कोसीनामा के इस हिस्से को सिर्फ मधेपुरा और बीपी मंडल पर फोकस करना ज्यादती हो सकती है लेकिन इसके कई मायने हैं। 2008 में जब कोसी ने कहर बरपाया था तो पूरा का पूरा मधेपुरा जिला इसकी आगोश में आने के लिए मजबूर था। हालांकि सुपौल, सहरसा, पूर्णिया आदि जिले के दायरे में आने वाले लोग भी कम त्रस्त नहीं थे। वहां भी लाखों का नुकसान हुआ, मवेशी और फसल की काफी बर्बादी हुई। मीडिया के साथ-साथ उस वक्त राजनीति ने भी करवट ली। कभी नीतिश और लालू एक मंच पर दीखते थे, जेपी आंदोलन की पैदाइश इन दोनों नेताओं ने जिस कदर बाढ़ के दौरान एक-दूसरे पर आरोप लगाए, इस पर शोध की काफी गुंजाइश है। वहीं, सांसद पप्पू यादव जेल में रहकर भी इस कदर आर्थिक सहायता दी, जो संसदीय इतिहास के अहम पन्ने में दर्ज है।
बिहार में एक नारा है, 'रोम पोप का, मधेपुरा गोप का।" भले ही लालू यादव ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में इस नारे के साथ यहां के लोगों में अलख जगाते रहे हों लेकिन उनकी स्थिति कुल मिलाकर यही रही कि जिस धरती पर उन्होंने 'यादव" के नाम पर जमकर वोट हासिल किया, वहीं मिट्टी उन्हें सबक भी सिखाने से बाज नहीं आई। कभी शरद यादव को जीताकर लालू ने अपने मित्र कत्र्तव्य का निर्वाह किया लेकिन जब किस्मत पलटी तो शरद यादव ने उन्हें चारों खाने चित्त किया।
नब्बे के दशक के जिस दौर में लालू प्रसाद यादव बिहार की राजनीति में चमक रहे थे, उससे कुछ अरसा पहले वे राष्ट्रीय राजनीति में अपनी पहचान बनाने में जुटे थे। वीपी सिंह प्रधानमंत्री का पद दिल्ली में संभाल रहे थे। बोफोर्स तोप की नोक पर उन्होंने राजीव गांधी को सड़क पर ला खड़ा किया था अौर फिर मंडल कमीशन के नाम पर भारतीय राजनीति के साथ-साथ सामाजिक बदलाव का जो उन्होंने काम किया, वह इतिहास के पन्नों में दर्ज है। देश के कोने-कोने में इस कमीशन का विरोध हुआ लेकिन मंडल कमीशन क्या था, यह मंडल कौन थे, शायद ही किसी ने गौर किया।
बहुतों को शायद ही पता हो कि मंडल की आंधी ने राष्ट्रीय राजनीति की तस्वीर बदलकर रख दी, लेकिन मंडल खुद अपनी तस्वीर नहीं बदल पाए थे। सत्तर के उत्तरार्ध में मंडल कमीशन के चेयरमैन बिन्देश्वरी प्रसाद मंडल बिहार के मधेपुरा से सांसद बने थे। यही वह वक्त था जब देश में जनता पार्टी की सरकार थी और प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने हासिये से बाहर रह रहे लोगों को आरक्षण देने के लिए कमीशन का गठन किया था। दशकों बाद अपनी रिपोर्ट के जरिये राजनेताओं से लेकर आम आदमी की तकदीर तो मंडल ने बदल दी लेकिन इसके बाद वे संसद का मुंह नहीं देख पाए।
बी पी मंडल बिहार के मधेपुरा संसदीय क्षेत्र से दो बार सांसद बने। पहली बार 1967 में उन्होंने संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा) के टिकट पर जीत दर्ज की थी तो दूसरी बार 1977 में उन्होंने बीएलडी के टिकट पर संसद की राह पकड़ी। दिलचस्प है कि वे सिर्फ 48 दिन बिहार के मुख्यमंत्री रहे जबकि इनसे ठीक पहले एक मुख्यमंत्री ने सिर्फ तीन दिन काम किया था। उनका राजनीतिक करियर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से शुरू हुआ था लेकिन आपातकाल के बाद वे जनता पार्टी में शामिल हो गए।
दिसम्बर, 1978 एक ऐसा समय आया जब तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने बिन्देश्वरी प्रसाद मंडल को अन्य पिछड़े वर्ग की स्थिति और सुधार को लेकर एक रिपोर्ट तैयार करने का जिम्मा सौंपा। मंडल की अध्यक्षता में गठित समिति में पांच सदस्य थे। समिति ने अपनी रिपोर्ट 1980 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को सौंपी लेकिन इसे एक दशक बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह ने लागू किया। दिलचस्प है कि मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू कराने और इस पर राजनीति कर अधिकतर दलों ने जमकर फायदा उठाया। लेकिन इसका फायदा बिन्देश्वरी प्रसाद मंडल को नहीं मिला। 1971 के लोकसभा चुनाव में इन्हें जबरदस्त हार का सामना करना पड़ा। 1977 में मधेपुरा संसदीय क्षेत्र में जीते लेकिन 1980 के चुनाव में मुंह की खानी पड़ी। उस बार तो उन्हें सिर्फ 13.50 फीसद वोट ही हासिल हुआ और वे तीसरे स्थान पर रहे।
जानकारों का मानना है कि और राजनेताओं के मुकाबले अपने संसदीय क्षेत्र में मतदाताओं पर उनकी पकड़ कम थी और बहुत से लोगों के आंखों का तारा वे जीवित रहते नहीं बन पाए। यह अलग बात है कि मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के बाद उनके नाम पर राजनीति करने वालों ने एक खास तबके पर जबरदस्त पकड़ बनाई है। बिहार की राजनीति में कम पकड़ होने के बावजूद मंडल का नाम राष्ट्रीय राजनीति में रिपोर्ट के कारण याद किया जाता रहेगा। क्योंकि इसके बाद भारत की राजनीति की दशा और दिशा दोनों में जबरदस्त बदलाव आया जो अब भी मौजूद है। जो प्रतिष्ठा स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय स्तर पर मिलनी चाहिए, उससे वे अब तक मरहूम रहे हैं। गौरतलब है कि मंडल के नाम पर ही मध्यप्रदेश के जबलपुर से ताल्लुक रखने वाले शरद यादव हों और गोपालगंज के लालू प्रसाद जैसे नेता भी मधेपुरा की जनता को लुभाते रहे हैं और सांसद बनते रहे हैं। वे यहां के सपूत बीपी मंडल का नाम को भुनाते रहे हैं और उनके सपनों को साकार करने में अक्षम रहे हैं। क्योंकि यदि चाहे लालू, शरद हों या फिर पप्पू, उनके सपनों को साकार करते तो 2008 में कोसी का कहर कतई इस कदर नहीं बरपता
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