स्व-नियमन नहीं होगा तो परेशानी बढ़ेगी
10/01/2022
स्व-नियमन नहीं होगा तो परेशानी बढ़ेगी
9/16/2022
मीडिया संस्थानों की संवेदनशीलता और पत्रकारों को आर्थिक सहायता : कोरोना के सन्दर्भ में
मीडिया संस्थानों की संवेदनशीलता और पत्रकारों को आर्थिक सहायता : कोरोना के सन्दर्भ में
डॉ. विनीत उत्पल
कोरोना काल में पत्रकार अजीब द्वंद्व
में स्वास्थ्य संबंधी समाचारों को रिपोर्टिंग करते रहे हैं. जीवन और मृत्यु को
नजदीक से देखते रहे हैं, दूसरों के संघर्ष को देखते रहे हैं और और खुद भी संघर्ष करते रहे
हैं. वे आम जनता के दुःख-दर्द को, अस्पताल की कुव्यवस्था को, मरीजों की दिक्कतों
को, ऑक्सीजन सिलेंडर की कमी को, अस्पताल में न मिलने वाले बेड आदि तमाम परेशानियों को लगातार उजागर
करते रहे हैं. कोरोना ने किस तरह लाखों हँसते-खेलते परिवार को उजारा और उन
परिवारों पर क्या बीती, कहाँ से सहायता मिली, समाज की क्या भूमिका रही, स्वयंसेवी संस्थानों की क्या भूमिका
रही, आदि को भी बखूबी पत्रकारों ने कवर किया. किसी की मौत के बाद, किस तरह से
सरकार, इंश्योरेंस कंपनी, स्वयंसेवी
संस्थानों ने सहायता की, इन बातों को भी मीडिया में खूब कवरेज मिला.
दूसरी ओर, अपनी बिरादरी की कहानी कहने की हिम्मत
शायद ही किसी पत्रकार में नजर आई. मसलन, कोई पत्रकार अपने कर्तव्य पालन के दौरान
कोरोना से संक्रमित हो जाए तो उसके इलाज की क्या व्यवस्था है, उसके परिवार में कोई
संक्रमित हो जाए, तो कहाँ से सहायता मिले, किसी पत्रकार की मृत्य हो जाए तो परिवार
वालों को किस तरह और कहाँ से आर्थिक सहायता मिलेगी, जहाँ वह पत्रकार कार्य कर रहा
है, क्या वह संस्थान आर्थिक सहायता मुहैया करा रहा है या नहीं, संस्थानों में
मानवता या मनुष्यता विद्यमान है या नहीं, आदि. की शायद ही कोई जानकारी मीडिया मी
छाई. कोरोना काल में लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ की स्थिति कैसी रही, सरकार और
मीडिया मालिकों की नजर में पत्रकारों की स्थिति कैसी रही, इस पर विचार करना आवश्यक है.
इसी सन्दर्भ में ‘आजतक डॉट कॉम’ ने 18
मई 2020 को एक खबर प्रकाशित की थी. इस प्रकाशित खबर में प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया
के सदस्य आनंद राणा के हवाले से कहा गया कि देश के 18 राज्य सरकारों ने पत्रकारों
को फ्रंट वारियर्स घोषित किया. विभिन्न राज्य सरकारों ने हेल्थ बीमा के जरिये
पत्रकारों को आर्थिक सहायता भी प्रदान की थी. इसके तहत, हरियाणा सरकार ने पांच से बीस लाख
रुपये की बीमा राशि रखी. ओडिशा सरकार ने पत्रकर के निधन पर 15 लाख रुपए की आर्थिक
मदद, राजस्थान सरकार ने पचास लाख रुपये तक की आर्थिक मदद की घोषणा की. यूपी सरकार की
ओर से भी पांच लाख रुपये का स्वास्थ्य बीमा और कोरोना से मौत पर परिवार को दस लाख
रुपये की आर्थिक मदद देने की घोषणा की गई थी.
कोरोना जैसी बीमारियों से निपटने में
लोगों को आर्थिक रूप से परेशानी का सामना न करना पड़े, इसे देखते हुए सरकार ने लॉकडाउन के बाद कामकाज शुरू करने वाली सभी
कंपनियों के लिए कर्मचारियों को मेडिकल इंश्योरेंस देना जरूरी कर दिया था और यह
तय किया कि अब हर कंपनी को अपने कर्मचारियों को आवश्यक रूप से मेडिकल इंश्योरेंस
देना होगा. इससे पहले संस्थानों को अपने कर्मचारियों को हेल्थ इंश्योरेंस कवर
उपलब्ध कराना अनिवार्य नहीं था. कॉरपोरेट ग्रुप इंश्योरेंस पॉलिसी मुख्य रूप
से कर्मचारी के अस्पताल में भर्ती होने के खर्च को कवर करती है. इसमें उसके
जीवनसाथी या माता-पिता को भी कवर किया जाता है. इसके चलते बीमारी या दुर्घटना में
घायल होने पर आपके इलाज का खर्च इंश्योरेंस कंपनी उठाएगी. बीमा नियामक इंश्योरेंस रेगुलेटरी एंड
डेवलपमेंट अथॉरिटी ऑफ इंडिया (इरडा) ने भी इस बारे में सर्कुलर जारी कर कहा कि सभी
औद्योगिक और कमर्शियल प्रतिष्ठानों, दफ्तरों और फैक्ट्रियों को कामकाज शुरू
करने से पहले स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर (एसओपी) को अपनाना होगा. सोशल डिस्टेंसिंग
के नियमों का पालन करने के साथ उन्हें सभी कर्मचारियों को मेडिकल इंश्योरेंस
पॉलिसी देना अनिवार्य होगा. सर्कुलर में इरडा ने बीमा कंपनियों से व्यापक हेल्थ
पॉलिसी मुहैया कराने का सुझाव दिया था. इरडा ने कहा कि संस्थानों को मेडिकल इंश्योरेंस
पॉलिसी केवल ताजा स्थितियों को देखते हुए ही नहीं देनी चाहिए बल्कि हमेशा के लिए
यह व्यवस्था करनी चाहिए. उसने इंश्योरेंस कंपनियों को हेल्थ इंश्योरेंस
पॉलिसी को इस तरह बनाने के लिए कहा, जिससे छोटे उद्यमों के बजट में भी इन्हें ले
पाना संभव हो.
