पिछले दिनों युवा निर्देशक अनुराग कश्यप ने भी कहा था कि दलित मसले पर यदि उन्हें अच्छी स्क्रिप्ट मिलती है तो वह जरूर फिल्म बनाएंगे। ऐसे में, क्या वर्तमान दौर के निर्देशक दलितों को लेकर कुछ नई सोच के साथ फिल्में बना रहे हैं या उसी घिसी-पिटी लीक पर चलकर फिल्मी दुनिया को नई दिशा देने का काम करना चाहते हैं?
कमर्शियल फिल्मों के दौर में प्रतिरोध का सिनेमा गायब है। बड़े पर्दे पर जिन दलित पात्रों को दिखाया गया है या दिखाया जा रहा है, उन्हें समाज का असली रूप तो कतई नहीं कहा जा सकता। चाहे वह फिल्म की कहानी को लेकर हो या पात्रों को ले कर। इसके पीछे कारण या तो सवर्ण मानसिकता वाले फिल्मकारों का अपनी मानसिकता से बाहर न निकल पाने की मजबूरी है या फिर राजनीतिक दबाव, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। फिल्म की कहानी और उनके पात्रों को लेकर फिल्मकारों पर राजनीतिक दबाव किस तरह रहता है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को इस मामले में बयान देना पड़ा।
पिछले दिनों शबाना आजमी ने फिल्मकारों को राजनीतिक तौर पर प्रताड़ित किए जाने की बात जोर-शोर से उठाई थी। इससे पहले फिल्म ‘आरक्षण’ में सैफ अली खान को दलित पात्र बनाए जाने पर कुछ दलित समूहों ने प्रकाश झा के सामने आपत्ति दर्ज कराई थी। उनका आरोप था कि सैफ अली खान अमीर मुस्लिम हैं तो वह कैसे दलित पात्र का किरदार निभा सकते हैं? सवाल है, क्या फिल्मकार जिन दलित पात्रों को अपनी फिल्मों में दिखा रहे हैं, क्या समाज में उनकी हालत या फिर हैसियत वैसी ही है? स्वतंत्रता के छह दशक बाद क्या उनकी स्थितियों में बदलाव नहीं आया है। यह जरूर है कि नब्बे के दशक के बाद भारत में दलितों में जागरूकता जबर्दस्त रही है लेकिन फिल्मों में इसकी दशा क्या रही है, यह किसी से छिपी नहीं है। ‘गॉडमदर’, ‘आज का एमएलए अवतार’ और ‘बिल्लू बारबर’ में भी कहीं न कहीं दलित किरदार बखूबी दिखते हैं ले किन मामला वहीं का वहीं है। दस वर्ष पहले फिल्म बनी थी- ‘लगान’, जिसमें दलित ‘कचरा’ होता है। फिल्म ‘दिल्ली-6’ में जमादारिन ही क्यों है? ‘वे लकम टू सज्जनपुर’ में नायक का नाम महादेव कुशवाहा और नायिका का नाम कमला कुम्हारन है।
‘1942-ए लव स्टोरी’ में भी मसक से पानी छिड़कता पात्र दलित है तो ‘हू-तू-तू’ में भी दलित सामने है। हालांकि ऐसी मुट्ठीभर फिल्में ही आई हैं जिनमें दलितों के उत्थान को लेकर बात कही गई है। विधु विनोद चोपड़ा की फिल्म आई थी- ‘एकलव्य’। इसमें संजय दत्त का चरित्र दलितों के शिक्षित होने और उनके सशक्त होने की वकालत करता है। जेपी दत्ता ने एक फिल्म बनाई थी- ‘गु लाम’। इसमें उन्होंने बेहतर ढंग से दलितों की दुर्दशा को दिखाया था कि वे किस तरह पानी के साथ अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। जातिगत दृष्टिकोण और अन्याय का प्रतिकार