4/14/2016

सोशल मीडिया क्या है?

एक ओर जहां अभिव्यक्ति के तमाम विकल्प सामने आ रहे हैं, वहीं इस पर अंकुश लगाने की प्रक्रिया भी पूरे विश्व में किसी न किसी रूप में मौजूद है। जहां कहीं भी सरकार को आंदोलन का धुआं उठता दिखाई देता है, तुरंत सरकार की नजर सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्म पर जाती है और सीधे तौर पर अंकुश लगाने से नहीं हिचकती। गौरतलब है कि ये सोशल मीडिया के प्लेटफार्म सिर्फ व्यक्तिगत जानकारियों के लिए ही प्रयोग में नहीं लाए जाते बल्कि राजनीतिक और सामाजिक मामलों में में लोगों की रुचि का भी काम करता है
सोशल मीडिया एक तरह से दुनिया के विभिन्न कोनों में बैठे उन लोगों से संवाद है जिनके पास इंटरनेट की सुविधा है। इसके जरिए ऐसा औजार पूरी दुनिया के लोगों के हाथ लगा है, जिसके जरिए वे न सिर्फ अपनी बातों को दुनिया के सामने रखते हैं, बल्कि वे दूसरी की बातों सहित दुनिया की तमाम घटनाओं से अवगत भी होते हैं। यहां तक कि सेल्फी सहित तमाम घटनाओं की तस्वीरें भी लोगों के साथ शेयर करते हैं। इतना ही नहीं, इसके जरिए यूजर हजारों हजार लोगों तक अपनी बात महज एक क्लिक की सहायता से पहुंचा सकता है। अब तो सोशल मीडिया सामान्य संपर्क, संवाद या मनोरंजन से इतर नौकरी आदि ढूंढ़ने, उत्पादों या लेखन के प्रचार-प्रसार में भी सहायता करता है।
कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर मैन्युअल कैसट्ल के मुताबिक सोशल मीडिया के विभिन्न माध्यमों फेसबुक, ट्विटर आदि के जरिए जो संवाद करते हैं, वह मास कम्युनिकेशन न होकर मास सेल्फ कम्युनिकेशन है। मतलब हम जनसंचार तो करते हैं लेकिन जन स्व-संचार करते हैं और हमें पता नहीं होता कि हम किससे संचार कर रहे हैं। या फिर हम जो बातें लिख रहे हैं, उसे कोई पढ़ रहा या देख रहा भी होता है।
इंटरनेट ने बदली जीवनशैली
पिछले दो दशकों से इंटरनेट ने हमारी जीवनशैली को बदलकर रख दिया है और हमारी जरूरतें, कार्य प्रणालियां, अभिरुचियां और यहां तक कि हमारे सामाजिक मेल-मिलाप और संबंधों का सूत्रधार भी किसी हद तक कंप्यूटर ही है। सोशल नेटवर्किंग या सामाजिक संबंधों के ताने-बाने को रचने में कंप्यूटर की भूमिका आज भी किस हद तक है, इसे इस बात से जाना जा सकता है कि आप घर बैठे दुनिया भर के अनजान और अपरिचित लोगों से संबंध बना रहे हैं। ऐसे लोगों से आपकी गहरी छन रही है, अंतरंग संवाद हो रहे हैं, जिनसेआपकी वास्तविक जीवन में अभी मुलाकात नहीं हुई है।। इतना ही नहीं, यूजर अपने स्कूल और कॉलेज के उन पुराने दोस्तों को भी अचानक खोज निकाल रहे हैं, जो आपके साथ पढ़े, बड़े हुए और फिर धीरे-धीरे दुनिया की भीड़ में कहीं खो गए।
दरअसल, इंटरनेट पर आधारित संबंध-सूत्रों की यह अवधारणा यानी सोशल मीडिया को संवाद मंचों के तौर पर माना जा सकता है, जहां तमाम ऐसे लोग जिन्होंने वास्तविक रूप से अभी एक-दूसरे को देखा भी नहीं है, एक-दूसरे से बखूबी परिचित हो चले हैं। आपसी सुख-दुख, पढ़ाई-लिखाई, मौज-मस्ती, काम-धंधे की बातें सहित सपनों की भी बातें होती हैं।
अमेरिकी की कठपुतली
