यह बात किसी से छिपी हुई नहीं है कि भ्रष्टाचार के कारण ही कोसी पूरे इलाके के लोगों को त्रस्त कर रही है। एक ओर जहां अन्ना भ्रष्टाचार और लोकपाल को लेकर अनशन कर रहे हैं, वहीं पूरा कोसी का इलाका भ्रष्टाचार से त्रस्त है। और तो और इन इलाके की जनता ने जो प्रतिनिधि चुना है, वे भी भ्रष्टाचार के पैरोकार बने हुए हैं। क्या कोसी की जनता को इस बात का अहसास नहीं है कि वे अपने खून-पसीने की कमाई का कितना हिस्सा घूस देते हैं। कितना हिस्सा दलालों के हाथों में जाता है। अधिकारी से लेकर मंत्री तक भ्रष्टाचार के गर्त में डूबे हुए हैं। नहीं तो पूरे कोसी इलाके का हस्र ऐसा नहीं होता।
8/26/2011
8/24/2011
कोसीनामा-9 : कोसी की कविताएं
पटना विश्वविद्यालय, पटना के हिन्दी विभाग में आचार्य के पद पर कार्यरत डॉ. सुरेन्द्र स्निग्ध ने कुछ अरसा पहले एक लेख लिखा था। शीर्षक था 'कोसी जनपद की दिल्लीमुखी युवा कविताएं"। यह लेख 'बिहार ई-न्यूज" नामक वेबसाइट पर प्रकाशित हुई थी। इस लेख में उन्होंने जिस तरह कोसी से दिल्ली आने पर कवियों और उनकी रचनाओं की व्याख्या की थी, यह आंखें खोलने वाला है।
सुरेंद्र स्निग्ध लिखते हैं, 'जीवन सिर्फ दिल्ली नहीं है। विडंबना यह है कि दिल्ली के बाहर के रचनाकार अपनी स्वीकृति और पहचान के लिए दिल्ली की और टकटकी लगाये रहते हैं। दिल्ली में बैठे हैं कला, साहित्य और संस्कृति और राजनीति के खेल के कुछ महारथी, कुछ शातिर और कुछ असली का चेहरा लगाए नकली जादूगर या मठाधीश। वही तय करते हैं कि साहित्य और राजनीति से लेकर अन्य गतिविधिओं को कौन-सी दिशा दी जाए या उसकी किस दशा को प्रतिष्ठित या अप्रतिष्ठित किया जाए। फल यह होता है कि दिल्ली के बाहर के यथार्थ परिदृश्य में चले जाते हैं और जैसा दिल्ली चाहती है, वैसा यथार्थ ; जो प्राय: अवास्तविक होता है, प्रतिबिम्बित होने लग जाता है। इसका टटका और ताजा उदाहरण है बिहार के सुदूर पूर्वोत्तर सीमाओं में रची जा रही आज की युवा कविताएं।
पूर्णिया, कटिहार, सहरसा, सुपौल, अररिया, किशनगंज और मधेपुरा, यह क्षेत्र कोसी-जनपद के रूप में चिन्हित किया जाता है। इस जनपद के यथार्थ के विविध आयामों को दूसरे क्षेत्र के लोग कम जानते हैं या नहीं जानते हैं। सदियों से, अलग मन-मिजाज की कोसी की त्रासदी से इस जनपद का निर्माण हुआ।
पूरा क्षेत्र कोसी की धार के मार्ग परिवर्तनों के बाद जंगलों, कास-पटेरों या दलदल, बालुकाराशी में परिवर्तित बड़े भू-भागों में बदलता चला गया। यहां बसनेवाले लोगों का जनसंघर्ष, उसकी पीड़ा और तरह-तरह की बीमारियों का प्रकोप- इन सभी विपरीत परिस्थितियों को झेलनेवाला जनसमुदाय- ये सारी चीजें मांग करती हैं, इस क्षेत्र में रची जा रही रचनाओं की केन्द्रीयता की। पिछले वर्ष कोसी का महाप्रलय और उसमें मर-खपा जानेवाले हजारों लोग, माल-मवेशी और अचानक उपजाऊ जमीन के सिल्ट में बदल जाने की प्रक्रिया, राजनीतिक उपेक्षा, ठेकेदारों और बिचौलियों की नृशंसता- ये ऐसे यथार्थ हैं, जिनसे दामन बचाकर रचनाकर्म करनेवाले कवि हों या लेखक, रंगकर्मी हों या पेंटर, अपने रचनाकर्म के प्रति ईमानदार नहीं हो सकते।
हमारे सामने इस कोसी-क्षेत्र के दर्जन भर युवा कवियों की कविताएं पसरी हुई हैं। इनमें से कुछ नाम जाने-पहचाने हैं और कुछ कम जाने-पहचाने। अरविन्द श्रीवास्तव हों या कृष्णमोहन झा, कल्लोल चक्रवर्ती हों या पंकज चौधरी, शुभेश कर्ण हों या स्मिता झा, देवेन्द्र कुमार देवेश हों या श्याम चैतन्य, इन सभी रचनाकारों की कविताएं दिल्लीमुखी हैं। अंतर्वस्तु और भाषिक संरचना इन त्रासिदयों के बीच जिजीविषा की हल्की झिलमलाती लकीर भी दिखलाई नहीं पड़ती। इन कवियों की चिंता ग्लोबल है। दुनिया के तमाम तानाशाहों की चिंता, एक अदृश्य हाथ से भयभीत होने की परेशानी, तमाम दु:खों से भी गृहस्थी निपटाने में व्यस्त कवि बड़े वेश्यालयों में बदलती हुई दुनिया और उसमें दलालों-मसखरों की उपस्थिति की चिंता या अपनी प्रेमिका के नए-नए रूपों की चिंता इन कवियों को तो है, लेकिन अपनी ही जमीन की अनुपिस्थित इन पंक्तियों के लेखक की मुख्य चिंता है।
असल में इनमें से कई कवि दिल्ली या दूसरे प्रदेश में नौकरी-चाकरी कर रहे हैं या अपने जीवनयापन के लिए अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग तरीकों से संघर्ष कर रहे हैं। इनमें से अधिकांश कवि अपनी जमीन से उखड़े हुए लोग हैं। यही कारण है कि इनकी कविताओं का यथार्थ, जैसा कि पूर्व में निवेदन किया जा चुका है, दिल्लीमुखी है। ये कवि कभी अरु ण कमल का अनुसरण करते दिखलाई पड़ते हैं तो कभी अशोक वाजपेयी का। ये कभी उदय प्रकाश की और देखते हैं तो कभी मंगलेश डबराल की ओर। स्वीकृति के लिए ये सभी नए कवि टकटकी लगाए हुए कभी नामवर सिंह की ओर ताकते हैं तो कभी मैनेजर पाण्डेय की ओर। इनकी ओर टकटकी लगाकर देखने के कारण ही इस कोसी जनपद के युवा रचनाकर्म में धड़कते हुए यथार्थ का दिल नहीं है।"
ऐसे में सवाल है कि कोसी के कवि आखिर क्या कर रहे हैं? क्यों दिल्ली की चकाचौंध की गिरफ्त में आकर बेदिल वाले बनते जा रहे हैं? उन्हें क्यों अपने खेत-खलिहानों, नहर-पोखर की याद आती है? कोसी की पानी आैर रेत उन्हें सपने में क्यों नहीं आता? जाहिर है इन सवालों का जवाब कोई देना नहीं चाहता क्यों सबके अपने-अपने पेट हैं।
8/22/2011
कोसीनामा-8: भ्रष्टाचार के कारण कोसी बनती काल
भागलपुर निवासी पूर्व सांसद डॉ. गौरीशंकर राजहंस ने कोसी की दशा और दिशा पर कुछ अरसा पहले 'दैनिक जागरण" में एक लेख लिखा था। उन्होंने इस मामला का जिक्र कुछ यूं किया था कि दिल्ली के कुछ टीवी चैनलों ने कोसी क्षेत्र का दौरा किया। उन्हें यह जानकर घोर आश्चर्य हुआ था कि उस क्षेत्र में कर्पूरी ठाकुर और भोला पासवान जैसे राजनेताओं की झोपड़ियां थीं और उनके परिवार के लोग अभी भी गरीबी में जी रहे हैं। उसी क्षेत्र में ऐसे गांव भी हैं जहां कुछ नेताओं ने बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएं बना ली हैं।
जब उनसे पूछा गया कि कोसी प्रोजेक्ट के पहले तो ये अट्टालिकाएं नहीं थीं तो वे भड़क गए। शायद कम लोगों को मालूम होगा कि जब कोसी को बांधने का प्रस्ताव जवाहर लाल नेहरू के पास गया तो उन्होंने कहा था कि चीन में स्थानीय लोगों ने श्रमदान करके उन नदियों को जिन्हें 'चीन का शोक" कहा जाता था, बांध दिया है। इससे भरपूर बिजली पैदा होती है और प्रलयंकर बाढ़ भी सदा के लिए समाप्त हो गई है। नेहरू ने कहा कि कोसी को भी बांधा जा सकता है और इस क्षेत्र में खुशहाली आ सकती है, यदि क्षेत्र के लोग श्रमदान करने को तैयार हो जाएं। यदि श्रमदान के द्वारा कोसी के मजबूत तटबंध बनाए जाते हैं तो जितना श्रमदान का मूल्य होगा, उतना ही पैसा केंद्र सरकार देगी। लोगों ने पूरे उत्साह से श्रमदान किया और इस तरह कोसी नदी को बांधा गया। बाद में कोसी नदी के रखरखाव पर भारी घोटाला हुआ। उस समय केंद्र सरकार ने कहा था कि यदि श्रमदान द्वारा कोसी तटबंधों का रखरखाव किया जाए तो केंद्र भरपूर आर्थिक सहायता देगा।