कोरोना के कारण बीमार हुए या मृत्यु के
आगोश में समाये पत्रकारों ने इस बात की पोल अवश्य खोल दी कि सरकार ने तो पत्रकारों
को फ्रंट वारियर्स घोषित कर दिया लेकिन मीडिया संस्थाओं ने उनके लिए क्या किया?
दूसरों की जवाबदेही तय करना आसान होता है लेकिन खुद की जवाबदेही तय करना थोडा
मुश्किल. कोरोना के दौर में लोकतंत्र के चौथे स्तंभ यानी मीडिया की भूमिका किसी से
छिपी नहीं है. दुनिया भर के पत्रकार अपनी जान की बाजी लगाकर रिपोर्टिंग करते रहे.
कई पत्रकार मौत को चुनौती दी तो कई पत्रकार मौत के आगोश में समा गए. बावजूद इसके,
पत्रकार अपना काम करते रहे और समाज को कोरोना के प्रति सजग करते रहे. और जब बीमार
हुए तो न तो उन्हें आसानी से बेड मिला और न ही काल के गाल में समाने पर उनके
परिवार वालों को कोई आर्थिक सहायता देने वाला उनका संस्थान ही मिला.
कोरोना काल में भारत के मुट्ठी भर
मीडिया संस्थान ही अपने पत्रकारों और उनके परिवार की सहायता के लिए खुलकर सामने
आये. उन्होंने सार्वजानिक तौर पर घोषणा की कि वे इस विपरीत परिस्थिति में अपने सभी
कर्मचारियों के साथ हैं. किसी कर्मचारी के बीमार पड़ने से लेकर उनके निधन के बाद भी
संस्थान उनके परिवार के साथ है. उनके परिवार के रहने-खाने से लेकर बच्चों की पढ़ाई
तक का भार संस्थान वहन करेगा. सोशल मीडिया से लेकर तमाम मीडिया प्लेटफार्म पर जिन
मीडिया संस्थानों के इस कदम को सराहा गया, वे हैं दैनिक भास्कर समूह, लोकमत मीडिया समूह और रिलायंस
इंडस्ट्रीज.
दैनिक भास्कर समूह की ओर से सुधीर
अग्रवाल,
गिरीश अग्रवाल और पवन अग्रवाल के नाम से जो पत्र अपने कर्मचारियों के बीच जारी
किया गया, उसमें कहा गया कि पिछले कुछ समय में स्कर परिवार के कुछ साथी इस महामारी
की वजह से अब हमारे बीच नहीं हैं. उनके निधन से उनके परिवार और भास्कर परिवार में
जो रिक्तता आई है, उसे भरना संभव नहीं है. भास्कर समूह के मालिक ने यह घोषणा की कि
कोरोना की वजह से जो साथी हमारे बीच नहीं रहे हैं, उनके परिजनों को निम्न सहायता
राशि उपलब्ध होगी-
1. भास्कर परिवार ने निर्णय लिया है कि
दिवंगत साथी की मासिक सैलरी की राशि या 30,000 रुपए प्रति माह (इनमें से जो भी कम
हो), उनके परिजनों को अगले एक साल तक मिलती रहेगी. यह बेनिफिट कंपनी के द्वारा
उपलब्ध कराया जायेगा.
2. जीटीएलआई इंश्योरेंस, जिसमें
इंश्योरेंस कंपनी की और से लगभग 48 महीने के सैलरी के बराबर राशि मिलेगी.
3. बिरिवमेंट फंड से लगभग सात लाख रुपए,
जिसमें भास्कर के साथी व कंपनी मिलकर कंट्रीब्यूट करते हैं.
4. पीएफ (भविष्य निधि) की राशि. इसके अलावा,
ईडीएलआई के तहत 35 महीने तक की बेसिक सैलरी (अधिकतम सात लाख रुपए तक) मिलती है.
5. ग्रेच्युटी की राशि.
6. फुल एंड फाइनल सेटेलमेंट की राशि.
वहीं, लोकमत मीडिया प्राइवेट कंपनी के एक्जीक्यूटिव
डायरेक्टर और एडिटोरियल डायरेक्टर करण दर्डा ने अपने सभी कर्मचारियों को लिखा कि
1. यदि किसी की मृत्यु कोविड के करण हुई
है तो उनके परिवार वालों को दस लाख रुपये तक की रकम महैया कराई जायेगी.
2. साथ ही, अगले दो वर्ष तक के लिए
संस्थान ने अपने वरिष्ठ कर्मचारियों को उनके परिवार वालों को सपोर्ट करने की
जिम्मेदारी सौंपी है.
3. कोविड-19 के लिए अपने कर्मचारियों को
सपोर्ट कंपनी के द्वार्रा संचालित लोकमत केयर्स (कोविड असिस्टेंट रिलीफ एंड
सपोर्ट) करेगा.
कोविड-19 की आक्रामकता को देखते हुए
रिलायंस इंडस्ट्रीज (आरआईएल) ने अपने कर्मचारियों के लिए आर्थिक सहायता प्रदान
करने की घोषणा की. इसके तहत,
1. यदि किसी कर्मचारी की मृत्यु कोरोना से
होती है तो उनके परिवार वालों को पांच वर्षों तक वेतन दिया जाएगा.
2. साथ ही ‘रिलायंस सपोर्ट एंड वेलफेयर
स्कीम’ के तहत उनके बच्चों को स्नातक करने तक की शिक्षा, हॉस्टल आदि में रहने का
खर्च, पुस्तकें आदि भी दी जायेगी.
3. यदि किसी को आवश्यकता पड़ी तो तीन महीने
के ब्याज मुक्त एडवांस सैलरी भी मुहैया कराई जायेगी.
