6/18/2020

मुंबई में एक मौत, स्टारडम की ब्रांडिंग और ट्रोल आर्मी


विनीत उत्पल
प्रसिद्ध कमलेश्वर की एक कहानी है ‘दिल्ली में एक मौत’. इसमें एक व्यक्ति की मौत पर उसके अंतिम संस्कार में जो लोग आते हैं, उन्हें मरने वाले से मतलब नहीं था बल्कि वे मौके पर पहुंचकर अपना पीआर बढाने में जुटे होते हैं. वैसे ही सुशांत सिंह राजपूत की मौत पर बॉलीवुड सितारों का रवैया दिखा. उनके जो निकट मित्र रहे, वे सदमें में हैं और गम में डूबे हुए हैं. अंतिम संस्कार में उनके पारिवारिक सदस्यों के अलावा, अभिनेत्री कृति सेनन, श्रद्धाकपूररिया चक्रवर्ती, अभिनेता विवेक ओबेरॉय, रणदीप हुड्डा, कांग्रेस नेता संजय निरुपम, निर्देशक अभिषेक कपूर, सुनील शेट्टी, राजकुमार राव, वरुण शर्मा आदि मौजूद रहे। 

वहीं, सुशांत सिंह राजपूत के नाम को भुनाने वाले या तो उससे अपनी नजदीकी या फिर अपनी समस्या को उसके सर मढ़कर भरपूर तौर पर भुनाने की कोशिश की. जिस तरह मीडिया में छाने के लिए बॉलीवुड स्टार पक्ष में या विपक्ष में अनाप-शनाप बयान देकर मीडिया में सुर्खियां पाई, राष्ट्रीय न्यूज मीडिया ने भी दी दिन तक इस मामले को भरपूर तूल दी. यह मुंबई में हुई एक मौत पर स्टारडम की ब्रांडिंग का एक नमूना है. दिलचस्प है कि जब बॉलीवुड की तथाकथित नामचीन हस्तियों के नाम सामने आने लगे तो तमाम न्यूज चैनल ने सुशांत सिंह राजपूत की खबर को गायब ही कर दिया. 
सुशांत सिंह राजपूत की मौत के बाद जिस तरह से बॉलीवुड और मीडिया में कोहराम मचा, वह फ़िल्मी दुनिया की कार्यप्रणाली पर अलग तरह से सोचने को विवश करता है. कंगना रनौत ने भाई-भतीजे का आरोप लगाया. शेखर कपूर ने कहा कि मैं उसके दर्द को समझ सकता हूं. निखिल द्विवेदी ने भी निशाना साधते हुए कहा फिल्म इंडस्ट्री का दिखावा मुझे शर्मिंदा करता है. जाहिर-सी बात है कि बॉलीवुड इस मौत के मामले में दो भागों में बंटा और हर कोई अपने-अपने नजर से सुशांत की मौत को आंकलन किया. सुशांत की मानसिक परेशानी यानी डिप्रेशन, फिल्मों का न मिलना, गिरते करियर ग्राफ आदि को लेकर तमाम बातें बॉलीवुड हलके में कही गई. यहां तक कि कुछ लोग कमाल खान की बातों को आधार बनाकर ऑनलाइन हस्ताक्षर अभियान भी चलाया और भारतीय सिनेमा में नेपोटिज्म (भाई-भतीजावाद) के विरोध में खड़े हुए. इसके तहत नेटफ्लिक्स, अमेज़न प्राइम और हॉट स्टार जैसे लोकप्रिय स्ट्रीमिंग कंपनियों से पूछा गया कि कुछ ख़ास मीडिया घरानों की फिल्मों को अपने यहां प्रोमोट की प्रक्रिया को तुरंत प्रभाव से रोकें. उनका मानना रहा कि ये मीडिया घराने फिल्म नहीं बनाते वरन प्रख्यात फ़िल्मी कलाकार के बच्चों को लांच करते हैं और इस तरह फ़िल्मी दुनिया में भाई-भतीजावाद फैलाते हैं.