70 के दशक में जब कोसी योजना पूरी हो गई और उसके भ्रष्टाचार की कहानी समाचार पत्रों में आने लगी तब केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट के एक अवकाश प्राप्त जज की अध्यक्षता में एक कमीशन बनाया जिसने पूरी जांच पड़ताल करके यह उजागर किया कि कोसी प्रोजेक्ट के रखरखाव में भयानक धांधली हुई है और राजनेताओं, इंजीनियरों तथा ठेकेदारों ने करोड़ों रु पया डकार लिया। तटबंधों के रखरखाव के लिए इंजीनियरों ने राजनेताओं के साथ मिलकर करोड़ों रुपये के फर्जी बिल बनाए और उस पैसे को ईमानदारी से राजनेताओं और इंजीनियरों ने बांट लिया। इस रिपोर्ट की एक कापी अभी भी पार्लियमेंट लाइब्रोरी में है। यदि कोई जांच आयोग मामले की गहराई में जाए तो सब कुछ साफ हो जाएगा।
जब-जब नेपाल की नदियों से उत्तर बिहार में बाढ़ आई है तो बिहार सरकार और केंद्र ने भरपूर राहत का सामान दिया है और बाढ़ पीड़ितों की आर्थिक मदद की है, पर 80 प्रतिशत राहत सामग्री और पैसे सफेदपोश राजनेताओं के लठैत मार ले गए। आज ये सफेदपोश राजनेता तरह-तरह के बयान देकर जनता और केंद्र सरकार को दिगभ्रमित कर रहे हैं। उन्हें जो कुछ कहना है वे जांच कमीशन को कहे। बेसिर पैर के बयान देकर राज्य सरकार द्वारा बाढ़ पीड़ितों के राहत के जो कुछ काम चल रहा है वह भी ठप्प नहीं कराएं।"
ऐसे में सवाल है कि क्या भ्रष्टचार के कारण हर बार कोसी लोगों को लीलते रहेगी। क्या क्षेत्र के नेता इसी तरह अपनी तोंद बढ़ाते रहेंगे और आम जनता मरते रहेगी। क्या कोसी क्षेत्र के सभी सांसद मिलकर कोसी के लिए अगल से राहत कोसी या विशेष पैकेज की मांग केंद्र सरकार से नहीं कर सकते। जब कोसी के क्षेत्र से जीते नेता केंद्र सरकार की नीतियों को तय कर सकते हैं तो फिर क्यों नहीं खुद को भ्रष्टाचार से मुक्त होकर आम जनता को राहते दे सकते हैं।
8/18/2011
कोसीनामा-7: बाढ़ मामले पर हमारे सांसद
कोसी नदी पर कुसहा बांध के टूटने की यह तीसरी बरसी है। आज से तीन साल पहले आज ही के दिन बांध टूटा था और फिर पूरा कोसी इलाका जलमग्न हुआ था। चाहे सुपौल हो, सहरसा हो, मधेपुरा हो या फिर पूर्णिया, कटिहार का इलाका। कोई भी इलाका अछूता नहीं रहा था और करीब 33 लाख लोग बुरी तरह प्रभावित हुए थे।
सरकारी एजेंसियों के साथ-साथ गैर-सरकारी एजेंसियां लोगों की मदद के लिए आगे आई थी। लेकिन ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि कोशी क्षेत्र के तमाम सांसद उस वक्त क्या कर रहे थे? सवाल यह भी है कि क्या कोसी द्वारा की गई तबाही पर संसद में बहस हुई थी? क्या पूरे इलाके के जितने भी प्रतिनिधि हैं, उन्होंने देश के सामने अपनी जनता के दर्द को सामने रखा था। 'हाथ कंगन को आरसी क्या" की तर्ज पर संसद में हुई बहस पर गौर कर लें, अपने प्रतिनिधि का चेहरा आपके सामने होगा। फिर तय करें कि जिन प्रतिनिधियों को आम जनता चुनकर संसद में भेजती है, वह सांसद बनने पर क्या करते हैं। इतना दावा तो कोई भी कर सकता है कि यदि कोसी की जनता सही प्रतिनिधि को चुनकर संसद में भेजती तो कोसी क्षेत्र का यह हस्र नहीं होता, जो फिलहाल है।
दूसरी बातों की ओर न जाते हुए बाढ़ को लेकर बातें करें तो संसद में नियम 193 के तहत देश के विभिन्न भागों में सूखा और बाढ़ को लेकर 28 जुलाई, 2009 को छोटी अवधि की बहस हुई थी। इस बहस की शुरुआत मुंगेर के सांसद राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह ने कुछ इन शब्दों में की थी, 'यह ऐसा मानवीय मुद्दा है कि इस देश की लगभग 75 प्रतिशत आबादी इस मुद्दे के साथ जुड़ी हुई है। चाहे बाढ़ हो, सुखाड़ हो या कोई और समस्या हो, हमारे देश की अधिकांश आबादी इससे प्रभावित होती है। इस देश की नीयति है कि प्रति वर्ष हम बाढ़ और सुखाड़ पर चर्चा करते हैं। कभी बाढ़ पर चर्चा करते हैं, कभी सुखाड़ पर चर्चा करते हैं। हम चर्चा करते हैं, बहस होती है, सरकार का जवाब भी होता है, सरकार कई तरह की लुभावनी घोषणाएं भी करती है, मेज थपथपाई जाती है और उसके बाद हम अगले वर्ष फिर उसी बहस पर आकर खड़े हो जाते हैं। इसका मतलब यह सारी व्यवस्था ढाक के तीन पात वाली स्थिति है कि हम बहस करते रहें, हमारी समस्याएं प्रति वर्ष मुंह बाए हमारे साथ खड़ी रहें और हम आजादी के इतने वर्षों बाद भी उसका कोई निराकरण नहीं कर पाएं, जबकि हमारा देश पूरे तौर पर कृषि पर आधारित है।
चाहे बाढ़ हो या सुखाड़, इन दोनों परिस्थितियों में अगर सबसे ज्यादा प्रभाव किसी पर पड़ता है तो वह कृषि पर पड़ता है और कृषि हमारे देश की मूल अर्थव्यवस्था का आधार है। अगर हमारी पैदावार सही नहीं होगी तो हम लाख प्रयास करें, औद्योगिक उत्पादन, एक्सपोर्ट-इम्पोर्ट हर चीज करें, लेकिन अपनी अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण नहीं पा सकते। इसलिए आज जरूरत इस बात की है कि हम इस समस्या के स्थायी समाधान की दिशा में कोई कार्रवाई करें। हमें चाहिए कि पहले हम अपने संसाधनों को विकसित करें। हम विकास की हर बार कल्पना करते हैं। हम विकास की चर्चा हर साल करते हैं। हम कहते हैं कि हमारा देश लगातार विकास की ओर बढ़ रहा है, हम विकसित राष्ट्र की तरफ बढ़ रहे हैं, हम अगले 15-20 वर्षों में विकसित राष्ट्र का दर्जा पा लेंगे। लेकिन हम संसाधन कहां जुटा पा रहे हैं। हमारी अर्थव्यवस्था का जो मूल आधार है, उसके लिए जो संसाधन हैं, उन्हें हम एकत्रित नहीं कर पा रहे हैं, संगठित नहीं कर पा रहे हैं। आज इतने दिनों बाद भी सबसे दुखद स्थिति यह है कि बाढ़ और सुखाड़ से प्रभावित होकर हमारे देश के किसान आत्महत्या करने के लिए मजबूर हो रहे हैं। इससे ज्यादा शर्मनाक बात शायद हम लोगों के लिए और कोई नहीं हो सकती है। इसलिए हमें चाहिए कि हम संसाधन विकसित करें और उसके बाद विकास की चर्चा करें। आज हम संसाधन विकसित नहीं कर पा रहे हैं और विकास की चर्चा कर रहे हैं। हमारे यहां हर साल प्राकृतिक आपदा आती है।"
चाहे बाढ़ हो या सुखाड़, इन दोनों परिस्थितियों में अगर सबसे ज्यादा प्रभाव किसी पर पड़ता है तो वह कृषि पर पड़ता है और कृषि हमारे देश की मूल अर्थव्यवस्था का आधार है। अगर हमारी पैदावार सही नहीं होगी तो हम लाख प्रयास करें, औद्योगिक उत्पादन, एक्सपोर्ट-इम्पोर्ट हर चीज करें, लेकिन अपनी अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण नहीं पा सकते। इसलिए आज जरूरत इस बात की है कि हम इस समस्या के स्थायी समाधान की दिशा में कोई कार्रवाई करें। हमें चाहिए कि पहले हम अपने संसाधनों को विकसित करें। हम विकास की हर बार कल्पना करते हैं। हम विकास की चर्चा हर साल करते हैं। हम कहते हैं कि हमारा देश लगातार विकास की ओर बढ़ रहा है, हम विकसित राष्ट्र की तरफ बढ़ रहे हैं, हम अगले 15-20 वर्षों में विकसित राष्ट्र का दर्जा पा लेंगे। लेकिन हम संसाधन कहां जुटा पा रहे हैं। हमारी अर्थव्यवस्था का जो मूल आधार है, उसके लिए जो संसाधन हैं, उन्हें हम एकत्रित नहीं कर पा रहे हैं, संगठित नहीं कर पा रहे हैं। आज इतने दिनों बाद भी सबसे दुखद स्थिति यह है कि बाढ़ और सुखाड़ से प्रभावित होकर हमारे देश के किसान आत्महत्या करने के लिए मजबूर हो रहे हैं। इससे ज्यादा शर्मनाक बात शायद हम लोगों के लिए और कोई नहीं हो सकती है। इसलिए हमें चाहिए कि हम संसाधन विकसित करें और उसके बाद विकास की चर्चा करें। आज हम संसाधन विकसित नहीं कर पा रहे हैं और विकास की चर्चा कर रहे हैं। हमारे यहां हर साल प्राकृतिक आपदा आती है।"