4. साथ ही, उनके पति/पत्नी, माता-पिता और बच्चों
को अस्पताल में इलाज के लिए सौ फीसदी प्रीमियम का भुगतान करने की बात भी कही गई.
5. यदि कोई कर्मचारी या उसके परिवार में
किसी को कोरोना हो जाता है तो उसके शारीरिक या मानसिक रिकवरी करने तक विशेष अवकाश
प्रदान किया जायेगा.
6. करीब 10 लाख रुपये तक प्रभावित
कर्मचारियों के परिवारों को दिया जायेगा.
गौरतलब है कि रिलायंस इंडस्ट्रीज
(आरआईएल) के पास नेटवर्क18 मीडिया एंड इन्वेस्टमेंट लिमिटेड का मालिकाना हक़ है. यह
कंपनी टीवी 18 ब्रॉडकास्ट, वेब 18 सॉफ्टवेयर सर्विसेज, नेटवर्क18 पब्लिशिंग, न्यूज़18, ईटीवी, सीएनबीसी चैनल के आलावा
फोर्ब्स इंडिया, ओवरड्राइव जैसी पत्रिका, फर्स्टपोस्ट और मनीकंट्रोल जैसी वेबसाइट
भी संचालित करती हैं. ऐसे में रिलायंस इंडस्ट्रीज (आरआईएल) के द्वारा कोरोना काल
को लेकर की गई तमाम घोषणा वहां कार्यरत सभी पत्रकारों पर भी लागू होती है. जाहिर-सी
बात है कि इन संस्थानों के आगे आने से सभी कर्मचारियों के बीच मनोबल बढ़ा और
उन्होंने जमकर काम किया. इससे कोरोना काल में भी इन कंपनियों ने अच्छी तरक्की की.
ऐसा नहीं हैं कि इन तीनों संस्थानों ने
ही अपने कर्मचारियों के लिए आर्थिक सहायता की पैकेज की घोषणा की. मनीकंट्रोल डॉट
कॉम में 13 मई, 2021 को प्रकाशित समाचार के मुताबिक तमाम गैर-मीडिया कंपनियां अपनी
एचआर पालिसी में बदलाव कर रही हैं. टीसीएस
ने अपने कर्मचारियों को आश्वासन दिया कि यदि कोविड-19 से किसी का निधन होता है तो
उनके परिवार वालों को 23 लाख रुपये तक की रकम दी जायेगी, मुथुट फाइनेंस ने भी अपने
कर्मचारियों को 24 महीने का मासिक वेतन उनके आश्रितों को देने की बात कही. एचसीएल
टेक्नोलॉजी के बारे में टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने खबर प्रकाशित की कि 30 लाख रुपये की
बीमा, सात लाख रुपये कर्मचारियों का जमा से जुड़ा बीमा और मृतक कर्मचारियों के
वार्षिक वेतन के बराबर राशि दी जायेगी. टाटा स्टील ने भी कोविड-19 से पीड़ित
कर्मचारियों को उनके अवकाश ग्रहण करने की उम्र यानी 60 वर्ष तक मेडिकल और आवासीय सुविधाएँ उनके
परिवार वालों को देने की घोषणा की. उनके बच्चों की शिक्षा खर्च वहन करने की बात भी
कही. गिलास बनाने वाली कंपनी बोरोसिल, ओवाईओ, मारुति सुजुकी, लार्सन एंड टुब्रो,
सोनालिका ट्रैक्टर जैसी कंपनियों ने भी अपने कर्मचारियों को भरपूर सहायता प्रदान
की.
ऐसे में जब तमाम संस्थाएं अपने
कर्मचारियों के स्वास्थ्य और उनके परिवार को लेकर चिंताएं जाहिर कर रही हैं तो फिर
मीडिया संस्थानों की चुप्पी लोकतंत्र के लिए घातक है. माना जा रहा है कि भारत में
तीन सौ से अधिक पत्रकारों की मौत कोरोना के कारण हुई. बावजूद इसके उनके स्वास्थ्य,
उनके परिवार और उनके कार्य करने के तरीके पर अधिकतर मीडिया संस्थाओं ने कोई सुध
नहीं ली. ‘वर्क फ्रॉम होम’ के तरीके अपनाए तो गए लेकिन कहीं सैलरी कटौती, तो कहीं
कर्मचारियों का निष्कासन मीडिया हाउस में चलता रहा. ‘वर्क फ्रॉम होम’ के नाम पर
कार्य करने की अवधि में इजाफा कर दिया गया. सुचारू रूप से पत्रकारों के घरों में
इंटरनेट चले, इसकी व्यवस्था भी मीडिया संस्थानों ने नहीं की. तमाम छोटे-बड़े समाचार
पत्रों का प्रकाशन भी बंद हुआ.
कोरोना के दूसरी लहर ने पत्रकारों की
एक और नाजुक स्थिति को सामने लाया, जब वे अपने सोशल मीडिया के माध्यम से अस्पताल
के बेड से लेकर ऑक्सीजन की लीड तक लोगों को मुहैया करा रहे थे. तम राजनीतिक दलों
के नेता और मंत्री भी इस मुहीम में जुड़े थे. लेकिन सवाल यह है कि यदि अस्पताल में
बेड नहीं था तो फिर मंत्री की सिफारिश से बेड कैसे मिल जाता था. जाहिर-सी बात है
कि स्वास्थ्य सेवा प्रबंधन में कहीं न कही खामियां तो थीं लेकिन सिस्टम की इन
खामियों की ओर शायद ही पत्रकारों ने उजागर किया. उन्होंने जितनी ताकत लीड खोजने
में की, यदि उतनी ताकत मेडिकल सिस्टम को ठीक करने में लगाते तो देश की तस्वीर कुछ
और होती. यही करना है कि इसका खामियाजा आम
लोगों के साथ-साथ मीडियाकर्मियों को भी भुगतना पड़ा
बहरहाल, यदि गैर-मीडिया कंपनी अपने कर्मचारियों
को सुविधा मुहैया करा सकती है, उनके परिवार के लिए पैकेज की घोषणा कर सकती है तो
मीडिया घराने क्यों नहीं यह कदम उठा सकते हैं. तमाम पत्रकारों, संपादकों, मीडिया
मालिकों के साथ सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि जो पत्रकार अपनी जान की बाजी
गंवाकर आम लोगों तक सूचनाएं और जानकारियां पहुंचा रहे हैं. उनके लिए कुछ सुनिश्चित
कदम उठायें जाएँ. उन्हें स्वास्थ्य बीमा सहित कोरोना से जान गंवाने पर उनके परिवार
को आर्थिक सुविधा मुहैया कराई जाय. उनके बच्चों को पढ़ाई की सुविधा मिले. तभी
लोकतंत्र का चौथा खम्भा अपनी भूमिका सही ढंग से निभा सकेगा.
