आकर्षित करेगी।
फिल्म: '332-मुंबई टू इंडिया"
निर्देशक : महेश पांडेय
कलाकार : अली असगर, चेतन पंडित, विजय मिश्रा, शरबनी मुखर्जी, राजेश त्रिपाठी, हितेन मोंटी 
फिल्म समीक्षा 

12/12/2010

नहीं बजता दिमाग का बैंड


 फिल्म : बैंड बाजा बारात
निर्देशक : मनीष शर्मा
निर्माता : आदित्य चोपड़ा
कलाकार : रणवीर सिंह, अनुष्का शर्मा, मनमीत सिंह, मनीष चौधरी, नीरज सूद

दिल्ली की जिंदगी पर तो कई फिल्में बनी हैं लेकिन डीयू के यंगस्टर्स और करियर कांसस बिहेवियर को लेकर 'बैंड बाजा बारात" शायद ऐसी पहली फिल्म होगी। यंगस्टर्स की जिंदगी पर आधारित यह फिल्म यंगस्टर्स को नए-नए करियर और उसकी संभावनाओं के नजरिए दिखाती नजर आती है। फिल्म की अधिकतर शूटिंग दिल्ली में हुई है लेकिन शुरुआत में ही दर्शक आसानी से कहानी के क्लाइमेक्स को समझ जाता है। क्योंकि अधिकतर फिल्मों या यों कहें हमारी जिंदगी में यही होता है कि एक साथ काम करते-करते एक-दूसरे को समझने लगते हैं और फिर प्यार भी करने लगते हैं।
चूंकि निर्देशक मनीष शर्मा खुद डीयू से हैं, इसलिए लगता है कि उनके दिमाग में पहले से ही कहानी और लोकेशन तय था। उन्होंने दिल्ली के उन लोकोशनों पर शूटिंग की है जहां अभी तक किसी भी फिल्म मेकर्स की नजर नहीं गई है। डीयू के रामजस कॉलेज में पढ़ने वाली श्रुति (अनुष्का शर्मा) और हंसराज कॉलेज में पढ़ने वाले उसके दोस्त बिट्टू शर्मा (रणवीर सिंह) की यह कहानी है। एक ओर जहां श्रुति पढ़ाई खत्म करने के बाद वेडिंग प्लानर का बिजनेस करना चाहती है वहीं बिट्टू मस्तमौला है। श्रुति को लुभाने के लिए जहां वह पूरी रात जग कर उसके डांस के कैसेट तैयार करता हैं वहीं गांव में पापा के गन्ने के बिजनेस में न जाने की इच्छा के कारण वह श्रुति के बिजनेस में पार्टनर बन जाता है। दोनों के बीच पार्टनरशिप का अहम सिद्धांत है, 'जिससे व्यापार करो, उससे कभी प्यार न करो"।
दोनों साथ मिलकर अपनी कंपनी 'शादी मुबारक" को पहले मिडिल क्लास फैमिली से लांच करते हैं और धीरे-धीरे उस मुकाम तक ले जाते हैं जहां बड़े-बड़े लोगों की इच्छा होती है कि उसके यहां की शादी का सारा तामझाम 'शादी मुबारक" संभाले। दिल्ली के सैनिक फार्म से लेकर राजस्थान की भव्य शादियों में इनकी कंपनी की ही मांग होती है। धीरे-धीरे दोनों अपने कामों में इतने मशगूल हो जाते हैं कि अपने पार्टनरशिप के सिद्धांत को भूलकर एक-दूसरे से प्यार करने लगते हैं। एक रात जब दोनों अपनी पहली सफलता मना रहे होते हैं तभी कुछ ऐसा होता है कि दोनों के बीच के समीकरण बदल जाते हैं और बाद में श्रुति उससे कंपनी छोड़ देने के लिए कह देती है। दोनों के बीच दूरियां बढ़ती हैं और श्रुति अपना अलग बिजनेस शुरू की लेती है। बिट्टू भी 'हैप्पी मैरिज" नाम से दूसरी कंपनी खोल लेता है लेकिन दोनों के काम सही नहीं होते और उन पर काफी कर्ज हो जाता है। हालांकि एक भव्य शादी की तैयारी की चुनौती मिलने पर दोनों एकसाथ हो जाते हैं।
फिल्मी दुनिया में डेबू कर रहे रणवीर सिंह इंटरवल के बाद थोड़े से जमे दिखाई देते हैं, बावजूद इसके उन्हें अभी काफी कुछ सीखना है। यशराज फिल्म के बैनर तले अनुष्का शर्मा की यह तीसरी फिल्म है, फिर भी एक्टिंग में खुद को और डुबोना बाकी है। यह फिल्म चूंकि यंगस्टर्स को ध्यान में रखकर बनाई गई है, इसलिए ठीक है, वरना कोई बड़ा स्टार होता तो दोनों पानी मांगते नजर आते। फिल्म में अनुष्का और रणवीर के बीच लंबा लिप टू लिप किसिंग सीन तो हर किसी को खटता है, यह मनीष शर्मा की असफलता कही जाएगी। डायलॉग में दिल्ली के शब्द दर्शकों को फिल्म से जोड़ते हैं। इसके गाने लोगों की जुबान पर भले ही न चढ़ पाए हों लेकिन धुनें कर्णप्रिय हैं। बहरहाल, जिस तरह 'मूंगफली" एक तरह टाइम पास है, खाते हैं और भूल जाते हैं, उसी तरह इंटरटेनमेंट के लिए यह फिल्म टाइम पास है। नाम तो बैंड बाजा बारात है लेकिन आपके दिमाग का बैंड बजाए, इतना मसाला इसमें नहीं है।