उन्होंने सवाल किया था कि वर्ष 2000 में भारत और नेपाल के साथ वार्ता करने के लिए एक कमेटी बनी। आज वर्ष 2009 चल रहा है, यानी इन नौ वर्षों में उस कमेटी की मात्र तीन बैठकें हुई हैं। अगर इन नौ वर्षों में तीन ही बैठकें हुई हैं, तो यह सरकार इस सवाल पर कितनी गंभीर है, यह आप खुद देख लीजिए। हम सरकार से पूछना चाहते हैं कि आप इस मामले में क्या करना चाहते हैं।
ललन सिंह के बाद श्रावस्ती के डॉ. विनय कुमार पांडेय, मछलीशहर के तूफानी सरोज, इलाहाबाद के रेवती रमण सिंह, बीड के गोपीनाथ मुंडे, टी.आर बालू, बासुदेव आचार्य, दारा सिंह चौहान, अर्जुन चरण सेठी, आनंदराव अडसूल, एम. थामीदूरल ने हिस्सा लिया। इनके बाद गोड्डा के निशिकांत दूबे ने झारखंड की स्थिति पर अपनी बात रखी। इसके बाद चरणदास महंत, बृजभूषण शरण सिंह, रमेश राठौर, पी, लिंगम, नवादा के भोला सिंह, पबन सिंह घटोबर, समस्तीपुर के महेश्वर हजारी, बक्सर के जगदानंद सिंह, गोरखपुर के योगी आदित्यनाथ, अधीर चौधरी, प्रसनता कुमार मजुमदार, पूर्वी चंपारण के राधा मोहन सिंह ने अपनी बात रखी थी।
मधुबनी का सांसद हुकुमदेव नारायण सिंह ने अपनी बात रखते हुए कहा था, 'बिहार में हर साल चार-पांच जिला में आंशकि तौर पर सुखाड़ की छाया रहती है। चार-पांच जिला में बाढ़ से परेशानी रहती है। उसी तरह देश के लगभग 200 जिला में निरंतर सुखाड़ रहता है। हर पांच साल पर छोटा, दस साल पर मंझोला और बीस साल पर बड़ा अकाल आता है। अकालचक्र का इतिहास नहीं लिखा गया है। मौसम विज्ञानी तथा भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के वैज्ञानिक मिलकर अकाल पर शोध करें और उसके कालचक्र का इतिहास तैयार करें। हर सौ साल पर भयंकर अकाल आता है। बिहार में ओर देश के अन्य हिस्से में 1914-15 में अकाल आया था। अब 2014 -2015 में अकाल का भयंकर प्रकोप आने वाला है। 2009 में फसल मारी जाएगी इसका प्रभाव 2010 में पड़ेगा। जब अकाल का इतिहास बन जाएगा तब उसके कारण और निदान की खोज की जाएगी। कारण का पता लगाए बिना निदान नहीं खोजा जा सकता है। वैज्ञानिक अपने विज्ञान पर अहंकार करते है और अवैज्ञानिकता को विज्ञान मान लेते हैं। किसान अनपढ़ होता है परंतु उसके पास अनुभव गम्य ज्ञान होता है। उस अनुभव और जानकारी का लाभ उठाने का उपाय किया जाए। अंध आधुनिकता के कारण हमने प्राचीनता और प्रचिलत व्यवहारिक अनुभव गम्य ज्ञान को अंधविश्वास मान लिया है। अंधविश्वास से अंध अविश्वास ज्यादा खतरनाक होता है। स्थायी निदान खोजा जाए।"
इसके बाद नरहरि महतो, दुश्यंत सिंह ने अपनी बात रखी थी। इसी बीच सारण के सांसद लालू यादव बीच में बोल पड़े, 'महोदय, मैं आपसे जानना चाहता हूं कि आप पार्टीवाइज कितने आदमियों को बुलवाएंगे हमारे दल से एक माननीय सदस्य बोले हैं, हम तीन आदमी और हैं। क्या कोई सीमा है या नहीं।" इसके बाद गणेशराव नागोराव दूधगांवकर, अन्नु टंडन, रमाशंकर राजभर, जयाप्रदा, मदनलाल शर्मा, गणेश सिंह, जयश्रीबेन पटेल, अर्जुन राम मेघवाल ने भी प्राकृतिक आपदा से संबंधित अपनी बात रखी।
तमाम लोगों के द्वारा अपनी बात रखे जाने के बाद सुपौल के सांसद विश्व मोहन कुमार कुछ इन शब्दों में अपनी बात रखी थी, 'महोदय, मैं आपका आभारी हूँ कि आपने इतने ज्वलंत विषय पर विचार व्यक्त करने का मौका दिया।आज पूरे विश्व में एक ऐसा देश है जहां छ: छ: ऋतु होती हैं, जो किसी भी देश में नहीं हैं। ऐसा मौसम कहीं नहीं है, ऐसा माना जाता है। लेकिन विगत कुछ वर्षों से पर्यावरण का दोहन अधिक होने के चलते प्रकृति का संतुलन बिगड़ता जा रहा है। समय पर प्रकृति धोखा दे जाती है, जिससे भारत में कृषि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। भारत एक कृषि प्रधान देश है। हम लोग बचपन से पढ़ते आ रहे हैं, यहां का 70-75 प्रतिशत आबादी कृषि पर आधारित है और वही देश की आर्थिक सम्पन्नता का पैमाना है।
आज मानसून के विमुख हो जाने के कारण कभी अतिवृष्टि और कभी अनावृष्टि की चपेट में हम लोग पड़ जाते हैं। प्रकृति का जितना दोहन होगा उतना पृथ्वी पर उल्टा असर पड़ेगा। जैसा कि अभी सूखे से पड़ रहा है। औसत से बहुत ही कम वर्षा इस बार हुई है। बिहार में 246.5 वर्षा होनी चाहिए लेकिन अभी तक मात्र 118.21 वर्षा ही रिकार्ड की गई है। मेरे यहां सुपौल में जहां पर 280.2 प्रतिशत वर्षा अनुमानित थी लेकिन मात्र178.6 प्रतिशत ही वर्षा हुई है। इसमें 38.39 प्रतिशत का ह्मस हुआ है। बारिश नहीं होने से जहां 36 लाख धान की खेती निर्धारित थी वह 25-30 लाख पर ही संभव हो सकता है। दलहन, मक्का का भी यही हाल है। हतना ही नहीं इसका प्रतिकूल प्रभाव रबी की फसल पर भी अप्रत्यक्ष रूप से पड़ेगा। खेत में नमी की कमी रहने के कारण उसका उत्पादन पर भी प्रतिकूल असर पड़ेगा। इससे राज्य तथा देश की आर्थिक स्थिति पर भी असर पड़ेगा।"
आज मानसून के विमुख हो जाने के कारण कभी अतिवृष्टि और कभी अनावृष्टि की चपेट में हम लोग पड़ जाते हैं। प्रकृति का जितना दोहन होगा उतना पृथ्वी पर उल्टा असर पड़ेगा। जैसा कि अभी सूखे से पड़ रहा है। औसत से बहुत ही कम वर्षा इस बार हुई है। बिहार में 246.5 वर्षा होनी चाहिए लेकिन अभी तक मात्र 118.21 वर्षा ही रिकार्ड की गई है। मेरे यहां सुपौल में जहां पर 280.2 प्रतिशत वर्षा अनुमानित थी लेकिन मात्र178.6 प्रतिशत ही वर्षा हुई है। इसमें 38.39 प्रतिशत का ह्मस हुआ है। बारिश नहीं होने से जहां 36 लाख धान की खेती निर्धारित थी वह 25-30 लाख पर ही संभव हो सकता है। दलहन, मक्का का भी यही हाल है। हतना ही नहीं इसका प्रतिकूल प्रभाव रबी की फसल पर भी अप्रत्यक्ष रूप से पड़ेगा। खेत में नमी की कमी रहने के कारण उसका उत्पादन पर भी प्रतिकूल असर पड़ेगा। इससे राज्य तथा देश की आर्थिक स्थिति पर भी असर पड़ेगा।"