दुनिया के दो अहम सोशल नेटवर्किंग साइट्स फेसबुक और ट्विटर जिसका मुख्यालय अमेरिका में है, पूरी दुनिया पर राज कर रहा है। मालूम हो कि फेसबुक की स्थापना 2004 में हार्वर्ड विश्वविद्यालय के छात्रों ने की थी। शुरुआत में इसका नाम फेशमाश था और जुकेरबर्ग ने इसकी स्थापना विश्वविद्यालय के सुरक्षित कंप्यूटर नेटवर्क को हैक करके किया था। हार्वर्ड विवि में उन दिनों छात्रों के बारे में बुनियादी सूचनाएं और फोटो देने वाली अलग से कोई डायरेक्ट्री नहीं थी। कुछ ही घंटों के भीतर जुकेरबर्ग का प्रयोग लोकप्रिय हो गया लेकिन विवि प्रशासन ने इस पर गहरी आपत्ति जताई और जुकेरबर्ग को विवि से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया और उसके बाद फेसबुक ने क्या मुकाम हासिल किया, यह किसी से छुपी हुई नहीं है।
नेटवर्किंग की प्रसिद्ध कंपनी सिस्को ने दुनिया के 18 देशों में कॉलेज जाने वाले युवाओं में इस बात को लेकर कुछ वर्ष पहले एक अध्ययन किया था कि वे अपने संभावित कार्यालय में क्या-क्या चाहते हैं। भारत में 81 प्रतिशत युवाओं ने कहा कि वे लैपटॉप, टैबलेट या स्मार्टफोन के जरिए ही काम करना पसंद करेंगे। 56 प्रतिशत युवाओं ने कहा कि वे ऐसी कंपनी में काम करना पसंद करेंगे, जहां सोशल मीडिया या मोबाइल फोन पर पाबंदी हो।
वहीं, ट्विटर इस दुनिया में 21 मार्च, 2006 को आया और तक से लेकर आज तक यह नित्य नई बुलंदियों को छू रहा है। पहले ट्विटर को केवल कंप्यूटर में प्रयोग किया जा सकता था लेकिन अब यह टैबलेट, स्मार्टफोन आदि में भी डाउनलोड किया जा सकता है। ट्विटर पर अभी तक सिर्फ 140 शब्दों में लिखने की सुविधा थी लेकिन पिछले दिनों इस पर लिखने की शब्दसीमा को बढ़ाया गया है। मालूम हो कि ट्विटर के लिए अभी तक सत्तर हजार से भी अधिक प्लेटफार्म पर अलग-अलग एप्लीकेशनें बन चुकी हैं।
कहां तक है सोशल मीडिया का दायरा
2011 में अरब में हुए आंदोलन में मीडिया खासकर इंटरनेट, मोबाइल तकनीक के अलावा फेसबुक और ट्विटर ने अहम भूमिका निभाई। लीबिया और सीरिया में भी यही हाल रहा। इन आंदोलनों के बाद इंटरनेट सेंसरशिप की प्रवृति जिस कदर बढ़ी है, वह शायद ही कभी देखने को मिली। इसके पक्ष में भले ही बहस की जाती रही लेकिन हकीकत यह है कि अलग-अलग देशों में सेंसरशिप अपने विभिन्न अवतारों में मौजूद है। इंटरनेट पर नियंत्रण करने के लिए कहीं इंटरनेट को ब्लॉक किया गया तो कहीं कॉपीराइट, मानहानि, उत्पीड़न और अवमानना को हथियार बनाया जा रहा है।
भारत के गुजरात में जहां हार्दिक पटेल के आंदोलन को देखते हुए इंटरनेट को बंद कर दिया गया था, वहीं मुंबई में बाला साहेब ठाकरे के निधन पर महाराष्ट्र की एक लड़की के कमेंट और उसकी सहेली के उस कमेंट को लाइक करने का खामियाजा किस तरह भुगतना पड़ा, यह बात किसी से छुपी हुई नहीं है। इतना ही नहीं, पिछले दिनों सरकार ने व्हाट्सएप के संदेशों में लोगों को नब्बे दिनों तक सुरक्षित रखने का आदेश दिया लेकिन मामले के सामने आ जाने और विरोध के कारण केंद्र सरकार को इस प्रस्ताव को तुरंत वापस लेना पड़ा।
हो रही निगरानी