करने वाली अभी तक की सबसे सशक्त फिल्म ‘बैंडिट क्वीन’ ही बनी है जो दलित स्त्री से दस्यु सुंंदरी और फिर सांसद बनी फूलन देवी के जीवन पर आधारित थी। फिल्म ‘निशांत’, ‘पार’ आदि फिल्में इन मामलों में ‘मील के पत्थर’ हैं। कभी ‘अजरुन पंडित’ में संजीव कुमार ने दलित शिक्षक की भूमिका निभाई थी, जो हर दिन अपनी पहचान के लिए लड़ने के लिए मजबूर थे। दलितों के प्रति करुणा दिखाकर ‘अछूत कन्या’, ‘आदमी’, ‘अछूत’, ‘सुजाता’, ‘बूट पॉलिश’, ‘अंकुर’, ‘सद्गति’ ‘सौतन’ जैसी फिल्में तो आई, लेकिन जाति का प्रश्न वहीं का वहीं रह गया। ‘बैंडिट क्वीन’ और ‘गॉड मदर’ जैसी फिल्मों में दलित चेतना जरूर दिखी। डॉ. भीमराव अम्बेडकर पर भी ‘भीम गर्जना’ बनी। विमल रॉय की फिल्म ‘सुजाता’ में नायिका निम्न जाति की है।
गौरतलब है कि हिंदी फिल्मों में अंतरजातीय विवाह को जमकर दिखाया गया है। बहरहाल, कमर्शियल सिनेमा को इन मामलों से सीधे तौर पर कोई मतलब भी नहीं दिखता। कहा जाता है कि समाज बदलता है तो सिनेमा भी बदलता है लेकिन हिंदी सिनेमा ने कभी भी समाज के हाशिए पर रह रहे इन लोगों के साथ न्याय नहीं किया। यह तथ्य फिल्मी कहानी को लेकर हो या फिर निर्देशक या निर्माता के स्तर पर, सभी पर लागू होता है। पिछले दिनों युवा निर्देशक अनुराग कश्यप ने भी कहा था कि दलित मसले पर यदि उन्हें अच्छी स्क्रिप्ट मिलती है तो वह जरूर फिल्म बनाएंगे। ऐसे में, क्या वर्तमान दौर के निर्देशक दलितों को लेकर कुछ नई सोच के साथ फिल्में बना रहे हैं या उसी घिसी-पिटी लीक पर चलकर फिल्मी दुनिया को नई दिशा देने का काम करना चाहते हैं?
कमर्शियल फिल्मों के दौर में प्रतिरोध का सिनेमा गायब है। बड़े पर्दे पर जिन दलित पात्रों को दिखाया गया है या दिखाया जा रहा है, उन्हें समाज का असली रूप तो कतई नहीं कहा जा सकता। चाहे वह फिल्म की कहानी को लेकर हो या पात्रों को ले कर। इसके पीछे कारण या तो सवर्ण मानसिकता वाले फिल्मकारों का अपनी मानसिकता से बाहर न निकल पाने की मजबूरी है या फिर राजनीतिक दबाव, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। फिल्म की कहानी और उनके पात्रों को लेकर फिल्मकारों पर राजनीतिक दबाव किस तरह रहता है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को इस मामले में बयान देना पड़ा।
पिछले दिनों शबाना आजमी ने फिल्मकारों को राजनीतिक तौर पर प्रताड़ित किए जाने की बात जोर-शोर से उठाई थी। इससे पहले फिल्म ‘आरक्षण’ में सैफ अली खान को दलित पात्र बनाए जाने पर कुछ दलित समूहों ने प्रकाश झा के सामने आपत्ति दर्ज कराई थी। उनका आरोप था कि सैफ अली खान अमीर मुस्लिम हैं तो वह कैसे दलित पात्र का किरदार निभा सकते हैं? सवाल है, क्या फिल्मकार जिन दलित पात्रों को अपनी फिल्मों में दिखा रहे हैं, क्या समाज में उनकी हालत या फिर हैसियत वैसी ही है? स्वतंत्रता के छह दशक