राष्ट्रीय मीडिया सहित फ़िल्मी हलकों में यह बात साफ़ तौर पर कही जा रही है कि करण जौहर, सलमान खान, भट्ट परिवार, कपूर फैमिली, यशराज फिल्म्स, भंसाली, सहित तमाम लोग उस एलीट गैंग के सदस्य हैं और इनकी छत्रछाया के बिना किसी बाहरी लोगों को काम नहीं मिल सकता है. दिलचस्प है कि फिल्म बनाने के मामले में भारत दुनिया के दूसरे नंबर पर है लेकिन इसका नियंत्रण सिर्फ और सिर्फ आधे दर्जन लोगों के पास है. इस मामले में सत्यता इसलिए भी दिखती है क्योंकि सुशांत सिंह राजपूत की फिल्म ‘सोनचरैया’ जब रिलीज हुई तब उसने अपने इंस्टाग्राम पर लिखा था, ‘बॉलीवुड में मेरा कोई गॉडफादर नहीं है और यदि आप मेरी फ़िल्में नहीं देखेंगे तो मैं यहां से बाहर हो जाऊंगा.’ हालांकि कांग्रेस नेता संजय सिंह निरुपम ने आरोप लगाया था कि मुंबई ने दबंग मीडिया घरानों के दबाव में उनसे सात फ़िल्में वापस ले ली गईं.
मुंबई की मीडिया के कारस्तानी दिलचस्प है जिसके तहत सुशांत सिंह राजपूत के खास मित्रों को टारगेट किया गया और उन्हें सोशल मीडया के तमाम प्लेटफोर्म पर ट्रोल भी किया गया और कहा गया कि उनके खास लोगों ने उनकी मृत्यु पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. यही कारण है कि सुशांत के मित्र और अभिनेत्री कृति सेनन को अपने इनस्टाग्राम पर लिखना पड़ा, "कुछ मीडियाकर्मी अपनी संवेदनशीलता पूरी तरह से खो चुके हैं. ऐसे समय में वह आपसे लाइव आकर कमेंट करने की गुजारिश करते हैं. अंतिम संस्कार में जाते वक्त साफ तस्वीर क्लिक करने के लिए कार का दरवाजा ठोकना और बोलना कि मैडम शीशा नीचे करो न. अंतिम संस्कार पर्सनल होते हैं. इंसानियत को काम से ऊपर रखें. हम भी साधारण इंसान हैं और हमारी भी कुछ भावनाएं हैं. यह मत भूलो." वहीं ट्रोल करने वालों को लेकर भी कृति सेनन ने कहा, यह बहुत ही विचित्र है कि ट्रोल और गॉसिप करने वाले लोग अचानक जागे और आपकी अच्छाईयों के बारे में बात करने लग जाए जब आप इस दुनिया में नहीं है. सोशल मीडिया सबसे फेक और जहरीली जगह है. यदि आपने पब्लिकली कुछ नहीं लिखा और आरआईपी पोस्ट नहीं किया तो समझ लिया जाता है कि आपको दुख नहीं है, जबकि रियलिटी में यही लोग सबसे ज्यादा दुखी होते हैं. ऐसा लगता है कि सोशल मीडिया रियल दुनिया है और रियल दुनिया फेक समझी जाने लगी है."
कृति सेनन की छोटी बहन नुपुर सेनन ने लिखा कि हर कोई सुशांत की मानसिक स्वास्थ्य को लेकर लिखने लगा और हम जैसे लोगों को लेकर ट्विटर पर लिखने लगा, सन्देश भेजने लगा कि आप लोगों ने इंस्टाग्राम पर उसकी मृत्यु पर कुछ नहीं लिखा. “एक पोस्ट तक नहीं डाला”. “तुम लोगों ने एक रिएक्शन नहीं दिया, कितने पत्थर दिल हो तुम.” नुपुर आगे सवाल करती हैं कि आप की परमिशन हो तो सुकून से रो सकते हैं? प्लीज. क्या स्वस्फूर्त या किसी के मातहत कार्य कर रहे ट्रोलआर्मी का यही काम है कि वह किसी की मौत में एक मौका तलाशे और ट्रोल करे? हालांकि अभिनेत्री श्रद्धा कपूर, अंकिता लोखंडे और रिया चक्रवर्ती ने लोगों के ट्रोल करने के बाद भी खामोशी बरती और अपने गम को छुपाती रही हैं.  
बहरहाल, सवाल यह है कि किसी के मरने पर मीडिया सिद्धांत या फिर मीडिया नैतिकता क्या कहता है? क्या किसी के मरने को एक तमाशा बना दिया जाय और उससे जुड़े उन लोगों की प्रतिक्रिया मांगी जाय जो उससे सीधे जुड़े हैं और गम में हैं? सवाल मनुष्य की नैतिकता की भी है कि मरने पर अपनी पब्लिशिटी के लिए मृतक बड़े-बड़े लेख लिखें, टीवी पर आयें और किसी के स्टारडम को भुना लें, जब तक कि कोई दूसरे मामले सुर्खियां न बन जाय.   

