पटना विश्वविद्यालय, पटना के हिन्दी विभाग में आचार्य के पद पर कार्यरत डॉ. सुरेन्द्र स्निग्ध ने कुछ अरसा पहले एक लेख लिखा था। शीर्षक था 'कोसी जनपद की दिल्लीमुखी युवा कविताएं"। यह लेख 'बिहार ई-न्यूज" नामक वेबसाइट पर प्रकाशित हुई थी। इस लेख में उन्होंने जिस तरह कोसी से दिल्ली आने पर कवियों और उनकी रचनाओं की व्याख्या की थी, यह आंखें खोलने वाला है।
सुरेंद्र स्निग्ध लिखते हैं, 'जीवन सिर्फ दिल्ली नहीं है। विडंबना यह है कि दिल्ली के बाहर के रचनाकार अपनी स्वीकृति और पहचान के लिए दिल्ली की और टकटकी लगाये रहते हैं। दिल्ली में बैठे हैं कला, साहित्य और संस्कृति और राजनीति के खेल के कुछ महारथी, कुछ शातिर और कुछ असली का चेहरा लगाए नकली जादूगर या मठाधीश। वही तय करते हैं कि साहित्य और राजनीति से लेकर अन्य गतिविधिओं को कौन-सी दिशा दी जाए या उसकी किस दशा को प्रतिष्ठित या अप्रतिष्ठित किया जाए। फल यह होता है कि दिल्ली के बाहर के यथार्थ परिदृश्य में चले जाते हैं और जैसा दिल्ली चाहती है, वैसा यथार्थ ; जो प्राय: अवास्तविक होता है, प्रतिबिम्बित होने लग जाता है। इसका टटका और ताजा उदाहरण है बिहार के सुदूर पूर्वोत्तर सीमाओं में रची जा रही आज की युवा कविताएं।
पूर्णिया, कटिहार, सहरसा, सुपौल, अररिया, किशनगंज और मधेपुरा, यह क्षेत्र कोसी-जनपद के रूप में चिन्हित किया जाता है। इस जनपद के यथार्थ के विविध आयामों को दूसरे क्षेत्र के लोग कम जानते हैं या नहीं जानते हैं। सदियों से, अलग मन-मिजाज की कोसी की त्रासदी से इस जनपद का निर्माण हुआ।
पूरा क्षेत्र कोसी की धार के मार्ग परिवर्तनों के बाद जंगलों, कास-पटेरों या दलदल, बालुकाराशी में परिवर्तित बड़े भू-भागों में बदलता चला गया। यहां बसनेवाले लोगों का जनसंघर्ष, उसकी पीड़ा और तरह-तरह की बीमारियों का प्रकोप- इन सभी विपरीत परिस्थितियों को झेलनेवाला जनसमुदाय- ये सारी चीजें मांग करती हैं, इस क्षेत्र में रची जा रही रचनाओं की केन्द्रीयता की। पिछले वर्ष कोसी का महाप्रलय और उसमें मर-खपा जानेवाले हजारों लोग, माल-मवेशी और अचानक उपजाऊ जमीन के सिल्ट में बदल जाने की प्रक्रिया, राजनीतिक उपेक्षा, ठेकेदारों और बिचौलियों की नृशंसता- ये ऐसे यथार्थ हैं, जिनसे दामन बचाकर रचनाकर्म करनेवाले कवि हों या लेखक, रंगकर्मी हों या पेंटर, अपने रचनाकर्म के प्रति ईमानदार नहीं हो सकते।
हमारे सामने इस कोसी-क्षेत्र के दर्जन भर युवा कवियों की कविताएं पसरी हुई हैं। इनमें से कुछ नाम जाने-पहचाने हैं और कुछ कम जाने-पहचाने। अरविन्द श्रीवास्तव हों या कृष्णमोहन झा, कल्लोल चक्रवर्ती हों या पंकज चौधरी, शुभेश कर्ण हों या स्मिता झा, देवेन्द्र कुमार देवेश हों या श्याम चैतन्य, इन सभी रचनाकारों की कविताएं दिल्लीमुखी हैं। अंतर्वस्तु और भाषिक संरचना इन त्रासिदयों के बीच जिजीविषा की हल्की झिलमलाती लकीर भी दिखलाई नहीं पड़ती। इन कवियों की चिंता ग्लोबल है। दुनिया के तमाम तानाशाहों की चिंता, एक अदृश्य हाथ से भयभीत होने की परेशानी, तमाम दु:खों से भी गृहस्थी निपटाने में व्यस्त कवि बड़े वेश्यालयों में बदलती हुई दुनिया और उसमें दलालों-मसखरों की उपस्थिति की चिंता या अपनी प्रेमिका के नए-नए रूपों की चिंता इन कवियों को तो है, लेकिन अपनी ही जमीन की अनुपिस्थित इन पंक्तियों के लेखक की मुख्य चिंता है।
असल में इनमें से कई कवि दिल्ली या दूसरे प्रदेश में नौकरी-चाकरी कर रहे हैं या अपने जीवनयापन के लिए अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग तरीकों से संघर्ष कर रहे हैं। इनमें से अधिकांश कवि अपनी जमीन से उखड़े हुए लोग हैं। यही कारण है कि इनकी कविताओं का यथार्थ, जैसा कि पूर्व में निवेदन किया जा चुका है, दिल्लीमुखी है। ये कवि कभी अरु ण कमल का अनुसरण करते दिखलाई पड़ते हैं तो कभी अशोक वाजपेयी का। ये कभी उदय प्रकाश की और देखते हैं तो कभी मंगलेश डबराल की ओर। स्वीकृति के लिए ये सभी नए कवि टकटकी लगाए हुए कभी नामवर सिंह की ओर ताकते हैं तो कभी मैनेजर पाण्डेय की ओर। इनकी ओर टकटकी लगाकर देखने के कारण ही इस कोसी जनपद के युवा रचनाकर्म में धड़कते हुए यथार्थ का दिल नहीं है।"
ऐसे में सवाल है कि कोसी के कवि आखिर क्या कर रहे हैं? क्यों दिल्ली की चकाचौंध की गिरफ्त में आकर बेदिल वाले बनते जा रहे हैं? उन्हें क्यों अपने खेत-खलिहानों, नहर-पोखर की याद आती है? कोसी की पानी आैर रेत उन्हें सपने में क्यों नहीं आता? जाहिर है इन सवालों का जवाब कोई देना नहीं चाहता क्यों सबके अपने-अपने पेट हैं।
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