आगे कहा, 'हम लोगों का इलाका भी सूखे से प्रभावित है। सुपौल, सहरसा, मधेपुरा, अररिया, पूर्णियां, किटहार, दरभंगा, मधुबनी और भी जिले हैं। यहां पर वैकिल्पक व्यवस्था नहर प्रणाली से सिंचाई होती थी, लेकिन पिछले वर्ष कुसहा तटबंध के टूटने से सारी नहर प्रणाली भी ध्वस्त हो गई, जिससे सिंचाई पर व्यापक प्रभाव पड़ा है। क्योंकि 60 प्रतिशत खेती मानसून पर ही निर्भर रहता है लेकिन इस बार मानसून दगा दे गया। जमीन में पानी का स्तर भी घट गया जिससे वाटर लेबल भी नीचे चला गया। पीने के पानी एवं नलकूप जिससे सिंचाई व्यवस्था भी होती, दगा दे गया। मैं सरकार से मांग करता हूं कि बिहार के सभी जिलों को सुखाड़ क्षेत्र घोषित करें तथा किसानों के लिए एक ऐसा पैकेज की व्यवस्था करें जिससे उन्हें खाद, बीज, पानी की व्यवस्था सरलता से मुहैया हो सके।" उन्होंने आगे कहा कि दुख होता है परसों-तरसों जब सूखा क्षेत्र की लिस्ट जारी हुई थी उसमें बिहार का नाम नहीं था पता नहीं बिहार के साथ केन्द्र की सरकार क्यों सौतेला व्यवहार कर रहा है। कोसी में भयंकर बाढ़ के समय से मदद करने से हाथ खींच लिया और सुखाड़ में भी बिहार के साथ वही व्यवहार है। देश के सभी राज्य एक समान हैं चाहे वह कांग्रेस हो अथवा नॉन कांग्रेसी।
विश्व मोहन कुमार के बाद नरेंद्र सिंह तोमर, अरविंद कुमार शर्मा, टोकचोम मेनिया, आर.के. सिंह पटेल, हरीश चौधरी, गिरीडीह के रवींद्र कुमार पांडेय, बदरूद्दीन अजमल, पी.के. बीजू, प्रसन्ना कुमार पतसनी ने अपने-अपने इलाके का चर्चा की। इसके बाद जब केंद्रीय खाद्य मंत्री शरद पवार ने सांसदों के सवालों का जवाब देना शुरू किया था तो बीच में लालू यादव ने 'बिहार" को लेकर टोकाटाकी की। शरद पवार ने जब इशारे में कहा कि बिहार से कोई मेमोरेंडम नहीं आया है तो लालू यादव ने कहा बिहार से आया है और इसकी चर्चा आपने नहीं की तो शरद पवार ने साफ कहा कि बिहार के मुख्यमंत्री की ओर से एक पत्र आया है, कोई मेमोरेंडम नहीं। इतने देर तक चुप्पी साधे रहने वाले मधेपुरा के मुख्यमंत्री शरद यादव डीजल पर राज्यों को सब्सिडी के मुद्दे पर मुंह खोला और बिहार को बिजली में सब्सिडी देने की मांग की। बहस में लालू यादव ने सोन इलाके में गेंहू और धान के पैदावार की चर्चा की।
ऐसे में सवाल यह है कि कोसी के इलाके की समस्या देश के सामने उठाने की जिम्मेदारी क्या सिर्फ सुपौल के सांसद की है? क्या पूर्णिया, अररिया, कटिहार, मधेपुरा के प्रतिनिधि को अपने इलाके की चिंता नहीं है? आज तक मधेपुरा की जो भोलीभाली जनता लालू यादव और शरद यादव को आंख मूंदकर वोट देती थी और उन्हें अपना प्रतिनिधि चुनकर भेजती रही, उनके कत्र्तव्य पर गौर करना आवश्यक है। सदन में इन दोनों नेताओं के रहते हुए यदि कोसी इलाके के बाढ़ और सुखाड़ की चर्चा न हो, इससे बड़ी त्रासदी कोसी क्षेत्र के लिए और क्या हो सकती है। कहने के लिए ये दोनों राष्ट्रीय नेता कहलाते हैं लेकिन जब घर में ही चूल्हा जलाने की लकड़ी उपलब्ध न करा सकें, तो किस बात के राष्ट्रीय नेता। ऐसे में जाहिर है कोसी की जनता को अपने चुने प्रतिनिधियों के चाल, चरित्र और चेहरे को समझना होगा, तभी विकास संभव है।
8/17/2011
कोसीनामा-6: विकास के नाम पर सांसद में पप्पू
कोशीनामा के इस अंक से हम कोशी के इलाके के तमाम सांसदों के संसद में कामकाज का जायजा लेंगे कि उन्होंने संसद में कब, क्या और किस विषय पर चर्चा की। आम लोगों को यह पता ही नहीं लगता कि उनके क्षेत्र के सांसद संसद में क्या करते हैं। कभी बहसों में भाग लेते हैं या नहीं। और फिर जब चुनाव का वक्त आता है तो जाति, धर्म, पार्टी के नाम पर वोट देने के लिए मजबूर होते हैं। ऐसे में जरूरी है कि अपने सांसदों के चाल, चरित्र और चेहरे को जानें और तमाम राजनीतिक उठापटक के बीच क्षेत्र के विकास को लेकर किस तरह आवाज बुलंद कर रहे हैं, यह जानने का हक हर आम जनता को है।
इस बार पूर्णिया के तत्कालीन सांसद पप्पू यादव:-
लोकसभा में 12 दिसम्बर, 2003 को 'राज्य में विकास कार्यों के लिए बिहार को आर्थिक पैकेज तथा इस संबंध में सरकार द्वारा उठाए गए कदम" विषय पर चर्चा हुई थी। हालांकि चर्चा की शुरुआत को रघुवंश प्रसाद ने की थी लेकिन पूर्णिया के तत्कालीन सांसद पप्पू यादव ने संसद के पटल पर जो बातें रखीं, वह न सिर्फ कोसी क्षेत्र के लिए बल्कि बिहार के विकास के नाम पर मायने रखती है। उन्होंने सीधे तौर पर कहा था, 'बिहार का दुर्भाग्य है कि उसका किस परिस्थिति में बंटवारा हुआ और बिहार बंटने के बाद, आज वह जिस मुकाम पर खड़ा है, अगर उस परिस्थिति में जाएंगे, तो हम यही पाएंगे कि बिहार बांटने वाले लोग सदन में भी हैं, सदन के बाहर भी बैठे हैं और सिर्फ राजनीतिक स्वार्थ के लिए बिहार बंट गया। बिहार बंटने के बाद 8.5 करोड़ गरीब लोगों की हालत पर, उनकी परिस्थिति पर, कभी भी बिहार में रहने वालों और बिहार से बाहर रहने वाले बिहार के लोगों ने चिन्ता नहीं की।"
हालांकि पप्पू यादव को लंच के पहले भाषण देना था लेकिन इसके लिए सिर्फ दो मिनट का समय उन्हें मिलता। इस कारण तत्कालीन अध्यक्ष ने उन्हें लंच के बाद अपनी बात रखने का आग्रह किया। इस मामले में रघुनाथ झा और देवेंद्र प्रसाद यादव ने भी भाग लिया था। लंच के बाद जब पप्पू यादव ने बोलना शुरू किया तो उन्होंने साफ कहा था कि जब बिहार बंट रहा था, तो केंद्र सरकार और दिल्ली में बैठे लोगों ने बिहार को विशेष पैकेज देने की घोषणा की जिसे बिहार के बंटने से पहले घोषित किया जाना था, लेकिन वह घोषणा बिहार बंटने से न पहले की गई और न बिहार बंटने के बाद। कभी बिहार में 5334 फैक्ट्रीज थीं। यदि हम शुरू से चलें, डालिमयां नगर से, गया से, भागलपुर आ जाएं, सीवान चले जाएं, छपरा चले जाएं, दरभंगा चले जाएं, पेपर मिल, गोपाल गंज सिल्क मिल, दालचीनी मिल, सारी की सारी फैक्ट्रियां बन्द हो गर्इं। बिहार सरकार में जो को-आपरेटिव संस्थाएं हैं और जिनके अन्तर्गत 14 और 19 छोटी और बड़ी चीनी मिलें हैं, वे सारी की सारी बन्द हो गई हैं।
पप्पू यादव का भाषण कई मायनों में अहम है। उन्होंने कहा कि कई राज्यों को केंद्र सरकार की ओर से विशेष छूट दी जाती है, लेकिन बिहार विशेष छूट वाले राज्यों में नहीं आता है जबकि देश की आधे से अधिक आबादी यानी 62.2 प्रतिशत निरक्षर हैं। जहां देश का शहरीकरण 27 प्रतिशत है वहीं बिहार का शहरीकरण केवल 10 प्रतिशत है और केवल 37 प्रतिशत लोग ही साक्षर हैं। यदि देश के शत-प्रतिशत साक्षर वाले राज्य केरल को छोड़ दें, तो देश की आधी आबादी के बराबर आठ हजार पांच सौ करोड़ रु पए की फसल, हर वर्ष जनसंख्या की आबादी के तीन हिस्से के बराबर, बाढ़ से बर्बाद हो जाती है और आज तक आजादी के बाद देश में इस बारे में कोई चिन्ता व्यक्त नहीं की गई। लेकिन नेपाल और हिमालय से निकलने वाली नदियों से बिहार में आने वाली बाढ़ को रोकने के लिए कोई वृहद् योजना न आज तक बनाई गई और न इस पर चर्चा की गई है। कोसी, कमला, महानंदा, गंडक, पुनपुन और गंगा आदि कई ऐसी नदियां हैं, जो बड़ी नदियां हैं लेकिन इनकी बाढ़ से बचाव के लिए कोई चिन्ता नहीं की गई।
पप्यू यादव ने देश के लोगों का ध्यान इस ओर भी आकृष्ट किया था कि उत्तर बिहार में 18-19 और जिले हैं, मध्य बिहार के जिले हैं, दक्षिण बिहार के जिले हैं, वे पूरी तरह से सूखा में हैं। हम सात महीने बाढ़ में रहते हैं और पांच महीने सूखा में रहते हैं।