6/14/2020

भारतीय मीडिया, भारतीय सीमा और रिपोर्टिंग

विनीत उत्पल
टेलीविजन मीडिया जिस तरह से देश की सीमाओं को लेकर ख़बरें दिखा रहा है, इस पर विचार करना आवश्यक है कि किस राह पर भारत की मीडिया इंडस्ट्री जा रही है. प्राइम टाइम की ख़बरों पर नजर डालें तो ऐसा लगता है कि भारत एक ऐसा देश है जो पाकिस्तान, चीन और नेपाल के साथ लगातार सीमा विवादों और सैन्य मुकाबलों की ओर बढ़ रहा है. मीडिया की ख़बरों में दिखता है कि भारतीय सेना ने पाकिस्तान के बंकरों को तबाह कर दिया तो चीन की सेना को घुटने टेकने के लिए मजबूर कर दिया. दिलचस्प है कि पिछले कुछ दशकों में अमेरिकी-चीन के शीत युद्ध में हर बार चीन भारी पड़ा है, ऐसे में भारतीय मीडिया की हेडलाइन भारतीय सेना के कारनामे को भी कठघरे में भी खड़े करती है.

मीडिया पैनल में देश के तमाम रक्षा विशेषज्ञ भारत-चीन, भारत-पाकिस्तान और भारत-नेपाल को लेकर अपने विचार प्रकट कर रहे हैं, जैसे लगता है वे ही सीमा क्षेत्र की वास्तविकता से अवगत हैं और कोई नहीं. उनका गुस्सा करने के नाटक देखने लायक होता है और तमाम नौटंकी उस खबर के आधार पर होती है जिसे न तो कोई पुख्ता किया होता है और न ही उसका वास्तविक आधार होता है. इस विषय में किसी भी किसी देश का अधिकारिक बयान नहीं होता, बल्कि भारत हो या चीन या पाकिस्तान की मीडिया की ख़बरें होती हैं. सेना के तमाम पूर्व अधिकारी वर्तमान हालातों को छोड़कर अतीत की बातों को ज्यादा तवज्जो दे रहे हैं. भारत के कब-कब और किस-किस इलाके में पाकिस्तान और चीन को हराया जैसे मामले को रेख्नाकित कर रहे हैं और वर्तमान स्थिति को लेकर उनका ज्ञान न्यूनतम होता है.
कभी कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने मजाक में ही कहा था कि चाय बेचने वाला चाय ही बेच सकता है, सरकार नहीं. परिस्थितियां बदली और चाय वाला पिछले छह वर्षों से देश चला रहा है, चाय नहीं बेच रहा. जाहिर है, तमाम लोगों और देशों की स्थितियां बदलती है और समाज आगे बढ़ता है. ऐसे में क्या इस बात के इनकार किया जा सकता है कि किसी देश के साथ भारत की लड़ाई के इतने वर्षों बाद क्या भारत सहित उसके पड़ोसी देशों ने अपनी सेना को सशक्त बनाने के लिए कुछ नहीं किया होगा. कहा जाता है कि कभी भी किसी दुश्मन को कम नहीं आंकना चाहिए. मगर, भारतीय मीडिया जिस तरह के भारत की तस्वीर दर्शकों के सामने रख रख रही है, ऐसा लगता है कि दुनिया के सबसे वीर और क्रूर सेना में भारतीय सेना शामिल है. जबकि वस्तविकता यह है कि भारत की कूटनीतिक रणनीति रही है कि वह कभी भी किसी देश पर आगे बढ़कर हमला नहीं किया है.  