बाद क्या उनकी स्थितियों में बदलाव नहीं आया है। यह जरूर है कि नब्बे के दशक के बाद भारत में दलितों में जागरूकता जबर्दस्त रही है लेकिन फिल्मों में इसकी दशा क्या रही है, यह किसी से छिपी नहीं है। ‘गॉडमदर’, ‘आज का एमएलए अवतार’ और ‘बिल्लू बारबर’ में भी कहीं न कहीं दलित किरदार बखूबी दिखते हैं ले किन मामला वहीं का वहीं है। दस वर्ष पहले फिल्म बनी थी- ‘लगान’, जिसमें दलित ‘कचरा’ होता है। फिल्म ‘दिल्ली-6’ में जमादारिन ही क्यों है? ‘वे लकम टू सज्जनपुर’ में नायक का नाम महादेव कुशवाहा और नायिका का नाम कमला कुम्हारन है।
‘1942-ए लव स्टोरी’ में भी मसक से पानी छिड़कता पात्र दलित है तो ‘हू-तू-तू’ में भी दलित सामने है। हालांकि ऐसी मुट्ठीभर फिल्में ही आई हैं जिनमें दलितों के उत्थान को लेकर बात कही गई है। विधु विनोद चोपड़ा की फिल्म आई थी- ‘एकलव्य’। इसमें संजय दत्त का चरित्र दलितों के शिक्षित होने और उनके सशक्त होने की वकालत करता है। जेपी दत्ता ने एक फिल्म बनाई थी- ‘गु लाम’। इसमें उन्होंने बेहतर ढंग से दलितों की दुर्दशा को दिखाया था कि वे किस तरह पानी के साथ अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। जातिगत दृष्टिकोण और अन्याय का प्रतिकार करने वाली अभी तक की सबसे सशक्त फिल्म ‘बैंडिट क्वीन’ ही बनी है जो दलित स्त्री से दस्यु सुंंदरी और फिर सांसद बनी फूलन देवी के जीवन पर आधारित थी। फिल्म ‘निशांत’, ‘पार’ आदि फिल्में इन मामलों में ‘मील के पत्थर’ हैं। कभी ‘अजरुन पंडित’ में संजीव कुमार ने दलित शिक्षक की भूमिका निभाई थी, जो हर दिन अपनी पहचान के लिए लड़ने के लिए मजबूर थे। दलितों के प्रति करुणा दिखाकर ‘अछूत कन्या’, ‘आदमी’, ‘अछूत’, ‘सुजाता’, ‘बूट पॉलिश’, ‘अंकुर’, ‘सद्गति’ ‘सौतन’ जैसी फिल्में तो आई, लेकिन जाति का प्रश्न वहीं का वहीं रह गया। ‘बैंडिट क्वीन’ और ‘गॉड मदर’ जैसी फिल्मों में दलित चेतना जरूर दिखी। डॉ. भीमराव अम्बेडकर पर भी ‘भीम गर्जना’ बनी। विमल रॉय की फिल्म ‘सुजाता’ में नायिका निम्न जाति की है।
गौरतलब है कि हिंदी फिल्मों में अंतरजातीय विवाह को जमकर दिखाया गया है। बहरहाल, कमर्शियल सिनेमा को इन मामलों से सीधे तौर पर कोई मतलब भी नहीं दिखता। कहा जाता है कि समाज बदलता है तो सिनेमा भी बदलता है लेकिन हिंदी सिनेमा ने कभी भी समाज के हाशिए पर रह रहे इन लोगों के साथ न्याय नहीं किया। यह तथ्य फिल्मी कहानी को लेकर हो या फिर निर्देशक या निर्माता के स्तर पर, सभी पर लागू होता है। पिछले दिनों युवा निर्देशक अनुराग कश्यप ने भी कहा था कि दलित मसले पर यदि उन्हें अच्छी स्क्रिप्ट मिलती है तो वह जरूर फिल्म बनाएंगे। ऐसे में, क्या वर्तमान दौर के निर्देशक दलितों को लेकर कुछ नई सोच के साथ फिल्में बना रहे हैं या उसी घिसी-पिटी लीक पर चलकर फिल्मी दुनिया को नई दिशा देने का काम करना चाहते हैं?