पप्पू यादव ने कहा था कि देश की 25 प्रतिशत चीनी का बिहार में उत्पादन होता है। किशनगंज में कम से कम सौ ऐसे चाय के बागान हैं, जहां यदि आप चाय की बागानों के लिए किसी फैक्ट्री की व्यवस्था करते हैं, कोई ऐसी व्यवस्था करते हैं तो किशनगंज का इलाका अपने पर आत्मनिर्भर होगा। संसद में संबंधित मंत्री से उन्होंने जानना चाहा था कि कटिहार की जूट मिल, बनमनखी और मधुबनी की चीनी मिल या इस तरह की जितनी चीनी मिले हैं, सहरसा और दरभंगा की पेपर मिल, इनके लिए क्या योजना बनाई गई है।
उन्होंने जानना चाहा था कि भारत सरकार ने कम पैसे नहीं दिए - चाहे आरएफ में हों या प्रधानमंत्री सड़क योजना हो। वहां से भारत सरकार का पैसा लौट जाता है और आज प्रधानमंत्री सड़क योजना का तीन-चार बार दूसरे राज्यों में पैसा गया, लेकिन बिहार में आप एक बार भी पूरा पैसा नहीं भेज सके, इसका क्या कारण है इस तरह का व्यवहार क्यों किया जाता है, आपने अभी तक उन्हें पूरा पैसा क्यों नहीं भेजाआपने अन्य राज्यों में दो-तीन-चार बार पैसा भेजा और बिहार में एक बार भी नहीं भेजा। उन्होंने मांग की थी कि यदि बिहार को सुद्ृढ़ करना चाहते हैं तो उन्हें विशेष छूट दीजिए। बरौनी और मुजफ्फरपुर का जो विद्युत थर्मल पावर है उसे नयी तकनीकी में और डेवलप करके वृहद करिए। यदि इससे भी ज्यादा उसे सुंदर करना चाहते हैं तो जो किसान का बिहार में ऋण है, जब देवेगौड़ा जी प्रधानमंत्री बने तो विशेष पैकेज कर्नाटक को मिला और गुजरालजी बने तो पंजाब को मिला। जो पंजाब देश में सबसे ऊपर है। वहां तीन नदियां हैं और वह सबसे ऊपर है। हम सौ नदियों वाले सबसे नीचे हैं, 32वें स्थान पर हैं।
उन्होंने कहा था कि गुजराल साहब बिहार से बने, लेकिन पैकेज पंजाब को मिला। देवेगौड़ा जी को किंग मेकर बनाने वाले बिहार वाले हैं और पैकेज कर्नाटक को मिल गया। बिहार सरकार कहती है कि बिहार में कुछ नहीं है तो मेरा कहना है कि बिहार की सरकार को बिहार छोड़ कर केंद्र के सुपुर्द कर देना चाहिए। मेरा बिहार के विशेष पैकेज से मतलब है, बिहार जिस परिस्थिति और हालात में दूसरे से 32वें स्थान पर चला गया है, उसे उस हालात में लाने के लिए अगर राज्य सरकार कुछ नहीं करती तो मेरा केन्द्र से आग्रह है कि आप विशेष पैकेज के रूप में सारी फैक्ट्रियों को ले लीजिए। पप्पू यादव ने मांग की थी कि कृषि पर आधारित जो लघु, कुटीर उद्योग हैं, बिग और स्माल इंडिस्ट्रीज हैं, उनका मूल्यांकन की जाए। मूल्यांकन करने के बाद बिहार में कैसे रोजगार डवलप हो, कैसे वहां के मजदूर बाहर न जायें और बाहर जाने की जहां तक बात है, छात्र बाहर नहीं जायें, इसकी व्यवस्था करनी चाहिए। संयोगवश इस वक्त के बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार उस वक्त केंद्र में रेल मंत्री थी। पप्पू यादव ने उन्हें इंगित करते हु, कहा था कि यहां बिहार के नीतीश जी बैठे हैं, ये रेल मंत्रालय में है, दूसरे लोग भी हैं, सभी लोग हैं, आपने एक भाग में बहुत काम किया, लेकिन उसकी और जो परिस्थितियां हैं, रोजगार की जो परिस्थितियां हैं, वहां से विद्यार्थी, बिहार के नौजवान बाहर जा रहे हैं। उनके लिए रोजगार कैसे पैदा हो, सबसे ज्यादा केन्द्र को वहां रोजगार पैदा करने के लिए कोई नई ताकत, कोई नई फैक्टरी, बन्द पड़ी फैक्टरी का काम करना चाहिए।
8/16/2011
कोसीनामा-5
सफर नहीं था आसान
कोसी इलाके में बाढ़ किस कदर कहर बरपाती है, ये घटनाएं दशकों बाद रोंगटे खडे़ करते हैं। मानसून के मौसम में कोसी सहित इसकी तमाम सहायक नदियां उफान पर होती हैं और पूरे इलाके को जलमग्न करती हैं। ऐसे में सड़क परिवहन से लेकर रेल परिवहन किस कदर प्रभावित होता है, यह देखना हो तो जरा इस मौसम में पूरे इलाके का दौरा करना मुनासिब होगा।भागलपुर गंगा पुल बनने से पहले कोसी क्षेत्र की हालत यह थी कि दक्षिण बिहार से वहां पहुंचने के लिए मुंगेर, अगवानी घाट और बरारी घाट के अलावा महादेवपुर घाट से नाव, स्टीमर के जरिए गंगा पारकर लोग कोसी क्षेत्र में प्रवेश करते थे। वैसे भी दो दशक पहले यदि कोसी क्षेत्र के लोगों को बाजार करना होता था तो वे भागलपुर ही बाजार करने जाते थे। ऐसे में ये चारों घाट देवघर, दुमका, बांका, भागलपुर, मुंगेर, साहेबगंज आदि सहित झारखंड के तमाम जिलों को कोसी क्षेत्र स जोड़ने का काम करता था। कई-कई बार लोगों को अपने गंतव्य तक पहुंचने में एक दिन से भी अधिक का समय लगता। जो लोग मुंगेर घाट से गंगा पार करते और उन्हें सहरसा, मधेपुरा, सुपौल, पूर्णिया, कटिहार जाना होता, वे खगड़िया आकर ट्रेन पकड़ते थे। जो लोग सुलतानगंज में गंगा पार करते, वे अगुवानी आकर वहां से महेशखूंट और फिर मानसी आकर ट्रेन पकड़ते। यही हाल बरारी और महादेवपुर घाट का होता, जहां लोग बिहपुर में जाकर ट्रेन पकड़ते।
खगड़िया, मानसी, सहरसा के बीच बड़ी लाइन बनने के बाद सफर आसान हो गया है लेकिन कभी वक्त था जब इस लाइन में सफर करने के लिए एकमात्र विकल्प छोटी लाइन की ट्रेनें होती थीं। अधिकतर ट्रेनें लेटलतीफ चलतीं तो इस रूट पर ट्रेन से सफर करने के लिए लोगों को बागी के ऊपर बैठना पड़ता था। खगड़िया-मानसी-महेशखूंट होकर असम रोड जाती है और बाढ़ के मौसम में इस नेशनल हाइवे के किनारे महीनों तक लोगों को टैंट लगाकर अपनी रात बिताते देखा जा सकता था। मानसी स्टेशन के एक ओर बड़ी लाइन है तो दूसरी ओर छोटी लाइन गुजरती थी। बड़ी लाइन की ओर प्लेटफार्म पर एक किताब की दुकान हुआ करती थी जिसके मालिक काफी पढ़ाकू थे। हालांकि वे एक पैर से विकलांग थे लेकिन उनकी दुकान पर उस समय की तमाम पत्र-पत्रिकाएं होती थीं। मसलन, बालहंस, बालभारती, पराग, नंदन, सुमन सौरभ, अविष्कार, विज्ञान प्रगति, चंपक आदि।
उस दौर में जब समस्तीपुर से नरकटियागंज जाने वाले ट्रेनें लेट होती तो मानसी जंक्शन का पूरा का पूरा प्लेटफार्म यात्रियों से भरा होता। यात्री पूरे परिवार के साथ चादर, गमछा या अखबार बिछाकर देर रात तक सोते अौर ट्रेन आने पर ऊंघते हुए सफर करने के लिए मजबूर होते। अंग्रेजों के जमाने के रेल पुल की हालत इतनी खराब होती कि जब भी कोई पुल आता तो लोग 'जय कोसी माय" कहकर प्राण रक्षा की गुहार लगाते। सहरसा से मानसी तक का सफर ऊपर वाले की कृपा से पूरी करते। उस दौर में सहरसा से मानसी के बीच के स्टेशनों पर अपराधियों का इस कदर बोलबाला रहता कि जैसे ही ट्रेन खुलती, खिड़की किनारे बैठे लोगों के हाथों से घड़ी या गले की चेन झपटी जा चुकी होती।
जिन लोगों को पूर्णिया जाना होता था, वे मानसी में छोटी ट्रेन से सहरसा आते। फिर ट्रेन बदलकर बनमनखी आना होता। फिर वहां से पूर्णिया जाते। जिन लोगों को चौसा, आलमनगर, उदा किशुनगंज जाना होता, वे या तो दौरम मधेपुरा उतरकर बस या जीप से अपने गंतव्य तक जाते। या फिर बनमनखी से बिहारीगंज आकर फिर जीप या टमटम से लोग अपने घरों को जाते।
8/13/2011
कोसीनामा-4