संदर्भ:
https://fortune.com/2021/05/26/corporate-india-covid-compensation-tata-oyo-borsi/
9/15/2022
मैथिली लोक साहित्य में भारत बोध
मैथिली लोक साहित्य में भारत बोध
डॉ. विनीत उत्पल
सहायक प्राध्यापक
भारतीय जन संचार संस्थान,
जम्मू परिसर
मैथिली लोक साहित्य में लोकमंगल रचा-बसा है. समाज की विविधता, समाज का ताना-बाना, समाज की समरसता, सामूहिकता की संस्कृति, लोकजीवन के तमाम पहलुओं आदि परंपरा मैथिली साहित्य में है. लोकजीवन की गति, लय और समय की दुधारी तलवार के तमाम रेखांकित किये जाने वाले विषय मैथिली साहित्य में बखूबी दिखाई देते हैं. गांव की ताकत, ग्रामीण परिवेश का अपनापन, लोक उत्सव में सामूहिकता का ताना-बाना, परंपरा की पहचान, पारम्परिक प्रतीक, समाज-सापेक्ष दृष्टिकोण, लोक विडम्बना का चित्रांकन भी साहित्य में नजर आती है.
मैथिली लोक साहित्य में परंपरागत विद्या केंद्र, जहाँ साहित्य के आस्वादन और ज्ञान की जिज्ञासा में लोक लिप्त रहते हैं.
मिथिला लोक में राजा के दरबार में ज्ञान की ज्योति बहती रही है. समाज के सभी वर्ग के लोक में उच्च श्रेणी के विचारक होते
रहे हैं. इसका प्रमाण महाभारत के वन पर्व में धर्मव्याध और पतिव्रता साध्वी की कथा के तौर पर देखा जा सकता है. यहाँ के
लोक की ताकत ही है कि भारतीय दर्शनशास्त्र के छह में से चार शाखा, गौतम न्याय, कणाद वैशेषिक दर्शन, जैमिनी
मीमांसा और कपिल सांख्य की स्थापना इसी मिथिला में हुई.
छह से तेरह शताब्दी ईस्वी पूर्व मिथिला के सीमा से सटा वैशाली बौद्ध मत का केंद्र बना और कुमारिल भट्ट के साथ
उदयनाचार्य वैदिक परंपरा को मिथिला लोक में स्थापित किये. मैथिली के मूर्धान्य विद्वान जयकांत मिश्र के अनुसार, जिस दौर
में मुसलमान भारतीय परम्परा को चोट पहुंचा रहे थे तब मिथिला के लोक में बेस तमाम विद्वान सामाजिक और नैतिक नियम
का निर्माण कर रहे थे. यही कारण था कि मध्ययुग के दौरान मिथिला में नव्यन्याय, पूर्व मीमांसा और स्मृति निबंध में काफी
संख्या में रचना की गई.
मिथिला के लोक में एकदेशीय धर्म का स्वरूप रहा है और हिन्दू वर्णाश्रम धर्म में विश्वास रहा है. यहाँ के लोक में शिव, शक्ति
और विष्णु को मानने की परंपरा रही है, परन्तु यहाँ महादेव की पूजा व्यापक रूप में प्रचलित है. यही कारण है कि विद्यापति
से लेकर चंदा झा तक शिव संबंधी गीतों की रचना की. यहाँ उल्लेखनीय है कि भगवान शिव की स्तुति दो रूपों में की जाती है,
पहला ‘नचारी’ और दूसरा ‘महेशवाणी’। ‘नचारी’ शुद्धरूप में भक्तिगीत होता है, वहीं ‘महेशवाणी’ में महादेव और गौरी के
विवाहित जीवन पर आधारित गीत होते हैं. मिथिला लोक में समाज समावेशी है. यहाँ के ब्राह्मण लोक की उपाधि ‘खां’,
‘बख्शी’ और ‘चौधरी’ होते हैं और मुसलमान रामकृष्ण की भक्ति गीत गाते हैं.
मिथिला लोक की दिशा समरसता से लेकर लोकरसता तक जाती है. यहाँ के लोक साहित्य के मुख्य पात्र बहुतायत में समाज
के निचले वर्ग के लोग हैं. सलहेस, लोरिक, मनियार, कारिख पँजियार, दीनाभद्री, कारू खिरहरि, केवल महाराज, अल्हा-ऊदल,
भीम केवट, बहुरा गोढ़िन, सकना दानवाह, राक कामत, चूहड़मल, पीरबख्श, रन्नू सरदार, जीबछ कमार, लल्लू पटवारी,
जयमलाह, सीसिया महाराज, गरीबन बाबा, सोनाय महाराज, घोघन दिरुवाह, अकलू बड़घरिया, घुमन गुरु,खेदन महाराज,
हंकरु गोसाईं, प्रयाग दासी, छेछन डोम आदि हैं. यहाँ भारत बोध इतना प्रबल है कि मिथिला लोक सिर्फ इन्हें गाथा नायक ही
नहीं मानते बल्कि सत्य पर आधारित पात्र मानते हैं.
