वर्तमान दौर के 'गांधी' यानी अन्ना जब भ्रष्टाचार के खिलाफ बिगुल फूंक कर समाज को नई दिशा देने का काम कर रहे हैं, ऐसे में बाबा नागार्जुन और उनकी कविताओं का प्रासंगिक होना लाजिमी है। भारतीय साहित्य, संस्कृति, राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य पर बतौर जनकवि, बाबा आधुनिक भी हैं और गहरे संवेदना से युक्त भी। उन्होंने ऐसे दौर में राजनीतिक- संवैधानिक हालात पर सवालिया निशान लगाने का काम किया था, जब पूरा देश इमरजेंसी से जूझ रहा था और आज अन्ना तब सामने आए हैं जब पूरा देश भ्रष्टाचार के आकंठ में डूबा हुआ है। जिस तरह अन्ना देश के लिए, जनता के लिए प्रतिबद्ध होने की घोषणा कर रहे हैं, नागाजरुन ने भी प्रतिबद्ध की घोषणा की थी- 'प्रतिबद्ध हूं, जी हां, प्रतिबद्ध हूं-/ बहुजन समाज की अनुपल प्रगति के निमित्त-/ संकुचित 'स्व' की आपाधापी के निषेधार्थ/अविवेकी भीड़ की 'भेड़िया-धसान' के खिलाफ/ अंध-बधिर 'व्यक्तियों' को सही रास्ता बतलाने के लिए/ अपने आपको भी 'व्यामोह' से बारम्बार उबारने की खातिर/ प्रतिबद्ध हूं; जी हां, शतधा प्रतिबद्ध हूं!' अन्ना की पुकार पर जिस तरह नौजवान सामने आए, क्या इमरजेंसी के उस दौर और भ्रष्टाचार के इस दौर में सिर्फ स्थान नहीं बदला है? गांधी मैदान का स्थान जंतर-मंतर ने ले लिया था। बाबा कहते हैं, 'बार-बार खचाखच भरा गांधी मैदान/बार-बार प्रदर्शन में आए लाखों-लाख नौजवान../बार-बार वापस गए/हवा में भर उठी इंकलाब के कपूर की खुशबू/बार-बार गूंजा आसमान/बार-बार उमड़ आए नौजवान/बार-बार लौट आए नौजवान..।' यही कारण है कि वह खुलेआम गरजते हैं- 'जनता तुझसे पूछ रही है, क्या बतलाऊं/जनकवि हूं मैं साफ कहूंगा, क्यों हकलाऊं?' बाबा की कविताओं का यथार्थ वर्तमान रहा है और सहज शब्दों में गहरी बात कह जाते हैं। उनकी कविताओं में तात्कालिकता तो है लेकिन व्यंग्य की विदग्धता ने उन शब्दों को कालजयी बना दिया। भूख, बेरोजगारी, अकाल आदि विषयों पर लिखी कविताएं जहां संवेदनाओं से भरी हुई हैं, वहीं राजनीतिक व्यंग्य काफी मारक क्षमता रखती हैं। आज हर रोज घोटाले की खबरें आ रही हैं , अन्ना लोकतांत्रिक व्यवस्था में रामराज्य की परिकल्पना को अलग फ्रेम में रखने की कोशिश कर रहे हैं, वहीं नागाजरुन ने दशकों पहले सत्ता और धन के पीछे भागने वालों को लेकर लिखा था, 'रामराज्य में अब की रावण नंगा होकर नाचा है/सूरत शकल वही है भइया, बदला केवल ढांचा है/लाज- शर्म रह गई है बाकी, गांधीजी के चेलों में/फूल नहीं लाठियां बरसती रामराज्य के जेलों में।' चाहे नागाजरु न खुद हों या उनकी कविताएं, वे आम लोगों के लिए काफी सहज हैं। राजनीतिक चटोरेपन का स्वाद उनकी कविताओं में जिस तरह मिलता है, शायद ही दूसरे कवियों की कविताओं में ऐसा स्वाद हो। बकौल नागाजरुन, 'सियासत में/न अड़ाओं/अपनी ये कांपतीं टांगें/हां, महाराज/राजनीतिक फतवेबाजी से/अलग ही रक्खो अपने को/माला तो है ही तुम्हारे पास/ नाम-वाम जपने का/ भूख जाओ पुराने सपने को/' वे ऐसे शख्स हैं जो अपनी तो ऐसी-तैसी करते ही हैं, सामने वाले को भी नहीं बख्शते। 