वहीं, अमेरिका में इंटरनेट को सेंसर करने के लिए अमेरिकी कांग्रेस के सामने कुछ वर्ष पहले ‘सोपा’ और ‘पीपा’ नामक विधेयक लाया गया था और इसके विरोध स्वरूप अंग्रेजी विकिपीडिया कुछ वक्त के लिए गुल की गई थी। इंटरनेट पर निगरानी रख रही संस्थानों का दावा है कि सिर्फ अमेरिका में ही नहीं बल्कि पूर्व एशिया, मध्य एशिया और मध्यपूर्व और उत्तरी अफ्रीका ऐसे क्षेत्र हैं, जहां सरकार द्वारा इंटरनेट को सख्त किया जा रहा है। 2010 में ओपन नेट इनिशियेटिव ने विश्व के कुल 40 देशों की लिस्ट जारी की थी, जहां की सरकारें इंटरनेट फिल्टिरिंग कर रही हैं। वहीं, संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद ने इंटरनेट स्वतंत्रता संबंधी प्रस्ताव पांच जुलाई 2012 को पारित कर दिया था और परिषद ने सभी देशों से नागरिकों की इंटरनेट पर अभिव्यक्ति की आजादी को समर्थन देने की अपील की थी।
अंकुश लगाने की प्रक्रिया जारी
एक ओर जहां अभिव्यक्ति के तमाम विकल्प सामने आ रहे हैं, वहीं इस पर अंकुश लगाने की प्रक्रिया भी पूरे विश्व में किसी न किसी रूप में मौजूद है। जहां कहीं भी सरकार को आंदोलन का धुआं उठता दिखाई देता है, तुरंत सरकार की नजर सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्म पर जाती है और सीधे तौर पर अंकुश लगाने से नहीं हिचकती। गौरतलब है कि ये सोशल मीडिया के प्लेटफार्म सिर्फ व्यक्तिगत जानकारियों के लिए ही प्रयोग में नहीं लाए जाते बल्कि राजनीतिक और सामाजिक मामलों में में लोगों की रुचि का भी काम करता है। याद करें देश की राजधानी दिल्ली में 2012 में हुए गैंग रेप को कि कैसे लोग दोषियों को सजा दिलाने के लिए एकजुट होकर उठ खड़े हुए थे। इन साइटों पर रेप, मर्डर, गर्ल एजुकेशन जैसे पेज प्रमुख थे। हालांकि पूर्वोत्तर राज्यों को लेकर उठी नफरत की आंधी बेलगाम सोशल मीडिया का नतीजा था और इसका पूरा प्रभाव पूरे देश में देखने को मिला था।
सभी ने मन लोहा
इतना ही नहीं, लोकसभा चुनाव में इसकी पूरी ताकत देखने को मिली। हालांकि अमेरिका में बराक ओबामा ने सोशल नेटवर्किंग साइट्स की ताकत का लोहा पहले ही दिखा चुके थे। भारत में नरेंद्र मोदी ने इसका भरपूर उपयोग किया और इसका फायदा भाजपा को भी मिला। नरेंद्र मोदी भले ही पूरे चार सौ से अधिक संसदीय क्षेत्र का दौरा किया लेकिन उन्होंने फेसबुक, ट्विटर और यू-ट्यूब के जरिए जिस तरह लोकप्रियता हासिल की, वह एक नया इतिहास है। लोग उनके फेसबुक पर पोस्ट की गई बातों और तस्वीरों को पोस्ट करते, प्रतिक्रिया देता और उनकी लोकप्रियता में चार चांद लगाते। वहीं, दूसरी ओर, उनके तमाम प्रतिद्वंद्वी उनकी रणनीति की कोट पूरे चुनावी समर में सामने नहीं ला पाए और जाहिर सी बात है कि वे चारों खाने चित्त गिरे।
(लेखक एक दशक तक दैनिक भास्कर,देशबन्धुराष्ट्रीय सहारा और हिंदुस्तान जैसे अखबारों में सक्रिय पत्रकारिता करने के बाद इन दिनों जामिया मिल्लिया इस्लामिया से मीडिया पर शोध कर रहे हैं. उन्होंने माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय नोएडा कैंपसजामिया मिल्लिया इस्लामिया के अलावा दिल्ली विश्वविद्यालय के रामलाल आनंद कॉलेज में बतौर गेस्ट लेक्चरर अध्यापन भी किया है. )