कोसीनामा के इस हिस्से को सिर्फ मधेपुरा और बीपी मंडल पर फोकस करना ज्यादती हो सकती है लेकिन इसके कई मायने हैं। 2008 में जब कोसी ने कहर बरपाया था तो पूरा का पूरा मधेपुरा जिला इसकी आगोश में आने के लिए मजबूर था। हालांकि सुपौल, सहरसा, पूर्णिया आदि जिले के दायरे में आने वाले लोग भी कम त्रस्त नहीं थे। वहां भी लाखों का नुकसान हुआ, मवेशी और फसल की काफी बर्बादी हुई। मीडिया के साथ-साथ उस वक्त राजनीति ने भी करवट ली। कभी नीतिश और लालू एक मंच पर दीखते थे, जेपी आंदोलन की पैदाइश इन दोनों नेताओं ने जिस कदर बाढ़ के दौरान एक-दूसरे पर आरोप लगाए, इस पर शोध की काफी गुंजाइश है। वहीं, सांसद पप्पू यादव जेल में रहकर भी इस कदर आर्थिक सहायता दी, जो संसदीय इतिहास के अहम पन्ने में दर्ज है।
बिहार में एक नारा है, 'रोम पोप का, मधेपुरा गोप का।" भले ही लालू यादव ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में इस नारे के साथ यहां के लोगों में अलख जगाते रहे हों लेकिन उनकी स्थिति कुल मिलाकर यही रही कि जिस धरती पर उन्होंने 'यादव" के नाम पर जमकर वोट हासिल किया, वहीं मिट्टी उन्हें सबक भी सिखाने से बाज नहीं आई। कभी शरद यादव को जीताकर लालू ने अपने मित्र कत्र्तव्य का निर्वाह किया लेकिन जब किस्मत पलटी तो शरद यादव ने उन्हें चारों खाने चित्त किया।
नब्बे के दशक के जिस दौर में लालू प्रसाद यादव बिहार की राजनीति में चमक रहे थे, उससे कुछ अरसा पहले वे राष्ट्रीय राजनीति में अपनी पहचान बनाने में जुटे थे। वीपी सिंह प्रधानमंत्री का पद दिल्ली में संभाल रहे थे। बोफोर्स तोप की नोक पर उन्होंने राजीव गांधी को सड़क पर ला खड़ा किया था अौर फिर मंडल कमीशन के नाम पर भारतीय राजनीति के साथ-साथ सामाजिक बदलाव का जो उन्होंने काम किया, वह इतिहास के पन्नों में दर्ज है। देश के कोने-कोने में इस कमीशन का विरोध हुआ लेकिन मंडल कमीशन क्या था, यह मंडल कौन थे, शायद ही किसी ने गौर किया।
बहुतों को शायद ही पता हो कि मंडल की आंधी ने राष्ट्रीय राजनीति की तस्वीर बदलकर रख दी, लेकिन मंडल खुद अपनी तस्वीर नहीं बदल पाए थे। सत्तर के उत्तरार्ध में मंडल कमीशन के चेयरमैन बिन्देश्वरी प्रसाद मंडल बिहार के मधेपुरा से सांसद बने थे। यही वह वक्त था जब देश में जनता पार्टी की सरकार थी और प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने हासिये से बाहर रह रहे लोगों को आरक्षण देने के लिए कमीशन का गठन किया था। दशकों बाद अपनी रिपोर्ट के जरिये राजनेताओं से लेकर आम आदमी की तकदीर तो मंडल ने बदल दी लेकिन इसके बाद वे संसद का मुंह नहीं देख पाए।
बी पी मंडल बिहार के मधेपुरा संसदीय क्षेत्र से दो बार सांसद बने। पहली बार 1967 में उन्होंने संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा) के टिकट पर जीत दर्ज की थी तो दूसरी बार 1977 में उन्होंने बीएलडी के टिकट पर संसद की राह पकड़ी। दिलचस्प है कि वे सिर्फ 48 दिन बिहार के मुख्यमंत्री रहे जबकि इनसे ठीक पहले एक मुख्यमंत्री ने सिर्फ तीन दिन काम किया था। उनका राजनीतिक करियर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से शुरू हुआ था लेकिन आपातकाल के बाद वे जनता पार्टी में शामिल हो गए।
दिसम्बर, 1978 एक ऐसा समय आया जब तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने बिन्देश्वरी प्रसाद मंडल को अन्य पिछड़े वर्ग की स्थिति और सुधार को लेकर एक रिपोर्ट तैयार करने का जिम्मा सौंपा। मंडल की अध्यक्षता में गठित समिति में पांच सदस्य थे। समिति ने अपनी रिपोर्ट 1980 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को सौंपी लेकिन इसे एक दशक बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह ने लागू किया। दिलचस्प है कि मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू कराने और इस पर राजनीति कर अधिकतर दलों ने जमकर फायदा उठाया। लेकिन इसका फायदा बिन्देश्वरी प्रसाद मंडल को नहीं मिला। 1971 के लोकसभा चुनाव में इन्हें जबरदस्त हार का सामना करना पड़ा। 1977 में मधेपुरा संसदीय क्षेत्र में जीते लेकिन 1980 के चुनाव में मुंह की खानी पड़ी। उस बार तो उन्हें सिर्फ 13.50 फीसद वोट ही हासिल हुआ और वे तीसरे स्थान पर रहे।
जानकारों का मानना है कि और राजनेताओं के मुकाबले अपने संसदीय क्षेत्र में मतदाताओं पर उनकी पकड़ कम थी और बहुत से लोगों के आंखों का तारा वे जीवित रहते नहीं बन पाए। यह अलग बात है कि मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के बाद उनके नाम पर राजनीति करने वालों ने एक खास तबके पर जबरदस्त पकड़ बनाई है। बिहार की राजनीति में कम पकड़ होने के बावजूद मंडल का नाम राष्ट्रीय राजनीति में रिपोर्ट के कारण याद किया जाता रहेगा। क्योंकि इसके बाद भारत की राजनीति की दशा और दिशा दोनों में जबरदस्त बदलाव आया जो अब भी मौजूद है। जो प्रतिष्ठा स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय स्तर पर मिलनी चाहिए, उससे वे अब तक मरहूम रहे हैं। गौरतलब है कि मंडल के नाम पर ही मध्यप्रदेश के जबलपुर से ताल्लुक रखने वाले शरद यादव हों और गोपालगंज के लालू प्रसाद जैसे नेता भी मधेपुरा की जनता को लुभाते रहे हैं और सांसद बनते रहे हैं। वे यहां के सपूत बीपी मंडल का नाम को भुनाते रहे हैं और उनके सपनों को साकार करने में अक्षम रहे हैं। क्योंकि यदि चाहे लालू, शरद हों या फिर पप्पू, उनके सपनों को साकार करते तो 2008 में कोसी का कहर कतई इस कदर नहीं बरपता
8/10/2011
कोसीनामा-3
कोसी की पानी में ही नहीं बल्कि बिहार में आने के बाद गंगा के पानी में भी काफी ताकत आ जाती है। गंगा और कोसी का मैदानी इलाका जितना उपजाऊ है, उतनी ही उर्वरा शक्ति यहां की मिट्टी में भी है। कोसीनामा के पहले भाग में जिक्र किया गया था कि कोसी की दृष्टि सभी के लिए समान है। हर किसी को कोसी एक ही नजर से देखती है लेकिन जब पूरे इलाकाई भाषा की ओर गौर करें तो आप बिना गंभीर हुए नहीं रह सकते।
दिल्ली में अक्सर लोगों के मुंह से सुन सकते हैं, हरियाणवी को 'रोड' 'रोड़' नजर आता है और बिहारी को 'बिहाड़ी" कहना पसंद है। बिहार में भी सुन सकते हैं कि 'हवा बहती है, न बहता है, हवा बहह है।' ऐसे में दिल्ली में बिहार के लोगों को यह हमेशा सुनना पड़ता है कि उनमें लिंग दोष काफी अधिक होता है। उन्हें पता नहीं होता कि 'स','श' और 'ष' का उच्चारण कहां से होता है? उन्हें पता नहीं होता कि 'र' और 'ड़' का उच्चारण कहां होता है? ऐसा में 'रश्मि' का उच्चारण 'ड़स्मि' तो कभी कुछ और कर देते हैं। 'घोड़ा' को 'घोरा' भी कह देते हैं और हंसी के पात्र बनते हैं। जब दिल्ली में दिल्ली और यूपी के लोग उन्हें बतौर 'इंटरटेनमेंट आब्जेक्ट' के तौर पर लेते हैं तो बिहार के लोग परेशान हो जाते हैं। 'फ्रस्टेशन' के शिकार हो जाते हैं लेकिन उन्हें यह नहीं सूझता कि आखिर वे लिखते तो बढ़िया हैं लेकिन उच्चारण दोष क्यो हो जाता है। उन्हें क्यों नहीं पता है कि स्त्रीलिंग क्या है और पुलिंग क्या?
