3/08/2011

इंटरनेशनल वूमेंस डे का सफ़र

महिला सशक्तिकरण दिवस के सौ साल तो पूरे हो चुके हैं लेकिन इस लड़ाई में कितने संघर्ष किये गये, यह मायने रखता है। आबादी बढ़ने के साथ औद्योगिकीकरण के कारण महिलाओं की स्थिति में व्यापक परिवर्तन तो हुआ है लेकिन अब भी वे पूरी तरह से सशक्त नहीं हो पाई हैं
1911 कोपेनहेगन में हुए समझौते के बाद पहली बार ऑस्ट्रिया, डेनमार्क, जर्मनी और स्विट्जरलैंड ने मिलकर 19 मार्च को इंटरनेशनल वूमेंस डे मनाया। करीब दस लाख पुरुष और महिलाएं इससे संबंधित रैली में शामिल हुई। इसमें काम, मतदान और ट्रेनिंग को लेकर अधिकार के साथ भेदभाव को खत्म करने की मांग की गई। लेकिन एक हफ्ते की भीतर यानी 25 मार्च को न्यूयार्क सिटी में भयंकर आग लग गई, जिसने करीब 140 कामकाजी महिलाओं की जिंदगी लील ली। इसके बाद महिलाओं के कामकाज की ओर सबका ध्यान गया। इसी साल 'ब्रेड एंड रोजेज' कैम्पेन आयोजित किया गया था. 
1908 महिलाओं को लेकर असमानता सदियों से हमारे समाज का कोढ़ बना हुआ है। 1908 में न्यूयार्क सिटी में पहली बार करीब 15 हजार महिलाओं ने शॉर्टर आवर, बेटर पे और वोटिंग राइट्स को लेकर प्रदर्शन किया था। 1909 सोशियलिस्ट पार्टी ऑफ अमेरिका ने पहली बार नेशनल वूमेंस डे मनाने की घोषणा की थी, जो पूरे अमेरिका में 28 फरवरी को मनाया गया। 1913 तक महिलाएं फरवरी के आखिरी रविवार को नेशनल वूमेंस डे मनाती रहीं। 1910 इस साल कोपेनहेगन में वर्किग वूमेन का दूसरा इंटरनेशनल कॉन्फ्रेंस आयोजित किया गया। क्लारा जेटकिन नामक महिला ने पहली बार इंटरनेशनल वूमेंस डे मनाने का विचार लोगों के सामने रखा कि हर साल एक ही दिन प्रत्येक देश इस दिवस को मनाएं। इस कॉन्फ्रेंस में 17 देशों के करीब एक सौ प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया था। 1913-14 1913 में इंटरनेशनल वूमेंस डे को आठ मार्च शिफ्ट किया गया, जिसे अब भी मनाया जा रहा है। 1914 में यूरोप में युद्ध और महिलाओं की स्थिति को लेकर जमकर कैम्पेन चला।                                                                                                                                                                                                             1917 युद्ध में करीब बीस लाख रूसी सैनिकों के मारे जाने को लेकर ‘ब्रेड एंड पीस’ कैम्पेन चला। महिलाओं ने करीब चार दिनों तक की हड़ताल की और जिस दिन हड़ताल शुरू की गई, उसके लिए दिन चुना गया 23 फरवरी, रविवार। 1918-1919 सोशलिस्ट आंदोलन के तौर पर उभरे इंटरनेशनल वूमेंस डे को वैिक स्तर पर मनाया जाने लगा और यह आंदोलन लगातार सुदृढ़ हुआ। इसके बाद संयुक्त राष्ट्र ने इसे लेकर एक कॉन्फ्रेंस भी आयोजित की। 1975 में संयुक्त राष्ट्र ने इंटरनेशनल वूमेंस डे पर अपनी मुहर लगा दी। इस दौर में कई संस्थान भी महिलाओं के विरुद्ध हिंसा और समानता के साथ उनकी इज्जत के अधिकार को लेकर सामने आए। 2000 और इसके बाद 2000 आते-आते अफगानिस्तान, आम्रेनिया, अजरबेजान, बेलारूस, कंबोडिया, चीन, क्यूबा, जॉर्जिया, कजाकिस्तान, मालदीव, नेपाल, रूस, तजाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, युगांडा आदि में इस दिन सरकारी छुट्टी की घोषणा की गई। मां, पत्नी, गर्लफ्रेंड, कलीग आदि को पुरुषों द्वारा आदर के साथ फूल और गिफ्ट देने का प्रचलन शुरू हुआ। नए दशक ने महिलाओं की स्थिति और समानता को लेकर काफी बदलाव देखे हैं। अब बोर्ड रूम, संसदीय तंत्र के साथ सभी क्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित की गई। हालांकि अब भी पुरुषों के समान न तो उन्हें वेतन दिया जाता है और न ही बिजनेस या राजनीति में महिलाओं की समान संख्या ही होती है। इस दौर में महिलाएं अंतरिक्ष में गई, प्रधानमंत्री बनीं, स्कूल से विविद्यालय तक पहुंची। महिलाओं को जागरूक करने के लिए आठ मार्च को बड़े पैमाने पर कार्यक्रम आयोजित किए जाने लगे।