'जपाकर' कविता में संविधान की भी ऐसी-तैसी करने से नहीं चूके हैं, 'जपाकर दिन-रात/जै जै जै संविधान/मूं द ले आंख- कान/उनका ही दर ध्यान/मान ले अध्यादेश/ मूंद ले आंख-कान/ सफल होगी मेधा/खिचेंगे अनुदान/उनके माथे पर/ छींटा कर दूब-धान/करता जा पूजा-पाठ/उनका ही धर ध्यान/ जै जै जै छिन्नमस्ता/जै जै जै कृपाण/ सध गया शवासन/मिलेगा सिंहासन।' वोटों की राजनीति की दुर्दशा को लेकर उनमें गुस्सा है, 'बेच-बेचकर गांधीजी का नाम/बटोरो वोट/बैंक बैलेंस बढ़ाओ/राजघाट पर बापू की वेदी के आगे अश्रु बहाओ।' आज जिस तरह अन्ना और बाबा रामदेव सत्ता के मदहोश में डूबे लोगों पर व्यंग्य कर रहे हैं, कभी यही हाल बाबा नागाजरुन का था। नेताओं के कारनामे को लेकर वह कहते हैं, 'कुर्सी-कुर्सी गद्दी-गद्दे खेल रहे हैं/ घटक तंत्र का भ्रूणपात ही खेल रहे हैं/ जोड़-तोड़ के सौ-सौ पापड़ बेल रहे हैं/ भारत माता को खादी में ठेल रहे हैं।' जो निर्भीकता आज के दौर में अन्ना में दिखती है, वह उस दौर में बाबा में थी। सत्ता से डरना तो उन्होंने सीखा ही नहीं था। तभी तो इंदिरा गांधी को उन्होंने सीधे कह दिया, 'इन्दुजी, इन्दुजी, क्या हुआ आपको?/सत्ता की मस्ती में, भूल गई बाप को?/बेटे को तार दिया, बोर दिया बाप को!/क्या हुआ आपको? क्या हुआ आपको?' नागाजरुन की कविताओं और उनके फक्कड़नुमा अंदाज को वर्त मान परिदृश्य की नजर से देखा जाना आवश्यक हो गया है। चाहे राजनीतिक संदर्भ में हो या सामाजिक संदर्भ में। क्रांति और इसकी विचारधारा का गहरा प्रभाव बाबा की रचनाओं के जरिए सामने आता है। अरसा पहले भले ही उन्होंने नक्सल आंदोलन की छांव में कविताएं लिखी थीं लेकिन वह आज के हालात पर सटीक बैठती हैं , 'बुद्ध का दिल तो कहता है/अबकी भारी गहन लगेगा/बुद्ध का दिल तो कहता है/ अबके संसद भवन ढहेगा/बुद्ध का दिल तो कहता है/ बच्चा-बच्चा अस्त्र गहेगा/बुद्ध का तो दिल कहता है/ कोई अब न तटस्थ रहेगा।' बाबा नागार्जुन सामाजिक, राजनीतिक विद्रूपताओं पर वार करते हुए समय से आगे निकल जाते हैं, वहीं आशा की किरण यानी जिस क्रांति की बात अन्ना कर रहे हैं, उनकी भी कल्पना बाबा पहले ही कर चुके हैं-- 'ऊपर-ऊपर मूक क्रांति, विचार क्रांति, संपूर्ण क्रांति/कंचन क्रांति, मंचन क्रांति, वंचन क्रांति, किंचन क्रांति/फल्गु सी प्रवाहित होगी, भीतर-भीतर तरल क्रांति/' विनीत उत्पल |
2 comments:
krantikari lekh
आदरणीय श्रीविनीतजी,
बहुत बढ़िया आलेख,बधाई।
मार्कण्ड दवे।
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