क्या आपको मालूम है कि बिहार की दो भाषाएं मसलन मैथिली और भोजपुरी, दोनों में पुलिंग और स्त्रीलिंग का अलग-अलग प्रयोग नहीं होता। यही नहीं, इन दोनों भाषाओं की जितनी 'सिस्टर लैंग्वेज' यानी अंगिका, मगही, वज्जिका आदि भाषाओं में भी चाहे पुरुष हो या स्त्री, सभी के लिए एक ही तरह का संबोधन है। कोसी और गंगा की पानी सभी के लिए समान है। हिन्दी में जब हम बात करते हैं तो पुरुष को कहते हैं, 'तुम जा रहे हो', वहीं महिला को कहेंगे, 'तुम जा रही हो' लेकिन जब हम मैथिली में बोलेंगे तो कहेंगे, 'अहां जा रहल छी।' मैथिली में इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि सामने वाला पुरुष है या स्त्री। मैथिली या कोसी में पुरुष और स्त्री के भेद न होने के कारण जो छात्र वहां पढ़ाई करते हैं वे हिन्दी, संस्कृत और अंग्रेजी में इनके अंतर को समझते हैं लेकिन घर आते-आते भूल जाते हैं कि पुरुष से कैसे और स्त्री से कैसे बात करनी है।
दिल्ली के स्कूलों और कॉलेजों में 'बड़ी ई', 'छोटी इ', 'बड़ा ऊ', 'छोटा उ' जैसे शब्द खूब सुनने को मिलेंगे। शुरू में जब बिहार के छात्र यहां पढ़ाई करने आते हैं तो उन्हें समझ ही नहीं आता कि यह बड़ा और छोटा क्या होता है। ऐसे में यह बात जान लेनी जरूरी है कि बिहार, बंगाल का इलाके में जो पढ़ाई होती है, उसका जुड़ाव कहीं न कहीं संस्कृत से होता है जबकि पश्चिम यूपी और दिल्ली में अरबी, फारसी का प्रभाव कहीं अधिक है। जहां हम बिहार में दीर्घ और ह्रस्व का प्रयोग करते हैं वही दिल्ली आकर बड़ी और छोटी में तब्दील हो जाती है।
दिल्ली में अक्सर लोगों के मुंह से सुन सकते हैं, हरियाणवी को 'रोड' 'रोड़' नजर आता है और बिहारी को 'बिहाड़ी" कहना पसंद है। बिहार में भी सुन सकते हैं कि 'हवा बहती है, न बहता है, हवा बहह है।' ऐसे में दिल्ली में बिहार के लोगों को यह हमेशा सुनना पड़ता है कि उनमें लिंग दोष काफी अधिक होता है। उन्हें पता नहीं होता कि 'स','श' और 'ष' का उच्चारण कहां से होता है? उन्हें पता नहीं होता कि 'र' और 'ड़' का उच्चारण कहां होता है? ऐसा में 'रश्मि' का उच्चारण 'ड़स्मि' तो कभी कुछ और कर देते हैं। 'घोड़ा' को 'घोरा' भी कह देते हैं और हंसी के पात्र बनते हैं। जब दिल्ली में दिल्ली और यूपी के लोग उन्हें बतौर 'इंटरटेनमेंट आब्जेक्ट' के तौर पर लेते हैं तो बिहार के लोग परेशान हो जाते हैं। 'फ्रस्टेशन' के शिकार हो जाते हैं लेकिन उन्हें यह नहीं सूझता कि आखिर वे लिखते तो बढ़िया हैं लेकिन उच्चारण दोष क्यो हो जाता है। उन्हें क्यों नहीं पता है कि स्त्रीलिंग क्या है और पुलिंग क्या?
क्या आपको मालूम है कि बिहार की दो भाषाएं मसलन मैथिली और भोजपुरी, दोनों में पुलिंग और स्त्रीलिंग का अलग-अलग प्रयोग नहीं होता। यही नहीं, इन दोनों भाषाओं की जितनी 'सिस्टर लैंग्वेज' यानी अंगिका, मगही, वज्जिका आदि भाषाओं में भी चाहे पुरुष हो या स्त्री, सभी के लिए एक ही तरह का संबोधन है। कोसी और गंगा की पानी सभी के लिए समान है। हिन्दी में जब हम बात करते हैं तो पुरुष को कहते हैं, 'तुम जा रहे हो', वहीं महिला को कहेंगे, 'तुम जा रही हो' लेकिन जब हम मैथिली में बोलेंगे तो कहेंगे, 'अहां जा रहल छी।' मैथिली में इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि सामने वाला पुरुष है या स्त्री। मैथिली या कोसी में पुरुष और स्त्री के भेद न होने के कारण जो छात्र वहां पढ़ाई करते हैं वे हिन्दी, संस्कृत और अंग्रेजी में इनके अंतर को समझते हैं लेकिन घर आते-आते भूल जाते हैं कि पुरुष से कैसे और स्त्री से कैसे बात करनी है।
दिल्ली के स्कूलों और कॉलेजों में 'बड़ी ई', 'छोटी इ', 'बड़ा ऊ', 'छोटा उ' जैसे शब्द खूब सुनने को मिलेंगे। शुरू में जब बिहार के छात्र यहां पढ़ाई करने आते हैं तो उन्हें समझ ही नहीं आता कि यह बड़ा और छोटा क्या होता है। ऐसे में यह बात जान लेनी जरूरी है कि बिहार, बंगाल का इलाके में जो पढ़ाई होती है, उसका जुड़ाव कहीं न कहीं संस्कृत से होता है जबकि पश्चिम यूपी और दिल्ली में अरबी, फारसी का प्रभाव कहीं अधिक है। जहां हम बिहार में दीर्घ और ह्रस्व का प्रयोग करते हैं वही दिल्ली आकर बड़ी और छोटी में तब्दील हो जाती है।
कोसी और गंगा के इलाकों में जहां स, श और ष के लिए हम कहते हैं 'दंत स', 'तालव्य श' और 'मूर्धन्य ष', वहीं दिल्ली आकर ये सड़क वाला 'स', शक्कर वाला 'श' और षटकोण वाले 'ष' में बदल जाता है। यानी जहां कोसी/गंगा इलाके में छात्रों को बताया जाता है कि किस 'स' का उच्चारण मुंह के किस भाग से से होता है लेकिन उच्चारण करने पर जोर नहीं दिया जाता वहीं दिल्ली/यूपी आने पर छात्रों और शिक्षकों को यह पता नहीं होता कि इन तीन शब्दों का उच्चारण कहां से होता है लेकिन वे उच्चारण सही करते हैं। बहरहाल, 'कोस-कोस पर बदले पानी, दस कोस पर बानी' को याद करते हुए इसका इकोनोमिक्स और सोशल साइंस समझना आवश्यक है कि आखिर कुछ उच्चारणों के कारण दिल्ली में बिहारी गाली क्यों बन जाती है। कोसी और गंगा के पानी में पैदा हुए लोग जिस तरह के इंटेलीजेंट, लेबोरियस के साथ कर्मठ होते हैं तो जाहिर सी बात है कि दिल्ली आने पर बाकी लोग उनकी क्षमता से घबराते हैं और अपनी कुंठा को 'बिहारी' कहकर प्रकट करने के लिए विवश होते हैं।
8/04/2011
कोसीनामा-2
कोसी शब्द से जुडी सिर्फ नदी ही नहीं है, जिसे 'बिहार का शोक' कहा जाता है बल्कि यह नाम भगवान कृष्ण से भी जुडी हुई है। जब आप दिल्ली से मथुरा जाएंगे तो पलवल के बाद 'कोसीकलां' नामक जगह आता है। यह पूरा इलाका भगवान कृष्ण को ही अपना अराध्य मानता है। यहां के कण-कण में भगवान ही बसते हैं। यहां के लोगों के पालनहार भगवान कृष्ण ही हैं। यही स्थान बिहार के मिथिला क्षेत्र में कोसी नदी को मिला है। इसे मिथिला क्षेत्र की संस्कृति का पालना भी कहा गया है। विकीपीडिया के मुताबिक, कोसी नदी के तट पर मिथिला की संस्कृति जीवित है। 'माछ', 'पान' और 'मखान' इसी के सहारे पूरी दुनिया में 'प्रतिष्ठा' पाती है।