खबरों का खेल बनाम एजेंडा सेटिंग

मालूम हो कि एजेंडा सेटिंग तीन तरीके से होता हैमीडिया एजेंडाजो मीडिया बहस करता है। दूसरा पब्लिक एजेंडा जिसे व्यक्तिगत तौर पर लोग बातचीत करते हैं और तीसरा पॉलिसी एजेंडा जिसे लेकर पॉलिसी बनाने वाले विचार करते हैं। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि राजनीति काफी हद तक मीडिया को प्रभावित करती है। ऐसे में मीडिया कौन-सी खबरों को तवज्जो देता हैकिस खबर का न्यूज वेल्यू किस तरह आंकता है और ऑडियंस की रुचि कैसी खबरों में हैआदि बातें मायने रखती हैं और फिर खबरों के प्रसारण के बाद उन्हीं बातों पर आम लोग अपनी राय कायम करते हैं।(मैक्सवेल)
खबरों के शतरंजी खेल में कौन ‘राजा” है और कौन ‘प्यादा”, दर्शकों और पाठकों के लिए इसे समझना काफी मुश्किल है। हालांकि वे अपनी राय खबरिया चैनलों पर दिखाई जा रही खबरों और अखबारों में छपे मोटे-मोटे अक्षरों के हेडलाइंस को पढ़कर ही बनाती है और लगातार उन मुद्दों पर विचार-विमर्श भी करती है। यही वह विंदु होता है जहां से मीडिया की एजेंडा सेटिंग का प्रभाव पड़ना शुरू होता है। मीडिया की एजेंडा सेटिंग थ्योरी कहती है कि मीडिया कुछ घटनाओं या मुद्दों को कमोबेश कवरेज देकर राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक बहसों या चर्चाओं का एजेंडा तय करता है। आज खबरिया चैनलों पर प्राइम टाइम की खबरें देंखें तो यह एजेंडा सेटिंग पूरी तरह साफ-साफ समझ में आती है। इस प्राइम टाइम पर सिर्फ खबरें ही नहीं दिखाई जाती बल्कि जोरदार चर्चा के साथ बहस भी की जाती है। चाहे ईपीएफ पर कर लगाने की बात हो या फिर जेएनयू के छात्रों पर मुकदमा दर्ज करने का मामला।
अन्ना आंदोलन के दौरान लोकपाल मामले में संसद में बहस के दौरान शरद यादव ने युवा सांसदों से सवाल किया था कि आप लोग बुद्धू बक्से में बहस के लिए क्यों जाते हैं। वह पिछले दस सालों से वहां बहस करने के लिए नहीं जाते हैं। तो उन्होंने जाने-अनजाने जिस मुद्दे की ओर पूरा देश का ध्यान आकर्षित किया था, उसे पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया गया। उन्होंने इसी मीडिया एजेंडा थ्योरी की ओर ही ध्यान आकर्षित कराया था। इस थ्योरी को सरकार के साथ-साथ राजनीतिक दल और कॉरपोरेट समूह बखूबी समझते हैं क्योंकि इसका आकलन इस बात से किया जा सकता है कि जब भर किसी गंभीर मसला सामने आता है तो विभिन्न राजनीतिक पार्टियां, सरकार और कॉरपोरेट समूह के तेजतर्रार प्रवक्ता इस पर चर्चा कर रहे होते हैं और अपने हिसाब से एजेंडे का मुंह मोड़ते रहते हैं।