मिथिला लोक कविता में राजनीतिक स्वतंत्रता के साथ-साथ राजनीतिक कुटिलता, आर्थिक विषमता और संकटमय जीवन के
अनुभव में नैराश्य, असंतोष आदि के स्वर को भी शब्द दिए गए हैं. यात्री के बाद राजकमल चौधरी, रामकृष्ण झा किशुन,
सोमदेव और धीरेन्द्र जैसे कवि ने समाज और राजनीतिक लोक पर बखूबी लेखन किया है. मिथिला लोक शहरी लोक से अलग
सामजस्य का लोक रहा है, तभी तो लोक के लिए कहा जाता है,
“घरे पर घर मकाने पर मकान, नहि रास्ता केर ठिकान, नहि नाली मौड़िक निकाशीये अछि, एकक दलान तँ दोसर केँ
पिछुआड़, तेसरक बथान तें चारिमक बाड़ा-आमने-सामने होयत अछि.”
(एक घर से सटा दूसरे का मकान होता है, कोई रास्ता नहीं होता, नाली यही होती, एक के दरवाजे पर दूसरे के घर के पीछे के
हिस्सा होता है. वहीं तीसरे का बथान होता है और चौथे का मवेशी बांधने की जगह होती है.) हालाँकि साहित्य में इस लोक
संस्कृति को अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता जबकि अधिकतर ग्रामीण परिवेश में ऐसी सामाजिक बनावट मौजूद है.
मिथिला लोक साहित्य में गांव को अहमियत दी गई है. यहाँ शहर से दूर ग्रामीण परिवेश सबको भाता है. हालाँकि वे विदेशी
आयात और देशी निर्यात से खुश नहीं है लेकिन पलास के फूल उन्हें भाते हैं. लोक बोध में उन्हें कचनार, कैक्टस, मनीप्लांट,
पीपल आदि में पेड़-पौधे अपने लगते हैं. मिथिला का समाज कृषि प्रधान समाज है और साहित्य में कृषि से जुड़ी रचना की
प्रधानता है. लोक साहित्य में किसानों के परिश्रम को बखूबी उकेरा गया है, जैसे, छात्रानन्द सिंह झा लिखते हैं,
“लप-लप करैत दुपहरियामे/बाल-वृद्ध वणितागण/निज स्वेदक बुन्ना-बुन्नीमे/अछि करैत काज/”
(भीषण दोपहर में/बच्चे-बुजुर्ग सभी/अपने पसीने की बूंद-बूंद में/कर रहे हैं काम)
यह लोक ही तो है जहाँ खेती के लिए बच्चे और बुजुर्ग कंधा-से-कंधा मिलकर एक साथ धरती को उपजाने का कार्य करते हैं
और भारत बोध यही तो है. युवा कवि अंशुमान सत्यकेतु अपनी कविता ‘मनुक्ख आशावादी होइत अछि’ में लिखते हैं,
“मुदा जखन/ हमर पएर रहैत अछि तबधल/ खेतक माटिपर/आब’ लगैत अछि हमर घाममे/सोन्हगर गन्ह/”
(लेकिन जब/ मेरे पैर रहते हैं गंदे /खेत की मिट्टी पर/तब आता है मेरे पसीने से/ सुगन्धित खुशबू)
मतलब, मिथिला लोक साहित्य में पसीने के गंध में भी रचनाकार एक तरह का खुशबू पाता है.
दीनानाथ पाठक ‘बंधु’ लिखते हैं, “करू सब गामक जयजयकार/ बसल प्रकृति केर रम्य कोर मे. रहथि लोक सब लीन मोद मे/
मुक्त वायु-मंडल प्रसन्न मन/”
(करे सभी गांव का जयजयकार/ बसा हुआ है प्राकृत के रमणीक गोद में/ रहते हैं सभी लोग मस्ती में/ खुली हवा में प्रसन्न मन में)
.
मिथिला का लोक ग्राम प्रधान है. भारत बोध का भी यही आधार है. कृषि कर्म की प्रधानता है. लोक इसी कर्म में लगे होते हैं.
कर्म से आशा जगती है और आशा के जागने से निराशा भागती है. मिथिला लोक इस कदर आशावादी है कि भूकंप और बाढ़
की त्रासदी झेलने के बाद भी उसे आशा है कि एक-न-एक दिन उनके समय पलटेंगे. समाज की विषमता दूर हो भारत बोध के
लिए समाज आगे आएगा. लोक एक संग होंगे. एक-दूसरे के सुख-दुःख को बाँटेंगे. सभी का जीवन संतुष्ट होगा. अँधियारा से
उजाला आएगा. तभी तो भारत बोध को लेकर रामकृष्ण झा ‘किसुन’ अपने कविता ‘उग रहा सूरज…. में लिखते हैं, “मिटेगा या
विषमता/ सब एक होंगे आज के मानव/ की बस अब एक-से सुख दुःख बंटेंगे/ सभी होगें सुखी और संतुष्ट जीवन/ रह न पायेगा
कहीं कोई कभी अब/ मनुज विह्वल. वस्त्रहीन, विपन्न/ या कि निर्धन, निरानन्द, निरन्त”
कवि भी भारत बोध को समझते हैं कि जब विषमताएं मिटेंगी तो लोक में रहने वाली सभी के दुःख दूर होंगे और लोक का
दायरा तभी व्यापक होगा. मिथिला के लोक और लोक साहित्य में अपनत्व भावना, एक-दूसरे के दुःख में सहायता के लिए
तत्पर रहने की प्रवृति को उद्धृत किया गया है. वह चाहे उपेंद्र ठाकुर ‘मोहन’ की रचना हो या फिर धूमकेतु की. हालाँकि वहीं,
भारत बोध के रास्ते में आने वाले विसंगतियों को दृष्टिगोचर करते हुए मैथिली लोक साहित्य में रचना हुई है. ऐसे में रामानन्द झा
‘रेणु’, मोहन भारद्वाज आदि प्रमुख नाम हैं.