3/07/2011

संबंधों के फासले की पड़ताल

क्रिकेट विश्व कप के मौके पर फिल्म रिलीज करना किसी जोखिम से कम नहीं। बावजूद इसके योगेश मित्तल ने सस्पेंस और थिल्रर से भरी अपनी पहली ही फिल्म 'ये फासले' रिलीज कर सिने दर्शकों के सामने अलग लकीर खींचने का काम किया है। छोटे बजट की यह फिल्म आज के दौर में दर्शकों को क्रिकेट ग्राउंड छोड़कर बड़े पर्दे के सामने बैठाने का माद्दा तो रखती है लेकिन उन्हीं दर्शकों को जिन्हें चौकों और छक्कों की बारिश में आनंद नहीं आता है। 
बाप-बेटी के संबंधों पर आधारित इस फिल्म की कहानी मुख्यत: तीन कलाकारों, एक अनुपम खेर, दूसरे पवन मल्होत्रा और तीसरी फिल्म की नायिका टीना देसाई, के इर्द-गिर्द घूमती है। पढ़ाई पूरी करने के बाद जब अरुणिमा दुआ (टीना देसाई) घर लौटती है। अरुणिमा की दोस्त की शादी के मौके पर अपने पिता देवेंद्र देवीलाल दुआ (अनुपम खेर) को दूल्हे के दोस्त को पीटते देख उनका एक अलग रूप भी देखती है। हालांकि उसके पिता उसे बहुत मानते हैं और उसकी खुशी के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार रहते हैं। अपनी बेटी की खुशियों की खातिर अरुणिमा की मां (रचिता) की मौत होने के बाद भी उन्होंने दूसरी शादी नहीं की। लेकिन अरुणिमा के दिमाग में हमेशा एक सवाल घूमता रहता है कि उसकी मां की मौत कैसे हुई? वह अपनी मां रागिनी और पापा के पुराने तस्वीरों को देखती है, वसीयत पढ़ती है लेकिन कहीं न कहीं उसके मन में शक की सूई अपने पिता की तरफ घूमने लगती है जो कभी कभी ओवर प्रोटेक्टिव और एग्रेसिव भी हो जाते हैं। फिर ऐसा वक्त आता है जब बेटी अपने पिता को कटघरे में खड़े कर देती है। बाद में, अरुणिमा के सच जानने की इन कोशिश में उसके बचपन का दोस्त मनु (रूशद राणा) उसका साथ देता है। इस फिल्म में शुरू से आखिरी क्षण तक सस्पेंस बना हुआ है और यह पता ही नहीं चलता कि आखिर खून किसने किया है। 
अनुपम खेर, पवन मल्होत्रा और टीना देसाई ने काफी बेहतर परफॉरमेंस है। वहीं , दिग्विजय सिंह के रोल में पवन मल्होत्रा स्क्रीन पर छाए रहे। मजहर सईद और रचिता को अभिनय का कम ही मौका मिला है। हालांकि कहीं-कहीं स्क्रिप्ट और एडिटिंग सही नहीं है। क्योंकि इतनी बड़ी अरुणिमा को मालूम ही नहीं रहता है कि वह राजघराने परिवार की है। वकीलों के बहस के बीच एकाएक कोर्ट इतने बड़े बिल्डर को फांसी की सजा सुना देती है? रियलिटी और फिक्शन के बीच की यह फिल्म सस्पेंस से भरी हुई है और रोमांटिक फिल्म पसंद करने वालों को यह निराश कर सकती है। बैकग्राउंड म्यूजिक बढ़िया है लेकिन दिलकश गीतों का न होना तो खलता ही है। फिल्म की गति सुस्त भी है। इंटरवल के बाद कहानी में सस्पेंस और रोमांच का माहौल पेश करने की जो कोशिश की गई है। फिल्म के अधिकतर दृश्यों में सिनेमेटोग्राफी आउट ऑफ फोकस नजर आती है।
फिल्म : ये फासले
कलाकार : अनुपम खेर , टीना देसाई , रूशद राणा, पवन मल्होत्रा, किरण कुमार, नताशा सिन्हा 
निर्माता : ओम प्रकाश मित्तल
निर्देशक : योगेश मित्तल