आज पाठक या दर्शक ही मीडिया का प्रोडक्ट हो चुका है। जाहिर-सी बात है कि हर प्रोडक्ट को एक बाजार की जरूरत होती है और मीडिया का बाजार और खरीदार का रास्ता विज्ञापन से होकर विज्ञापन तक जाता है। यानी मीडिया का बाजार उसका विज्ञापनदाता है। इस मसले को अमेरिका के संदर्भ में नोम चोमस्की अच्छी तरह समझाते हैं। वे लिखते हैं कि वास्तविक मास मीडिया लोगों को डायवर्ट कर रही है। वे प्रोफेशनल स्पोट्र्स, सेक्स स्कैंडल या फिर बड़े लोगों के व्यक्तिगत बातों को जमकर सामने रखती हैं। क्या इससे इतर और कोई गंभीर मामले ही नहीं होते। जितने बड़े मीडिया घराने हैं वे एजेंडे को सेट करने में लगे हुए हैं। अमेरिका के न्यूयार्क टाइम्स और सीबीएस ऐसे मामलों के बादशाह हैं। उनका कहना है कि अधिकतर मीडिया इसी सिस्टम से जुड़े हुए हैं। संस्थानिक ढांचा भी कमोबेश उसी तरह का है। न्यूयार्क टाइम्स एक कॉरपोरेशन है और वह अपने प्रोडक्ट को बेचता है। उसका प्रोडक्ट ऑडियंस है। वे अखबार बेचकर पैसे नहीं बनाते। वे वेबसाइट के जरिए खबरें पेश करके खुश हैं। वास्तव में जब आप उनके अखबार खरीदते हैं तो वे पैसे खर्च कर रहे होते हैं। लेकिन चूंकि ऑडियंस एक प्रोडक्ट है, इसलिए लोगों के लिए उन लोगों से लिखाया जाता है तो समाज के टॉप लेवल नियतिनियंता हैं। आपको अपने उत्पाद को बेचने के लिए बाजार चाहिए और बाजार आपका विज्ञापनदाता है। चाहे टेलीविजन हो या अखबार या और कुछ आप ऑडियंस को बेच रहे होते हैं। (नोम चोमस्की)
यही कारण है कि भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को लेकर जब ‘टाइम” मैग्जीन ने कवर स्टोरी छापी और ‘वाशिंगटन पोस्ट” ने लिखा तो भारत सरकार की नींद हराम हो गई। यह मीडिया एजेंडा का ही प्रभाव था कि वैश्विक स्तर पर अपनी साख को बचाने के लिए भारत की कांग्रेस सरकार ने आनन-फानन में कई फैसले लिए। क्या इस बात से इंकार किया जा सकता है कि 1990 के दशक में जब मनमोहन सिंह भारत के वित्तमंत्री थे तो उन्होंने आर्थिक उदारीकरण का दौर लाया था और भारत अमेरिका सहित दुनिया के आर्थिक संपन्न देशों की नजरों में छा गया। यही वह समय था जब मनमोहन सिंह उस दुनिया के चहेते बन गए लेकिन आज जब पश्चिमी मीडिया ने खिचार्इं की तो फिर उन्हें कड़े कदम उठाने के लिए मजबूर हो गए।
आज के दौर में चाहे सरकार हो या विपक्ष या फिर सिविल सोसाइटी के सदस्य, हर कोई एजेंडा सेट करने में लगा है। देशद्रोह, जेएनयू, अख़लाक़, कन्हैया, रोहित बेमुला, लोकपाल, भ्रष्टाचार, आंदोलन, चुनाव, विदेशी मीडिया, कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाला, टूजी एस्पेक्ट्रम मामला, कोयला आवंटन मामले आदि ऐसे मामले हैं जिनके जरिए विभिन्न रूपों में एजेंडे तय किए गए। क्योंकि हर मामले में चाहे न्यूज चैनल हो या फिर अखबार, हर जगहों पर जमकर बहस हुई और मीडिया की नई भूमिका लोगों ने देखा कि किस तरह आरोपी और आरोप लगाने वाले एक ही मंच पर अपनी-अपनी सफाई दे रहे हैं।
यहीं से मामला गंभीर होता जाता है कि क्या मीडिया की भूमिका एजेंडा सेट करने के लिए होती है। अभी अधिक समय नहीं बीता जब ‘पेड न्यूज” को लेकर संसद तक में हंगामा मचा था। मीडिया के पर्दे के पीछे पेड न्यूज ने किस तरह का खेल खेल रही थी, यह किसी से छुपा हुआ नहीं है। लेकिन मीडिया एजेंडा सेटिंग की ओर शायद ही किसी का ध्यान गया हो। यह मामला पहली बार अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के समय में सामने आया और इस थ्योरी को लेकर पहली बार मैक्सवेल मैकॉम्ब और डोनाल्ड शॉ ने लिखा। 