मैथिली लोक उत्सव का लोक है. मैथिली लोक आनंद का लोक है. मैथिली लोक पर्व का लोक है. मैथिली लोक भारत बोध का
लोक है. मैथिली लोक साहित्य में होली, दीवाली जैसे पर्वों पर प्रचूर मात्रा में लेखन किया गया. साहित्य अकादेमी से पुरस्कृति
कवि विभूति आनंद की पंक्ति है,
“”भए जेल होलिकादहन आइ/जरि जेल प्रकृति केर शुष्क पात/जरि गेल संवत्तक राति सेहो/जरि जेल बुढ़ारिक जीर्ण गात/जरि
जेल जीवनक सकल कलेश/छन्हि बनल प्रकृति केर नवल भेस”
(हो गया होलिकादहन/जल गए प्रकृति के सूखे पत्ते/जल गए संवत्त भी रात में/जल गए पुराने हो चुके गात/जल गए जीवन के
सभी क्लेश/बना हुआ है प्रकृति का नया वेश)
जाहिर-सी बात है कि मैथिली लोक में प्रकृति तत्व है. लोक साहित्य में प्रकृति है और इसी में गंगा, यमुना, करेह, जीवछ, कोसी,
कमला, बागमती, गंडक, महानंदा आदि पर आधारित रचना है. मिथिला की उपनदी छोंछिया, सुरगवे, कल्हुआ धार, दुलार
धार दाई आदि पर केंद्रित रचना भी है. अलौकिक रूप में नदी आराध्य है, देवी तुल्य है, वहीं लौकिक रूप में क्रोध, वैमनस्य,
प्रतिशोध, विद्रोह, प्रेम, सहयोग, वात्सल्य, उपकार, मानवीय धर्म आदि देखने को मिलता है.
मिथिला लोक में नव विवाहिता के लिए सुहागन बने रहने की कामना की जाती है. मिथिला की स्त्रियां वट-सावित्री पूजा धूम-धाम
से मनाती हैं. मिथिला लोक चैत्र शुक्ल पक्ष नवमी पुरुषोत्तम राम और भद्रा कृष्णपक्ष अष्टमी भगवान श्री कृष्ण का जन्मोत्सव
काफी धूमधाम से मानता है. यहाँ के लोक साहित्य में कुछ यूँ गीत गाये जाते हैं,
“अहाँ राम कहू/चाहे श्याम कहू/दर्शन करबा लेल नयन तरसैए/अवध बिहारी/मथुरावासी/दुनू नाम सुमरि लिअ/भावसँ सब
मुक्ति चाहैए/गर मे माला/पिताम्बर धारी/रङ्ग दुनू के कारी, नयन देखए चाहैए”
(आप राम कहें/ या श्याम कहें/ दर्शन करने के लिए तरस रही हैं आँखें/अवध बिहारी/मथुरावासी/दोनों नामों को करे स्मरण/
भाव से यदि चाहते हैं होना मुक्त/गले में माला/पिताम्बर धारी/दोनों के रंग है श्यामला, देखना चाहती हैं आँखें).
मैथिली लोक में “”जुड़-शीतल’”, भद्र शुक्लपक्ष चौठ में “चौरचन”, भाद्र शुक्ल पक्ष चतुर्दशी को “अनंत पूजा”, अश्विन शुक्ल दशमी
को “विजया दशमी”, अश्विन पूर्णिमा को “कोजगरा”, कार्तिक अमावस्या को “दीयाबाती” जैसे पर्व भारतबोध के साथ सामूहिक
तौर पर धूम-धाम से मनाये जाते हैं. किसुनजी, चन्द्रनाथ मिश्र अमर, विभूति आनंद, शंकर कुमार चौधरी, राजकमल चौधरी,
गोपालजी झा ‘’गोपेश’ , मार्कण्डेय प्रवासी, उपेंद्र ठाकुर ‘मोहन’, भोलानाथ झा ‘धूमकेतु’’, मोहन भारद्वाज जैसे लोक रचनाकार
की कविताएं इस मिथिला लोक के बोध को बखूबी दर्शाती हैं.
भाई-बहन के प्रेम को मिथिला लोक के काफी महत्त्व दिया गया है और इसे किसी भी तरह बाजार ने ‘रक्षाबंधन’ की तरह
प्रभावित नहीं किया है. दीपावली के बाद कार्तिक शुक्ल पक्ष द्वितीया तिथि को काफी महत्त्व दिया गया है. इसे भाई-बहन के
प्रेम का पर्व माना गया है. लोक साहित्य में लिखी अधिकतर कविता इस पर्व पर आधारित है. युवा कवियित्री स्वाती शाकम्भरी
लिखती हैं,
“सामा-चकेवा/भातृ-द्वितीया/आ अब तें/रक्षा बंधन सेहो/अद्भुत होइत अछि/संबंध भाई-बहिनक/गरीब हो वा धनिक/बाल हो वा
किशोर/बूढ़ हो वा जुआन/भाई बहिनक बीच/अनुपम संबंधक सम्मान।”
(सामा-चकेवा/ भातृ-द्वितीया/ और अब तो/रक्षा बंधन भी/अद्भुत होता है/संबंध भाई-बहन का/गरीब हो या धनी/बाल हो या
किशोर/बूढ़ा हो या जवान/भाई-बहन के बीच/होगा है अनुपम संबंध का सम्मान)
मतलब, मिथिला लोक और लोक साहित्य में संबंधों का सम्मान अनुपम है, बेजोड़ है. स्वाती शाकम्भरी लिखती हैं कि इन तीनों
पर्वों पर मिथिला की भाई और बहन शुभ योजना बनाते हैं और बहन सभी भाइयों के कुशल रहने की कामना करती हैं.
सामान्य लोक में कहावत है कि उगते सूरज को सभी प्रणाम करते हैं, डूबते को नहीं. मिथिला को लोक इस कहावत से दूर है
और भारत बोध के कल्पना को साकार करते हुए डूबते और उगते सूर्य को पूजता है. कार्तिक शुक्ल षष्ठी को सूर्य की आराधना
‘छठ’ पर्व के रूप में करता है. मिथिला लोक में मकर संक्रांति को ‘तिला संक्रांति’ पर्व के रूप में मनाया जाता है.