आज की भारतीय टीवी मीडिया पाकिस्तान, चीन और नेपाल को भारत के सबसे बड़े दुश्मन के तौर पर पेश कर रही है, जबकि स्थिति यह है कि पड़ोसी देशों के साथ भारत के व्यापारिक और सांस्कृतिक संबंध काफी तगड़े रहे हैं. आज भी भारत की काफी संख्या में भारत और पाकिस्तान के लोगों की शादियां एक-दूसरे के यहां होती हैं और उर्स के मौके पर एक-दूसरे के यहां आते हैं. भारत और नेपाल के बीच ‘रोटी-बेटी’ का रिश्ता माना जाता है और उस मर्यादापुरुषोत्तम राम का ससुराल नेपाल के जनकपुर में है, जिनका कद आस्था के मामले में सबसे बड़ा है. भारत में पैदा हुआ बौद्ध धर्म मानने वालों की संख्या चीन में अधिक है और चीन के लोग गौतम बुद्ध से जुड़े स्थानों पर भ्रमण करने हर वर्ष काफी संख्या में आते हैं.
भारतीय टेलीविजन मीडिया की हालत ऐसी है कि सिर्फ और सिर्फ उसके पोस्टर बॉय यानी एंकर की सर्वज्ञाता है. वह स्टूडियो में बैठकर ख़बरों का विश्लेषण करेगा और फिर फील्ड में जाकर रिपोर्टिंग भी. आज के टीवी एंकर जिस तरह के अपने पैनल पर आने वाले गेस्ट पर या किसी विषय पर चिल्लाते हैं, क्या यही एंकर या पत्रकार का गुण है? यदि सरकार के सकारात्मक कार्यों को सामने रखने का कार्य का है तो नकारात्मक कार्यों को लेकर सरकार से पूछने की जिम्मेदारी भी पत्रकार की ही है. परदे के पीछे के संवाददाता क्या करते हैं, कोई नहीं जानता. एक विश्लेषण करें तो पाएंगे कि किसी भी टीवी चैनल के कितने रिपोर्टर सीमा के इलाके में लगातार रहकर रिपोर्टिंग कर रहे हैं, तो प्रिंट मीडिया को छोड़ दें तो संख्या सिफर मिलेगी. टीवी रिपोर्टर कश्मीर, जम्मू, अहमदाबाद, चंडीगढ़ या दिल्ली जैसी जगहों में रहकर सीमा पर हो रही हलचलों की जानकारी देता है. ज्यादा हुआ तो किसी व्यक्ति के ट्विटर, फेसबुक जैसे सोशल मीडिया पर पोस्ट किये गए विडियो को अपनी खबरों से जोड़कर न्यूज पैकज में तमाम चैनल पेश करते हैं.
सीमा रेखा और वहां पर हो रहे विवाद को लेकर मीडिया संस्थानों और सरकार को गंभीरता बरतने की आवश्यकता है. देश में तमाम पत्रकारिता प्रशिक्षण संस्थान संचालित हो रहे हैं लेकिन आज तक कहीं भी ‘पीस जर्नलिज्म’, ‘वॉर जर्नलिज्म’, ‘कनफ्लिक्ट जर्नलिज्म’ आदि से जुड़े न तो कोई कोर्स ही सामने आये और न ही किसी मीडिया संस्थानों का ध्यान ही गया कि अपने पत्रकारों को वे प्रशिक्षित करें. क्राइम बीट देखने वाला पत्रकार ही लोकल क्राइम की ख़बरों को कवर करेगा, वही, दंगा-फसाद को लोकर, वही नेशनल क्राइम को भी, वही दाउद इब्राहीम को भी, वही कश्मीर और पंजाब में पकड़े गए आतंकवादियों को लेकर तो वही इंटरनेशनल क्राइम की भी रिपोर्ट करेगा. हालात यह कि देश में कायदे से अपराध पत्रकारिता का भी प्रशिक्षण भी किसी को नहीं दिया जाता है. यदि अमेरिकी सरकार को रक्षा तंत्र पेंटागन सहित तमाम संस्थानों को देखें तो पाएंगे कि वहां किस-किस तरह के पत्रकारों को रिपोर्टिंग के लिए प्रशिक्षित किया जाता है. भारत में स्थिति इसके उलट है, यहां के पत्रकार जब नौकरी में आते हैं, तो उनके समुचित और निरंतर प्रशिक्षण की कोई सटीक योजना किसी भी संस्थान के पास नहीं होती. अंतरराष्ट्रीय मामलों में किसी अन्य संस्थानों से कोई समझौता नहीं होता, जिसे एक-दूसरे के यहाँ के पत्रकारों को प्रशिक्षण मिल सके. कोई विदेशी भाषा सीखने के लिए मीडिया संस्थान अपने पत्रकारों को प्रोत्साहित नहीं करते, जिससे विपरीत परिस्थिति आने पर विदेशी की खबरों को प्रसारित या प्रकाशित करने में आसानी हो. भारतीय पत्रकार तमाम समय में अपनी नौकरी बचाने की जुगाड़ में लगे रहते हैं क्योंकि प्रबंधन इतना प्रभावी हो चुका है, कि कौन पत्रकार, कौन संपादक की नौकरी कब चली जाय, कोई नहीं जानता, तो ऐसे में वह अपनी काबिलियत किस तरह बढ़ाएगा, यह अहम सवाल है.