1922 में पहली बार वाल्टर लिप्पमेन ने इस मामले में अपनी बात सामने रखी थी। उनके मुताबिक लोग किसी भी मामले में सीधे तौर पर अपनी प्रतिक्रिया नहीं देते बल्कि वे स्यूडो वातावरण में रहते हैं। ऐसे में मीडिया उनके लिए काफी मायने रखता है क्योंकि यह उनके विचारों को प्रभावित करता है। (वाल्टर लिप्पमेन) मालूम हो कि मैक्सवेल मैकॉम्ब और शॉ के द्वारा एजेंडा सेटिंग थ्योरी सामने रखने के बाद इस मामले पर करीब सवा चार सौ अध्ययन हो जुके हैं। वैश्विक तौर पर भौगोलिक और एतिहासिक स्तर पर यह एजेंडा कई स्वरूपों में सामने आया बावजूद इसके दुनिया में तमाम तरह के मसले हैं और तमाम तरह की खबरें भी हैं।
अभी तक एजेंडा सेटिंग के गिरफ्त में विदेशी चैनलों और अखबारों के शामिल होने की खबरें सामने आती थीं लेकिन अब भारतीय मीडिया पूरी तरह इसकी चपेट में है। अखबारों की हेडलाइंस के आकार, खबरों का आकार और प्लेसमेंट मीडिया एजेंडा का कारक होता है तो वहीं टीवी चैनलों में खबरों के पोजिशन और लंबाई उसकी प्राथमिकता और महत्ता को तय करती है। इस मामले में आनंद प्रधान लिखते हैं कि कहने को इन दैनिक चर्चाओं में उस दिन के सबसे महत्वपूर्ण खबर या घटनाक्रम पर चर्चा होती है लेकिन आमतौर पर यह चैनल की पसंद होती है कि वह किस विषय पर प्राइम टाइम चर्चा करना चाहता है। वह कहते हैं कि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि लोकतंत्र में ये चर्चाएं कई कारणों से महत्वपूर्ण होती हैं। ये चर्चाएं न सिर्फ दर्शकों को घटनाओं व मुद्दों के बारे में जागरूक करती हैं और जनमत तैयार करती हैं बल्कि लोकतंत्र में वाद-संवाद और विचार-विमर्श के लिए मंच मुहैया कराती हैं। वह आगे लिखते हैं कि न्यूज मीडिया इन चर्चाओं और बहसों के जरिये ही कुछ घटनाओं और मुद्दों को आगे बढ़ाते हैं और उन्हें राष्ट्रीय/क्षेत्रीय एजेंडे पर स्थापित करने की कोशिश करते हैं।(आनंद प्रधान) हालांकि एजेंडे का प्रभाव तत्काल दिखाई नहीं देता, इसका प्रभाव दूरगामी भी होता है। वालग्रेव और वॉन एलिस्ट कहते हैं कि एजेंडा सेटिंग का यह मतलब नहीं होता है कि उसके प्रभाव स्पष्ट दीखने लगें बल्कि यह टॉपिक, मीडिया के प्रकार आैर इसके विस्तार के सही समुच्चय के तौर पर सामने आता है। (वालग्रेव एंड वॉन एलिस्ट, 2006)
वर्तमान में भारतीय न्यूज़ चैनलों की खबरों का विश्लेषण करें तो मैक्सवेल ई मैकॉम्ब और डोनाल्ड शॉ द्वारा जनसंचार के एजेंडा सेटिंग थ्योरी के निष्कर्ष साफ दिखाई देंगे। पिछले कुछ समय से जो खबरें प्रसारित की जा रही हैं उनके जरिए न्यायपालिका से लेकर संसदीय प्रक्रिया तक के एजेंडे तय हुए हैं। सबसे ताजातरीन मामला आरुषि हत्याकांड का है। आज के दौर में ऐसा लगता है हमारा पूरा का पूरा मीडिया एजेंडा सेटिंग के सिद्धांत में उलझकर रह गया है। ट्रायल और ट्रीब्यूनल्स को किस तरह भारतीय मीडिया पेश करते हैं, यह किसी से छुपी हुई नहीं है। इतना ही नहीं, एजेंडा सेटिंग कई तरह के प्रभाव से भी जुड़े होते हैं मसलन फायदेमंद प्रभाव, खबरों को नजरअंदाज करना, खबरों के प्रकार और मीडिया गेटकीपिंग आदि। (डेयरिंग एंड रोजर्स, 1996:15)