मिथिला लोक आशा का लोक है, चेतना का लोक है, विश्वास का लोक है. भारत बोध का लोक है. आरसी प्रसाद लिखते हैं,
“उठू-उठू हे भारत प्रहरी/जागू भारत-भक्त/नहि स्वतंत्रता क्यो पबैत अछि/बिना चढ़ौने रक्त”
(उठो-उठो भारत के प्रहरी/जागो भारत भक्त/कोई नहीं पाता है स्वतंत्रता/बिना चढ़ाए रक्त).
आरसी प्रसाद की कल्पना में भारत बोध संघर्ष की बात करता है. देश पर मर-मिटने की बात कहता है. देश के लिए जान
न्योछावर कहता है. कीर्तिनारायण मिश्र अपनी कविता में भारत बोध का चित्रांकन करते हुए लिखते हैं,
“हम ठेला पर बैसि कए/तौनी पर सूतल एक पलिया ओढ़ने/भारत-भाग्य-विधाताक/चारूकात परिक्रमा कए रहल छी”
(मैं ठेला पर बैठ कर/गमछा पर सोये और ओढ़े/भारत-भाग्य-विधाता की/चारों दिशा में कर रहे हैं परिक्रमा)
मिथिला लोक गांधी के अहिंसा के सिद्धांत को मानता है. उसे विश्वास है कि भारत अहिंसा का देश है. मिथिला लोक साहित्य में
स्वदेशी आंदोलन, चरखा, सत्य, अहिंसा, नमक का बहिष्कार, महात्मा गांधी, राष्ट्र प्रेम आदि की रचना बहुतायत से मिलती है.
राजकमल चौधरी, कीर्तिनारायण मिश्र, सुकान्त सोम, भीमनाथ झा, धूमकेतु, यात्री जी, आदि ने भारत बोध पर आधारित तमाम
रचनाएँ की हैं.
मिथिला लोक साहित्य में राजनीतिक विद्रूपता की बार अहम् तरीके से उठाई गई है, जो किसी और साहित्य में विरले देखने को
मिलता है. जीवकांत जी लिखते हैं,
“चकर-चकर चकुआइत देखै छी/ भोट काल मतदाता/ लबर-लबर मिसरीकें बाँटथि/ भारत-भाग्य-विधाता/ सिहरि-सिहरि देखथि
गछ-कट्टी/ बौकी धरती माता।”
(आश्चर्य चकित होकर देखते हैं/ वोट देते समय मतदाता/ खूब मीठे-मीठे भाषण बांटे हैं/ भारत-भाग्य-विधाता /सिहरते हुए पेड़
काटते देखती हैं/ गम रहने वाली धरती माता।)
कवि सिर्फ भारतीय राजनीति पर कटाक्ष ही नहीं करता बल्कि पर्यावरण को लेकर भी चिंतित है. यही तो भारतबोध है, जो
समाज में घटित घटनाओं के साथ-साथ समाज के अस्तित्व और प्रकृति को लेकर भी लोक को जागरूक करता है. वे राजनीति
की ओट में अपनी रोटी सेंकने वालों को राजनीति पांडा कहलाने में नहीं हिचकिचाते और एक-साथ वे नेताओं और पंडों पर भी
शब्दों का प्रहार करते हैं. मिथिला लोक साहित्य लोक को जगाने वाला साहित्य है.
मिथिला लोक साहित्य का मूल स्वभाव है भारत बोध. लोक से जुड़कर और उनके स्थिति पर प्रश्न करना लोक साहित्य में मूल
में है. लोक के विचार को प्रश्रय देने का स्वाभाव लोक साहित्य में है. यहाँ की कविता में प्रेम और करुणा है जो लोक का अहम्
तत्व है. भारत बोध जमीन पर जमे रहने की सीख भी देता है. भारत बोध कहता है कि आप अपने जीवन में कितने में क्यों न
ऊंचाई पा लें लेकिन अपनी जमीन को न भूलें। अपने गांव के संस्कार को न भूलें। तभी तो युवा कवियित्री मुन्नी कामत लिखती
हैं, “उडू आकासपर/ मुदा पैर राखब/ जमीनपर नहि बिसरी/ शहर बसाउ कतेको मुदा/अपन गामक संस्कार नहि बिसरी”
(उड़ें आकाश पर/ लेकिन पैर रखना/ जमीन पर न भूलें/ शहर जाएँ कितना भी/ अपने गांव के संस्कार न भूलें)
मिथिला लोक साहित्य में राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और साहित्यिक पर विचार विमर्श किया गया है, जो भारत बोध में
अन्तर्निहित है. यहाँ का साहित्य लोक को ध्यान में रखते हुए प्रगतिशील मूल्य में आस्था रखता है. अखिल मानवता की भावना
से ओत-प्रोत है. यहाँ के साहित्य में सौंदर्य के क्षेत्र का विस्तार दीखता है. यहाँ कटु यथार्थ की अभिव्यक्ति लक्षित होती है. लोक
को ध्यान में रखते हुए संत्रास, कुंठा, धर्म एम् अविश्वास, अनास्था, जीजिविषा आदि साहित्य में नजर में आता है.
पंचानन मिश्र अपनी पुस्तक ‘लोक-विमर्श’ में मिथिला लोक के सामुदायिक सह-अस्तित्व की चर्चा विस्तार से की है. वे लिखते हैं
कि मिथिला में लोक-विमर्श, लोक वार्ता, लोक सम्भाषण, लोक-संपर्क, लोक-नीति आदि लोक जीवन में, दैनिक जीवन में,
सामुदायिक जीवन में इस कदर घुला-मिला है कि सामाजिक प्राणी की अवधारणा चरितार्थ होता है. लोक समाज के विविध
आयाम, मानवीय संवेदना, नैसर्गिक कलात्मक अभिव्यक्ति, परंपरागत तथ्य आदि मैथिली लोक साहित्य में बखूबी दृष्टिपात
होते हैं. यहाँ लोक बोध की स्थिति यह है कि लोकगीत, लोकोक्ति, रीति-रिवाज, प्रकृति, जनश्रुति, संबंध, लोकगाथा, नारी-पुरुष
प्रस्थिति, विश्वास, टोनावाद, लोक नृत्य, लोक नाट्य, आंगिक अभिव्यक्ति आदि का समवेश बहुतायत से देखने को मिलता है.