कोसी को कोशी भी कहा जाता है और पूरे क्षेत्र को कोशी का नाम से जाना भी जाता है। कोशी प्रमंडल नाम से प्रमंडल भी है। हालांकि यदि 'कोसना' शब्द पर विचार करें तो शायद इसी 'कोसना' शब्द से 'कोसी' शब्द का निर्माण हुआ हो। क्योंकि हर साल जिस तरह यह अपना तांडव पूरे इलाके में फैलाती है कि लोगों को अपने भाग्य को कोसने के अलावा कोई विकल्प सदियों से शायद ही दीखता हो। कोसी नाम का प्रयोग कई हिन्दू धर्मग्रंथों में भी व्यापक तौर से हुआ है। ऋगनाम हिन्दू ग्रंथों में इसे कौशिकी नाम से उद्धृत किया गया है। कहा जाता है कि विश्वामित्र ने इसी नदी के किनारे ऋषि का दर्जा पाया था। सात धाराओं से मिलकर सप्तकोशी नदी बनती है जिसे स्थानीय रूप से कोसी कहा जाता है। इस नदी को नेपाल में कोशी के नाम से पुकारा जाता है. महाभारत में भी इसका जिक्र है।
काठमाण्डू से जब आप एवरेस्ट पर चढ़ाई करने के लिए जाएंगे तो आपको चार नदियां मिलेंगी। ये चारों नदी कोसी की सहायक नदियां हैं। तिब्बत की सीमा से लगा 'नामचे बाजार" जरूर देख आएं। यह कोसी के पहाड़ी रास्ते का सबसे प्रमुख पर्यटन स्थल है। मनमोहक दृश्यों को आप शायद ही अपने कैमरे में लेना भूलेंगे। फिर बिहार में बहने वाली नदी चाहे बागमती हो या बूढ़ी गंडक, इसी कोसी की सहायक नदियां ही तो हैं। नेपाल में यह कंचनजंघा के पश्चिम से होकर बहती है। नेपाल के हरकपुर में इससे दो सहायक नदियां 'दूधकोसी' तथा 'सनकोसी' मिलकर एक हो जाती है। और तो और 'सनकोसी, 'अरु ण और 'तमर नदियों के साथ यह त्रिवेणी में मिलती हैं। इसके बाद इसे सप्तकोशी कहा जाता है और फिर यह बराहक्षेत्र में तराई क्षेत्र में प्रवेश करती है। इसके बाद यह असली रूप में यानी कोसी के तौर पर सामने आती है। इसकी सहायक नदियां एवरेस्ट के चारों ओर से आकर मिलती हैं और यह विश्व के ऊँचाई पर स्थित ग्लेशियरों (हिमनदों) के जल लेती हैं। भीमनगर के निकट यह भारतीय सीमा में दाखिल होती है।
बरसात के मौसम में हर साल कोसी तांडव मचाती है। कभी अपने एक किनारे की ओर तो कभी दूसरे किनारे की ओर। पूरे इलाके में कोसी कितने नामों से जानी जाती है, वह इलाकाई लोग ही बता सकेंगे। कोसी का ही प्रकोप है कि वीरपुर से बिहपुर तक की 'हाइवे अभी तक नहीं बन पाई है। घोषणा कितने बर्ष पहले हुई, यह सरकारी फाइलें ही बता सकती हैं। इस हाइवे की आस लगाए कई पुस्त जिंदगी खत्म भी हो चुकी है। चौसा के पास पुल बरसों से अधूरा पड़ा है। लेकिन जिन्हें पार करना होता है वह करते हीं हैं, नाव से। वीरपुर से बिहपुर तक की सड़क वन लेन ही है। एक तरह से बस आती है तो दूसरी तरह से आने वाली बस को 'पक्की से नीचे 'कच्ची पर उतरना पड़ता है। ना उतारो तो 'मां, 'बहन की इज्जत की 'वाट लगनी तय है।
8/03/2011
कोसीनामा-1
कोसी की गाथा या यों कहें दु-गाथा की कई कहानियां हैं। क्योंकि इसे 'बिहार का शोक" कहा जाता है। इसकी कोई मुख्य धारा नहीं है। उत्तर बिहार के समूचे इलाके के विस्तृत भूभाग से होकर यह गुजरती है। इलाके के लोग इसे 'धार" कहते हैं। बिहार के सहरसा, मधेपुरा, पूर्णिया, कटिहार, अररिया आदि जिलों के तमाम इलाकों में घूम आइये, कोसी किसी न किसी रूप में आपको 'ठाम-ठाम" पर मिल जाएगी। बड़े-बड़े नालों की तरह दीखने वाली कोसी की 'धार" आपको कभी सूखी मिलेगी तो कभी पानी से लबालब। कहीं इस पर सरकार के द्वारा बनाया गया 'पुलिया" दीख जाएगा तो कहीं ग्रामीणों द्वारा बांस, लकड़ी या फिर सीमेंट के पोल से बनाया गया पुल। अनोखी दास्तां है कोसी की और कोसी के दामन में रहने वाले लोगों की।
कोसी कभी सूखती नहीं। इसकी आंखों में आंसू हमेशा रहते हैं। अपने अल्हड़पन से लोगों को त्रस्त करने के बाद इसे काफी पछतावा भी होता है। क्योंकि बरसात के मौसम के बाद जब यह शांत होती है तो पूरे इलाके में कोसी के दर्द को देखा जा सकता है। छोटे-बड़े नालों के रूप में बहने वाली कोसी में पानी तो जरूर रहता है लेकिन वह उसके विराट स्वरूप में सिर्फ आंसू की तरह नजर आता है। उस वक्त न वह अल्हड़पन दिखाई देता है और न ही औघड़पन। शांत, निर्मल। इतना निर्मल कि आप यदि एक 'चुरू" पानी भी भी लें तो आपकी आत्मा 'तिरपित" हो जाएगी। आपको विश्वास नहीं होगा कि यह वही कोसी है, जिसके गुस्सैल स्वभाव ने इलाके को जलमग्न कर दिया और सभी को खुद में समाहित कर चुकी है। यह हाल बरसात के मौसम के बाद पूरे साल कोसी की रहती है।जब आप कुरसेला से होकर गुजरेंगे, वह चाहे रेल मार्ग हो या फिर सड़क मार्ग। कुरसेला पुल से गुजरते हुए आपको साफ-साफ दीख जाएगा कि किसी तरह कोसी गंगा से मिल रही है। एक तरह 'तामस" रखने वाली कोसी वहीं दूसरी तरफ शांत-निर्मल गंगा। दोनों के पानी में अंतर। रंग में अंतर। पानी की धारा में अंतर। नदी की 'चक्करघिन्नी" में भी अंतर। लेकिन कोसी अपने इलाके में क्यों न कितनी भी झटपटाहट रखती हो, करवट बदलती हो लेकिन जब उसे गंगा 'हग" करती है तो फिर क्या मजाल कि कोसी का मन शांत न हो। जो कोसी हर साल पूरे इलाके में जानमाल से लेकर लाखों की संपत्ति लील जाती है उसी कोसी का मन गंगा से मिलकर गंगा में ही विलीन हो जाती है। कोसी मैया है और गंगा भी मैया। लेकिन गंगा को कोसी की 'पैग" बहन कहा जाता है। गंगा तो गंगा लेकिन कोसी जब गंगा के आंचल में आती है तो उसे 'माय के आंचर" जैसा सुकून मिलता है। लोग कहते हैं कि जब कोसी लहलहाती है तो उसके सामने कोई भी ठहर नहीं पाता लेकिन वह जब गंगा में मिलती है तो उसके तीव्र वेग कहां चला जाता है, कोई नहीं जानता।
कोसी में एक विक्षोभ है, वही विक्षोभ आपको यहां की मिट्टी में पले लोगों में मिलेगा। कोसी में एक सन्यास भाव है, वह न किसी से प्रेम करती है और न ही विरक्ति का भाव ही रखती है। कोई मोह नहीं, कोई माया नहीं। एक औघड़पन है, एक अल्हड़पन है कोसी में। जब जिधर मूड किया, उसी करवट में चलती रहती है। गांव का गांव डूब गया, कोई अपनत्व नहीं दिखाती तो कोई परायापन भी नहीं है इसमें। कोसी लोगों को जीना सिखाती है। कोसी संदेश देती है कि यह जीवन क्षणभंगुर है। न किसी से मोह रखो और न ही किसी से द्वेष ही। कोसी की नजर में सब एक है, बिलकुल 'सूफी" की तरह। सूफीनामा अंदाज में वह पूरे इलाके में घूमती रहती है। गंगा से उसे जबर्दस्त लगाव है। वह बंधे नहीं रह पाती लेकिन गंगा से मिलने के बाद अपने वजूद को भूल जाती है।
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