पिछले दिनों एक साक्षात्कार में शेखर गुप्ता मीडिया एजेंडा थ्योरी की बारीकियों को बताते हुए कहा था कि मीडिया का मूल सवाल खड़े करना है लेकिन यह एजेंडा तब हो जाता है जब आप सवाल के जरिए किसी एजेंडे को खड़े करते हैं। इन मसलों पर अब विचार नहीं किया जाता। मसलन भ्रष्टाचार के विरोध में खड़ा हुआ आंदोलन मीडिया को और व्यापक बनाते हैं। यदि मीडिया अच्छे कारणों को लेकर चल रही है और इससे समाज को बड़े पैमाने पर फायदा होगा तो इससे किसी को परेशानी नहीं होनी चाहिए। उदाहरण देते हुए वे कहते हैं कि जेंडर की समानता को लेकर चलाया गया कंपेन काफी प्रभावशाली रहा था और ‘गुड एजेंडा सेटिंग” का उदाहरण है। साक्षरता, सूचना अधिकार आदि को लेकर चलाया गया कंपेन भी इसी का उदाहरण है। (शेखर गुप्ता)
इसी मसले पर सेवंती नैनन का मानना है कि मीडिया में इतनी ताकत होती है कि वह किसी भी मसले को हमारे दिमाग में भर दे। जैसे अन्ना आंदोलन को लेकर जो नॉन स्टॉफ कवरेज टीवी चैनलों के द्वारा किया गया, इससे हर कोई यह सोचने के लिए विवश हो गया कि कौन-सा राष्ट्रीय मसला महत्वपूर्ण है। जहां तक इसके नकारात्मक पहलू की बात है तो हर किसी को चोर कह देना आैर जेल में डालने की बात कहना, गलता है। ऐसे में यह ध्यान देना चाहिए कि सब कुछ टीआरपी ही नहीं होता। (सेवंती नैनन) गौरतलब है कि वरिष्ठ पत्रकार एन. राम ने सकारात्मक पक्ष को एजेंडा बिल्डिंग का नाम दिया है और उनका कहना है लोगों को एजेंडा सेटिंग और प्रोपगैंडा के साथ एजेंडा बिल्डिंग के बीच कनफ्यूज नहीं होनी चाहिए।
मालूम हो कि एजेंडा सेटिंग तीन तरीके से होता है, मीडिया एजेंडा, जो मीडिया बहस करता है। दूसरा पब्लिक एजेंडा जिसे व्यक्तिगत तौर पर लोग बातचीत करते हैं और तीसरा पॉलिसी एजेंडा जिसे लेकर पॉलिसी बनाने वाले विचार करते हैं। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि राजनीति काफी हद तक मीडिया को प्रभावित करती है। ऐसे में मीडिया कौन-सी खबरों को तवज्जो देता है, किस खबर का न्यूज वेल्यू किस तरह आंकता है और ऑडियंस की रुचि कैसी खबरों में है, आदि बातें मायने रखती हैं और फिर खबरों के प्रसारण के बाद उन्हीं बातों पर आम लोग अपनी राय कायम करते हैं।(मैक्सवेल)
आखिर किस तरह की खबरें दिखाई जा रही हैं और किस तरह के विज्ञापन प्रसारित किए जा रहे हैं, इनकी निगरानी करने वाली संस्थाएं कहां हैं। शुरुआती दौर में एजेंडा सेटिंग के तहत समाचारों का विश्लेषण पब्लिक ओपेनियन पोलिंग डाटा के साथ किया जाता था और राजनीतिक चुनाव के दौरान इसकी मदद से काफी कुछ तय हो जाता है। यही कारण है कि नोम चोमस्की कहते हैं कि इन मामलों में पीआर रिलेशन इंडस्ट्री, पब्लिक इंटलेक्चुअल, बिग थिंकर (जो ओप एड पेज पर छपते हैं) की भूमिका पर ध्यान देना होगा। हालांकि समय के साथ मीडिया के एजेंडे में बदलाव होता रहता है और ऐसा होना लाजिमी भी है क्योंकि एक बात तय होती है कि पत्रकारों की सहभागिता के साथ-साथ आम लोग किसी खास मुद्दे पर बात करते हैं और बहस करते हैं।