मिथिला लोक में लोक विमर्श की स्थिति यह है कि सामान्य तौर पर ‘लोक क्या कहेंगे’, ‘लोक के कहने से क्या’, ‘लोक जो कहें’,
‘कहा जो’, ‘आप सभी के कहने से क्या होगा’, ‘लोक कहेंगे, लोक सुनेंगे’ आदि का प्रयोग आदि काल से करते रहे हैं.
मिथिला में लोक समाज में इतना गहरे तौर पर विद्यमान है कि लोक विमर्श की परंपरा आम के बगीचे की रखवाली करते समय,
सामूहिक रूप से आग तपते समय, रोपी गई फसल से घास हटते समय, तम्बाकू सुखाते समय, चावल के मिल पर बैठे हुए,
धान को साफ़ करते समय, ईंट बनाते समय, जंगल से लकड़ी चुनते हुए, रोपनी करते समय आदि सामूहिक कार्य के संपादन
करते समय लोक-विमर्श की परंपरा है. इतना ही नहीं, प्राकृतिक आपदा के समय, आकस्मिक घटना के समय, पारिवारिक
समस्या सहित राष्ट्र की समस्या के वक्त भी लोक-विमर्श सहज ही होता है. लोक विमर्श सामाजिक प्रक्रिया के संदर्भ में देखा
जाता है जो भारत बोध के अहम् हिस्सा है.
मैथिली लोक साहित्य में निरंकुश शासन-व्यवस्था के स्थान पर जनकल्याणकारी शासन व्यवस्था की स्थापना पर जोर दिया गया है.
यहाँ भारत बोध का आधिक्य इस तरह है कि लोक साहित्य में राजा, राजतन्त्र, कलक्टर, चपरासी, अमीन, सिपाही, चौकीदार,
राजस्व कर्मचारी, साहूकार, गोदाम, उद्यान, गुप्तचर, व्यापर, पेशेवर, शोषण, पहलवान, नारी सत्ता आदि का चित्रण व्यापक
तौर पर है. गौरतलब है कि शासन प्रबंध में गोपनीयता, गुप्तचर आदि की अहम् भूमिका का वर्णन कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में
किया है, वहीं सलहेश लोक गाथा में चौहड़मल को पकड़ने के लिए सबसे पहले कुसुमा और नट्टिन हंसपतिया उसे शराब
पिलाते हैं. बाद में सलहेश और दौना मालिनी वेश बदल कर छद्म वेश में नट और नटिनी बन कर राजमहल में प्रवेश करते हैं.
‘जट-जाटिन’ लोक नाट्य में प्रशासन के अनाचार को प्रतिपद करने की प्रवृति दिखाई देती है. मैथिली लोक साहित्य में
संघर्षशील नारी और नारी सशक्तिकरण का चित्रण है. नारी के युद्ध-कौशल, प्रशासनिक, वाणिज्यिक, बुद्धिमान होने के कई
दृष्टान्त लोक साहित्य में हैं. ‘नैका-बनिजारा’ में नारी पात्र विश्व व्यापर पर अकेले दिखाई देती है. कोल्हाम कोड़ा की रानी
प्रशासन के कार्य में दक्ष है. यहाँ के साहित्य में भारत बोध इस कदर आत्मसात किया हुआ है कि सोनार, नाई, लोहार,
पहलवान, नर्त्तक आदि पेशेवर लोगों को राज्य संरक्षण देता है. ‘गांगो’ कथा में सोनार को लेकर कहा गया, ‘कहाँ जेल किए भेल
सोनरबा भैया रे/गढ़िये दियौ ने बीछिया’. मतलब सोनार भैया कहाँ गए, एक बिछिया बना दीजिये। लोक साहित्य में लोक के
सभी वर्णों को सामान स्थान प्राप्त है.
मिथिला लोक में नृत्य भी भारत बोध को दर्शाता है. यहाँ के लोक जीवन में नारदीय, मसान भैख, झिझिया, नैना-योगिन, दुलाराम
, मूलाधारचक्र नृत्य, लोरिक, चौपहरा, विषहरा नृत्य, कोहबर, कमला नृत्य, विजयमल्ल नृत्य, सामा-चकेबा, करमा नृत्य,
जादुर-नाच, शशिया, डोमकच्छ, जट-जटिन, झूमर, धानरोपनी, धनकट्टी, पुतोहिया नाच, नट-नट्टिन, विदापत नाच, मृदंग नाच
आदि प्रमुख हैं और लोक साहित्य में प्रचुर मात्रा में रचना मौजूद है.
मिथिला लोक साहित्य का दायरा व्यापक है. यहाँ भारत बोध का दायरा भी व्यापक है. यहाँ का साहित्य संस्कार की बात करता
है, परम्परा की बात करता है, स्त्री पात्र की बात करता है. प्राकृतिक आपदा की बात करता है. लोक और भारत की प्रगति की
बात करता है. लोकगाथा की बात करता है. बौद्धिक और सांस्कृतिक विकास की बात करता है. मानवीय जैविकता और
जातीय जीवन की बात करता है. लोक में जन-जागरण की बात करता है. युवा शक्ति की ताकत की बात करता है.
आत्म-ज्योति की बात करता है. यहाँ का साहित्य मन की बात करता है. सत्य और स्वप्न की बात करता है. नवजीवन की बात
करता है. निर्मल प्रेम की बात करता है. जिज्ञासा की बात करता है. युग बोध की बात करता है. भारत बोध की बात करता है.
विनीत उत्पल (2022), मैथिली लोक साहित्य में भारत बोध, प्रो. बृज किशोर कुठियाला, प्रो.संजीव कुमार शर्मा एवं प्रो.श्रीप्रकाश सिंह (संपादक), लोक परंपराओं में स्व का बोध, पृष्ठ 280-289, किताबवाले, दिल्ली, ISSN 978-93-90702-76-3
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