नोम चोमस्की कहते हैं कि मीडिया की जो भी कंपनियां है, सभी बड़ी कंपनियां हैं और मुनाफे की मलाई काटते हैं। उनका मानना है कि निजी अर्थव्यवस्था की शीर्षस्थ सत्ता संरचना का हिस्सा होती हैं और ये मीडिया कंपनियां मुख्य तौर पर ऊपर बैठे बड़े लोगों द्वारा नियंत्रित होती हैं। अगर आप उन आकाओं के मुताबिक काम नहीं करेंगे, तो आपको नौकरी से हाथ भी धोना पड़ सकता है। बड़ी मीडिया कंपनियां इसी आका तंत्र का एक हिस्सा है। (नोम चोमस्की) ऐसे में हमें विभिन्न एजेंडों, मीडिया की प्राथमिकता, आम लोगों और कानूनविदों के बीच अंतर को समझना होगा। किस तरह की खबरों को प्रमोट किया जाता है और किस तरह खबरों से खेला जा रहा है, वह भी एजेंडा सेटिंग में मायने रखते हैं। जैसे मीडिया कभी घरेलू मामलों को छोड़कर अंतरराष्ट्रीय मामलों को तवज्जो देने लगता है या फिर घरेलू मसलों में से किसी खास मसले की खबरें लगातार दिखाई जाती हैं। (रोजर्स एंड डेयरिंग, 1987)
बहरहाल, लोकतंत्र के इस लोक में मीडिया पर बाजार का जबर्दस्त प्रभाव है क्योंकि पेड न्यूज तो पैसे कमाने का साधन मात्र था लेकिन मीडिया एजेंडा तो पूरे तंत्र को प्रभावित करने की क्षमता रखता है। इसके दायरे में सिर्फ आर्थिक संसाधन नहीं आते बल्कि पूरे लोक की सोच और समझ के साथ नियति निर्धारकों का मंतव्य भी जुड़ा हुआ है। ऐसे में जाहिर सी बात है कि मीडिया एजेंडे थ्योरी को समझना होगा और इसके जरिए पड़ने वाले प्रभाव पर भी बारीक नजर रखनी होगी।
संदर्भ:
नोम चोमस्की, 1997, http://www.chomsky.info/articles/199710–.htm
वाल्टर लिप्पमेन,http://www.agendasetting.com/index.php/agenda-setting-theory
आनंद प्रधान, 2011, http://www.tehelkahindi.com/stambh/diggajdeergha/forum/994.html
शेखर गुप्ता, 2011, http://www.campaignindia.in/Article/276406,double-standards-why-is-agenda-setting-in-media-significant.aspx
सेवंती नैनन, 2011, http://www.campaignindia.in/Article/276406,double-standards-why-is-agenda-setting-in-media-significant.aspx
डेनिस मैक्वेल, 2010, McQuail’s Mass Communication (6th ed.) Theory, pp. 513-514, Sage Publication
रोजर्स एंड डेयरिंग, 1987, ‘Agenda setting research; Where has it been? Where is it going?, in J. Anderson (ed.) Communication Yearbook 11, pp.555-94, Newbury Park. CA: Sage.’
वालग्रेव एंड वान एलिस्ट, 2006, ‘The contingency effect of the mass media’s agenda setting’, Journal of Communication, 56(1), pp. 88-109′
डेयरिंग एंड रोजर्स, 1996, Agenda Setting Thousand Oaks, CS: Sage

(लेखक एक दशक तक दैनिक भास्कर,देशबन्धुराष्ट्रीय सहारा और हिंदुस्तान जैसे अखबारों में सक्रिय पत्रकारिता करने के बाद इन दिनों जामिया मिल्लिया इस्लामिया से सोशल मीडिया पर शोध कर रहे हैं. उन्होंने माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय नोएडा कैंपसजामिया मिल्लिया इस्लामिया के अलावा दिल्ली विश्वविद्यालय के रामलाल आनंद कॉलेज में बतौर गेस्ट लेक्चरर अध्यापन भी किया है. )